लिव-इन रिलेशन

  • अर्पणा शर्मा

” अभी ना जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं,  अभी-अभी तो आए हो , बहार बनकर के छाए हो , हवा ज़रा महक तो ले, नज़र ज़रा बहक तो ले..ये शाम ढ़ल तो ले ज़रा , ये दिल संभल तो ले ज़रा…”

अपने पसंदीदा गाने को उसने  मोबाइल की रिंगटोन सेट किया हुआ था। उसे सुनकर उसकी तंद्रा टूटी। खाना बनाकर उसने करीने से  मेज पर सजा दिया था। टीवी के सामने बैठे-बैठे कब उसकी आँख लग गई थी, उसे पता ही नहीं चला था।

“मैं अभी बहुत व्यस्त हूँ,  घर पहुँचते देर होजाएगी। तुम खाना खाकर सोजाना”, गौरव की बात सुन याशी ने गहरी उच्छ्वांस ले फोन रख दिया। पिछले एक माह से यह रोज का नियम होगया है। वह रोज यूँ ही प्रतीक्षा करती रह जाती है। उसे अब  यूँ महसूस होने लगा है कि गौरव उसे जानबूझकर टाल रहा है। अपने प्रति गौरव की उपेक्षा को नित नये रूप में उभरता पा रही है। अपनी झूलन आराम कुर्सी पर सिर टिका कर वह सामने दीवार पर लगे उन दोनों के फोटो को निहारने लगी। उस फोटो में दोनों एक पहाड़ी झरने के पास अपने दोस्तों के साथ पानी में अठखेलियाँ करते , एक-दूसरे को प्रेम से निहारते दृष्टिगोचर थे। याशी का मन यादों में गोते लगाने लगा।

” वह लक्ज़री वातानुकूलित बस अपनी रफ्तार पर थी। उस पहाड़ी रास्ते के घुमावदार चढावों से गुज़रते हुए बस कभी दाँये तो कभी बाएँ हिचकोले खा रही थी। रास्ता कच्चा तो नहीं था पर वह पक्की सड़क भी कोई बहुत अच्छी हालत में नहीं थी। हालिया थमा बरसात का मौसम उस सड़क पर अपने निशान छोड़ गया था।  बस में बजते मधुर फिल्मी गाने, हरी-भरी वादियाँ और बस के हिचकोलों  से आपस में टकराते नवयुवा कँधे दोनों के ह्रदयों में सिहरन और उमंग पैदा कर रहे थे। एक ही सीट पर बैठे याशी और गौरव हर झटके पर टकरा जाते तो एक दूसरे को देख मुस्कुरा पड़ते। याशी के मासूम – कोमल मन में मीठी हौलें सी उठ रही थीं । गौरव का व्यक्तित्व सहसा ही उसे अपनी ओर आकृष्ट करने लगा । वैसे तो उसके सहशिक्षा वाले हाईस्कूल में अनेक सहपाठी मित्र रहे थे और वे सब भी बस विद्यार्थी भावना से एक दूसरे से मेल-मिलाप और सहज दोस्ती का भाव आपस में रखते थे।

रोज की कक्षाओं और ढेर सारी किताबों के बोझ के बीच उसका ध्यान कभी किसी नवयुवक सहपाठी की ओर आकृष्ट हुआ ही नहीं । एक पारंपरिक उच्च मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार की लड़की होने के नाते वह जब भी घर से बाहर निकलती तो मानो सारी भारतीय परंपराओं को , पारिवारिक संस्कारों को अपने साथ मन-मस्तिष्क- व्यव्हार में पिरोए चलती है। ऐसे ही याशी की  बोर्ड की परीक्षा का साल कब  दिन-रात की पढ़ाई में  बीत गया उसे पता ही नहीं चला था। आज उनकी फेयरवेल के पहले एक सम्मिलित पिकनिक आयोजित की गई थी तभी गौरव से उसका प्रथम परिचय हुआ। और हुआ ह्रदयों के मधुर प्रेमिल स्पंदन का प्रथम अनुभव। गौरव ने वाणिज्य विषय से बारहवीं की परीक्षा दी थी जबकि याशी ने गणित विषय लिया हुआ था। गौरव का सपना एम.बी.ए. की पढाई पूरी कर करके कैम्पस के द्वारा किसी अच्छी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करने का था। अपनी सहपाठियों से बातचीत में ही उसे पता चला कि दिखने में  सुदर्शन, मनमोहक परंतु गंभीर व्यक्तित्व का गौरव एक सभ्रांत घराने का इकलौता लड़का है। बातचीत में भी गौरव का व्यवहार और शिष्टाचार उसके सुसभ्य होने का परिचय दे रहे थे।

