अक्टूबर – फ़िल्म समीक्षा

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                                                                                                                                 साधना अग्रवाल

निर्देशक : शूजित   सरकार
अभिनय : वरुण धवन, बनिता संधु, गीतांजलि राव, साहिल वेदोलिया
संगीत: शांतनु मोइत्रा, अभिषेक अरोड़ा, अनुपम रॉय
गीत : अभिरुचि चंद, तनवीर ग़ाजी, स्वानंद किरकिरे
अवधि 115 मिनट
रेटिंग : 4  स्टार

गर्मी में प्यार का ख़ूबसूरत झोंका

 

शूजित सरकार बालीवुड में उन थोड़े से निर्देशकों में से हैं जो कुछ अलग हटकर फिल्में बनाने में विश्वास रखते हैं। इसी क्रम में उन्होंने बिक्की डोनर, मद्रास कैफे, पीकू हो या पिंक,  अब अक्टूबर बनाई है। इस शीर्षक का मतलब फिल्म के बिल्कुल अंत में जाकर खुलता है कि नायिका को हरसिंगार के फूल बहुत अच्छे लगते थे और ये फूल अक्टूबर के महीने में ही ​होते हैं। इसलिए वह पूरे साल अक्टूबर का इंतजार करती थी। दूसरे इन फूलों की उम्र बहुत कम होती है, उसी तरह नायिका की जिन्दगी है। यह शुजीत सरकार की कल्पना ही है कि उन्होंने इस थीम को लेकर एक ऐसी प्रेम कहानी पर फिल्म बनाई है जो उपर से देखने पर बिल्कुल सामान्य लगती है लेकिन ऐसा है नहीं। यह बहुत धीरे से हमें भीतर तक छूती ही नहीं हमारे अंदर गहराई से धंसती चली जाती है।

फिल्म की बहुत खूबसूरत पटकथा लिखी है  जूही चतुर्वेदी   ने  । और उतनी ही खूबसूरती से शूजित  सरकार ने इसे पर्दे पर साकार कर दिया है। वरुण धवन एकदम इस किरदार में फिट बैठते हैं। कहीं कोई बनावटी पन नहीं। (वरुण धवन)  डैन होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करके दिल्ली के एक फाइव स्टार होटल में इंटर्नशिप कर रहा है। उसके साथ शिउली (बनिता संधु), मंजीत (साहिल वेदोलिया) आदि भी ट्रेनी हैं। डेन को यह ट्रेनिंग पीरियड अच्छा नहीं लगता है क्योंकि इसमें उन सभी से कभी हाउस कीपिंग, लांड्री, किचेन, साफ—सफाई, रिसेपशंस आदि का भी काम करवाया जाता है। वह तो यहां से निकलकर एक रेस्टोरेंट खोलना चाहता है। अचानक एक दिन पार्टी के दौरान एक हादसा हो जाता है कि शिउली काफी उंचाई से गिर जाती है और कोमा में चली जाती है। डेन को पता लगता है कि शिउली ने गिरने से पहले पूछा था कि डैन कहां है? बस फिर क्या था डैन को लगता है कि शायद शिउली उससे प्यार करती है इसलिए वह रात—दिन अस्पताल में चक्कर काटने लगता है और अपनी ट्रेनिंग पर भी ज्यादा ध्यान नहीं देता। वह शिउली को बताना चाहता है कि वह उस रात कहां था। इसी दौरान उसको भी यह अहसास होने लगता है कि वह भी शिउली को चाहने लगा है। डैन और शिउली की मां विद्या अय्यर (गीतांजलि राव) एक—दूसरे से बातें करते हैं। डैन को बुरा लगता है यह देखकर कि शिउली के अंकल उसे कोमा में देखकर चाहते हैं कि शिउली जल्द मर जाए क्योंकि उसके इलाज पर इतना पैसा खर्च करना बेकार है। संभवत: यह बहुत स्वाभाविक भी है कि इन परिस्थितियों में कोई भी परिवारिक जन इस तरह से सोचता है। लेकिन शिउली की मां, जोआईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर हैं ,वह इंतजार करना चाहती हैं।

वरुण धवन इस फिल्म में सचमुच बहुत मासूम, लापरवाह लेकिन संवेदनशील, विश्वसनीय लगे हैं जो कहीं से भी यह नहीं लगता कि वह एक्टिंग कर रहे हैं। इस उम्र यानी 20—21 साल में जिस तरह की आदतें स्वभावत: देखने को मिलती हैं, वही लगभग सभी आदतें उनमें हैं।   ​बनीता संधु इस फिल्म से डेव्यू कर रही हैं। यद्यपि उनकी भूमिका अस्पताल के बेड पर पड़े रहने की है जिसे उन्होंने ठीक से किया है। बनीता की मां बनी गीतांजलि राव प्रभावशाली लगी हैं। ऐसी परिस्थियों में जब उनकी बेटी कोमा में अस्पताल में हो और कमाने वाला घर में उनके अलावा कोई न हो, बल्कि उन पर दबाव पड़े कि इस पर इतना पैसा खर्च करना ठीक नहीं, इन सभी विपरीत स्थितियों को वह कैसे झेलती हैं, दिखाया है।

फिल्म की जरुरत के हिसाब से इसका बैकग्राउंड संगीत बहुत प्रभावी है। जो लोग एक खास किस्म की फिल्में देखना पसंद करते हैं शायद उनको यह फिल्म उतनी अच्छी न लगे लेकिन यह एक असाधरण प्रेम कहानी है। हांलाकि इसकी गति थोड़ी धीमी है लेकिन इसकी अवधि को देखकर ठीक लगता है क्योंकि अगर गति तेज होती तो वे भाव और संवेदनशीलता उभर कर नहीं आ पाती जो इसकी सबसे बड़ी ताकत है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह हमें उदासी में भी प्यार करना सिखाती है।

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