पहाड़ी पर स्थित मंदिर तक पहुँचते – पहुँचते याशी गौरव से बहुत खुल गई थी। मंदिर में घूमकर सब पास के झरने को देखने चल दिये। अपनी सहेलियों के झुंड में झरने के पुल पर खड़ी याशी ने अपने को एकटक निहारती दो आँखों की चमक और प्रेमिल ऊष्मा बरबस महसूस की। कनखियों से उसने देखा कि सामने अपने दोस्तों के साथ खड़ा गौरव नजर बचाकर बीच-बीच में उसे अपनेपन से निहार रहा था। इसका अहसास पाते ही उसके दिल की धड़कने बरबस तेज होगईं। कितना तो आकर्षण था उन गहरी काली आँखों में । उनकी लौ में याशी अपने तन-मन की सुध खोती जा रही थी। यूँ लग रहा था कि वह अंदर ही अंदर पिघलती जा रही है। पिकनिक से लौटते में दोनों को दूर-दूर सीट मिली पर तब तक दोनों के मन एक-दूजे की ओर खिंचने लगे थे, किसी अदृश्य बंधन में बँधे हुए।

शीघ्र ही फेयरवेल का दिन आ पहुँचा। बस अब रोज-रोज विद्यालय आना बंद हो जाएगा और सब साथी अपनी-अपनी राह लगेंगे । जो घनिष्ठ मित्र हैं वो तो मिलते रहेंगे बाकी दोस्त बस किस्मत ने चाहा तो आगे भी मिलेंगे वरना सदा के लिये अलविदा। सभी नवयुवा ह्रदय एक तरफ जहाँ विद्यालय के प्रिय शिक्षकों और दोस्तों से बिछड़ने का सोचकर दुखी थे वहीं काॅलेज के आगामी नव जीवन का उत्साह भी सबके मन में हिलोरें ले रहा था।

गौरव का पता और फोन नंबर उसने नोट कर लिया। फेयरवेल पार्टी में संग-संग थिरकते दोनों  एक-दूसरे का साथ निभाने की कसमें और वादा कर  बैठे । बस्ते के बोझ, बोर्ड की परीक्षा का तनाव और विद्यालयीन कड़े अनुशासन से मुक्ति, पाने का अहसास, भावी काॅलेज जीवन का उत्साह, नव- यौवन का रोमांच और उन्माद , एक सुदर्शन संगी का साथ, सभी कुछ उन दोनों को अपने पाश में बाँध गया और प्रथम -प्रेम का भ्रमर उन पर मँड़राने लगा ।

तभी दरवाजे की घंटी बजी। याशी ने दौड़कर दरवाजा खोला। गौरव भीतर आकर वैसे ही ऑफिस के कपड़ों में बिस्तर पर लेट गया। याशी ने उसके रात के टी-शर्ट पजामा निकाले। पर वो तो तब सो चुका था। धीरे से उसके जूते उतार कर याशी ने खाना फ्रिज में रख दिया। उसकी भूख कब की मर चुकी थी। सुबह नहाधोकर नाश्ते के बाद गौरव ऑफिस चला गया।दोनों के बीच नाम मात्र की रोजमर्रा की बातचीत , गौरव का बस ‘ हाँ’  ‘हूँ ‘ में संक्षिप्त उत्तर और उसके ठंडे व्यवहार से अचकचाती याशी खुद को समझाने की कोशिश करती कि शायद  वाकई गौरव अपने  ऑफिस के किसी नये प्रोजेक्ट को पूरा करने में उलझा है। वैसे भी गौरव की अपना कैरियर सँवारने की महत्वाकांक्षा और मेहनत को तो वो हमेशा सराहती आई है। उस पर गर्व करती है। थोड़े दिनों की बात है,  प्रोजेक्ट पूरा होते ही उसका गौरव वापस अपने उसी प्रेमिल अंदाज शीघ्र ही उसे मिलेगा। नई नौकरी में आगे बढ़ने के लिये पूरा समय और  प्रतिबद्धता जरूरी है। अपने को समझा कर,  याशी बाल्कनी की धूप में कुर्सी खींचकर बैठ गई। पर उसका मन उन्हीं यादों में पीछे खिंचने लगा।

दोनों ने अपना साथ बनाए रखने एक ही काॅलेज में प्रवेश लिया। और एक छोटा फ्लैट किराए पर लेकर दोनों साथ-साथ लिव-इन में रहने लगे। आधुनिक सभ्यता के खुलेपन ने उन्हें एक-दूसरे के सामीप्य की पूरी आजादी प्रदान की थी।  आज तक पारिवारिक और मध्यमवर्गीय वर्जनाओं में आबद्ध सरल-निर्मल जीवन जीती याशी के नवयुवा मन की नदी , गौरव के प्रेम से लबालब सब्र के सब बाँध तोड़कर उन्मुक्त बहने को आमादा हो उठी। उसने गौरव के साथ रहने की बात अपने घर वालों से छुपा ली थी। उसने सोचा कि जब गौरव उसे शादी का प्रस्ताव देगा तभी घर वालों को बताएगी। दूसरे शहर में होने के कारण उसे पूरी आज़ादी थी। गौरव भी याशी का बहुत ध्यान रखता था और उसे अपना कैरियर बनाने के लिये प्रोत्साहित करता था। लेकिन याशी तो बस स्नातक की पढ़ाई के बाद गौरव के साथ अपने सुनहरे भविष्य को सपनों में खोई थी। काॅलेज कैम्पस आयोजन में गौरव का चयन एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में होने पर याशी की खुशी का कोई पारावार नहीं था। भावी सुखद जीवन के सपने बुनता उसका मन यथार्थ के धरातल का आधार कब का खो बैठा था।

गौरव के साथ पूरे तीन साल उसे हो चुके थे। गौरव नौकरी में सेटल होजाय इसी पर उसका पूरा था। वह गौरव की हर आवश्यकता का बहुत ध्यान रखती थी। बीच-बीच में उसका अपने घर जाना होता था ,परंतु  वह अपनी माँ से भी यह बात छुपाती आ रही थी। इस बार उसने तय कर लिया था कि अबकी बार माँ को गौरव के बारे में बता देगी क्योंकि वह अब अच्छी नौकरी पा चुका था। जिससे कि उसके परिवारजनों को उसकी पसंद पर कोई ऐतराज़ ना हो।

तब अपने घर पहुँचते ही अवसर पाकर अपनी माँ को गौरव के बारे में बताया। वो बड़े उत्साह से उसकी तारीफों के पुल बाँधती रही , दोनों के फोटो दिखाती रही। बेटी के इस रहस्योद्घाटन आवाक् उसकी माँ ने समय की नजाकत देखते हुए बेटी का मन टटोलकर उसके प्रेम की गहराई की थाह लेनी चाही। परंतु याशी गौरव से अपने रिश्ते को पर्याप्त समय देना चाहती थी।

उसकी माँ ने ही रात के खाने पर यह बात सबके सामने रखी। सभी ने खुले दिल से याशी की पसंद का स्वागत तो किया परंतु वे लिव-इन-रिलेशन के पक्ष में नहीं थे। इतनी आधुनिकता अभी उस परिवार में पैठ नहीं बना पाई थी। सभी को ये जानकर बड़ा झटका सा लगा कि उनकी लाड़ली तीन वर्षों से लिव-इन में है।

याशी के परंपरावादी परिवारजनों ने उसे बहुत समझाया। उसकी माँ उसे चेतावनी देती रहीं । ” याशी , स्त्री -पुरूष का साथ जब तक नियमबद्ध बंधन में न हो , तब तक एक तरह का व्याभिचार ही होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में विवाह के बंधन को इसीलिए पवित्र और सुदृढ़ माना गया है क्योंकि यह स्त्री-पुरूष को केवल एक दूसरे के प्रति समर्पित रहकर समाज और परिवार के आशीर्वाद से गृहस्थ जीवनयापन करने देने की नियमबद्धध, संस्था है। स्त्री का यौवन हमेशा नहीं रहता और पुरुष का भ्रमर मन यदि बहक जाये तो उसे रोकने -बाँधने को बंधन होना चाहिए । ये लिव-इन रिलेशन का नया चलन और कुछ नहीं बस मित्र रहकर शारीरिक लिप्साओं की पूर्ति का माध्यम भर है। पर क्या इस रिश्ते से तुझे उसके परिवार का आशीर्वाद,  सम्मान मिल पाएगा??? क्या ये तेरा दीर्घकालीन सुख और सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगा???

क्या तू इस रिश्ते से एक परिवार विकसित कर पाएगी?? तू अपने बच्चों को क्या भविष्य देगी?? तूने सोचा कभी …?? जो रिश्ता कोई बंधन या मर्यादा है ही नहीं वो तुझे या तेरे बच्चों को कोई सुरक्षा कैसे देगा???”, यह तो केवल शारीरिक तुष्टि के जरिये दरअसल शरीर को ही दूषित कर जाता है ।
“अब भी मान जा बेटी”, उसकी माँ बहुत गिड़गिड़ाईं- “तुझे गौरव इतना ही पसंद है तो मैं तेरे पापा के साथ उसके घर जाकर विवाह की बात करूँगी …”,
पर याशी पर तो जैसे आधुनिकता का  भूत सवार था। “ओ माँ,  गौरव बहुत अच्छा और आजाद खयालों का इन्सान है, वो कहता है-, ” अभी जिंदगी की मौजों का मजा लेने और अपना कैरियर बनाने का समय है। शादी दकियानूसी ख़यालात है। मैं अभी मेंटली इसके लिये तैयार नहीं । यू नो याशी, लाइफ इज़ टू एन्ज्वायॅ फुली… “, “वो तो मुझे भी अपनी पढाई और कैरियर पर ध्यान देने के लिये बहुत जोर देता रहता है।” , “शादी के लिये सोचने का अभी समय नहीं है”। उसके माता-पिता अपनी वयस्क बेटी पर कोई जोर– जबरदस्ती नहीं करना चाहते थे परंतु उसके भविष्य को लेकर वे बुरी तरह सशंकित और चिंतित हो उठे।

माँ की किसी दलील का याशी पर असर नहीं हुआ था और वो बड़े उत्साह से वापस मुंबई  गौरव के पास लौट आई थी। समय कैसे पंख लगाकर उड़़ गया पता ही नहीं चला । याशी ने भी पास के एक स्कूल में नौकरी ढूँढ ली थी । अब उसका भी दिन मजे में कट जाता था और शामें गौरव के संग हँसते-खिलखिलाते।

तभी उसके मनपसंद जाने की रिंगटोन ने उसे यादों के पिटारे से खींचकर वापस असली दुनिया में ला पटका। धूप सिर पर चढ़ आई थी।  गौरव का वहीं रोज का संवाद कि आज भी उसे आने में  देर होजाएगी।

उसका सिर चटकने सा लगा। जब से घर वालों को पता चला है लेकिन भी याशी से उखड़े से रहते हैं । और जिसके बल पर वह सबके सामने गर्वीली सी अपने लिव-इन-रिलेशन की सोत्साह मुनादी कर आई थी अब उसी  गौरव की नित उपेक्षा ने उसे हीनता और अकेलेपन के द्वंद्व में ढ़केल दिया था…। रात को भी सिर दर्द से वह सो ना सकी।

अगले दिन उससे सुबह उठते ही न बना। सिर दर्द से टूट रहा था और गौरव नहाने के बाद नये ड़्यूओ की गंध से महकता गुनगुना रहा था। ऑफिस के लिये तैयार होते गौरव के हाव -भाव उसका उत्साह छिपाने में असमर्थ थे।

उसने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि याशी अभी तक बिस्तर पर ही है।

“मैं चलता हूँ “, आज दफ्तर थोड़ा जल्दी जाना है। नाश्ता और लंच बाहर ही कर लूँगा ।
इससे पहले कि वह कुछ सोच पाती, कुछ कह पाती, दरवाजा बंद होने की आवाज आई। गौरव जा चुका था। उपेक्षा के दंश से याशी का चेहरा मलिन होआया।

गौरव ने तो उसकी तबियत का हाल पूछने की भी कोई जरूरत नहीं समझी थी। तन-मन की टूटन को समेट कर वह किसी तरह  उठी और अल्मारी की दराज में  ड़िस्प्रिन ढूँढने लगी तभी गौरव के कपड़ों के बीच रखा एक सुंदर फूलों की छपाई से सजा और इत्र की भीनी खुश्बू से महकता गुलाबी  लिफाफा उसके हाथ लगा, ” इन्विटेशन फाॅर लंच – फ्राॅम रिया – ऑन हर बर्थड़े”।

याशी को गहरा धक्का लगा।उसे पूरी छत घूमती नजर आ रही थी। किसी तरह जल्दी से तैयार होकर वो उसी पार्टी वाली जगह पर पहुँच गई । जिस हाॅल में पार्टी थी उसके काँच के दरवाजे से ही गौरव किसी सुंदरी के साथ नृत्यरत दिखाई देरहा था। याशी लपकती सी वहाँ पहुँच बोली -” हाई रिया , हैप्पी बर्थड़े । आइ एम याशी, गौरव की पार्टनर”।

रिया का हक्का-बक्का चेहरा बता रहा था कि उसे इस बात का कोई इल्म नहीं था। गौरव से अपना हाथ छुड़ा वो फट सी पड़ी-
“हाउस कुड़ यू चीट मी…?? यू टोल्ड़ मी दैट यू आर सिंगल…”
” यस आइ एम सिंगल”,
गौरव बोला,
“याशी इस माय लिव-इन पार्टनर ओनली…”,
याशी के मुँह पर मानो जोर का तमाचा पड़ा, अपनी माँ की एक-एक बात उसके कानों में गूँजने लगी। उसके दुखते सिर पर मानो धाड़-धाड़ हथौड़े बज रहे थे।

बेहद अपमानित और टूटी हुई वो उल्टे पैर वहाँ से लौट आई।  उसे इस बात का गहरा अहसास हो गया था कि अब गौरव से कुछ भी कहना-सुनना बेकार है। उसकी चाहत की दुहाई भी अब गौरव पर कोई असर नहीं करेगी। बार-बार उसके कानों में गौरव के नितांत ठंडे लहजे में कहे गये शब्द गूँज रहे थे –  ” यस आइ एम सिंगल”,

“याशी इस माय लिव-इन पार्टनर ओनली…”,

देर रात गौरव जब फ्लैट पर लौटा तो उसे ताला मिला। दूसरी चाबी से दरवाजा खोला तो फ्लैट से याशी का सामान नदारद था।

याशी अपने घर लौट चुकी थी। अपने परिवार, अपनी मर्यादा और सबसे बढ़कर अपनी अस्मिता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए । उसने तय कर लिया था कि अपने माता-पिता की पसंद से विवाह कर एक पावन, सुरक्षित,  सामाजिक,  पारिवारिक रिश्ते की नींव रखेगी बनिस्बत इस खोखले लिव-इन रिलेशन के जहाँ अक्सर अंत में एक लड़की ही तन-मन से ठगी जाती है…!!

 

अर्पणा शर्मा, अधिकारी सूचना प्रौद्योगिकी, देना बैंक, भोपाल (म.प्र.)

Email: arpanasharma.db@gmail.com

2 टिप्पणी

  1. संदीप की लघुकथाएँ ज़मीन से जुड़ी हैं ।अपर्णा की कहानी समसामयिक विषय पर है । लिव इन रिलेशन को अभी पूरी तौर पर मान्यता नहीं मिली है । ये एक प्रयोग जैसा ही है जो कई वर्षों से समाज में चल रहा है । मरीचिका की कथा अच्छी है ।

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