गीत

किस तरह ख़ुद को बचाएँ
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आँधियाँ  उन्मुक्तता  की  चल  पड़ी  हैं,
आप पर है, किस तरह ख़ुद को बचाएँ।।

कट   गई   हैं  डोर   से  जो  भी  पतंगें,
किस   तरह  लूटी  गईं, उनको  निहारें।
बन्धनों  से  मुक्त  होकर  क्या  हुआ है
हाल  उनका, एक पल को यह विचारें।
ठीक  है, नभ  में   उड़ें, आनन्द  लें, पर
डोर  जीवन  की किसी को तो थमाएँ।।

मान  लो, कुछ  मान्यताएँ   हैं  पुरानी,
जो  स्वयं  ही अर्थ  अपना खो रही हैं।
वर्जनाएँ  किन्तु  सारी   ही   मिटा  दें,
इस तरह की कोशिशें क्यूँ हो रही हैं।
चाहते  हैं श्वान  सी स्वच्छन्दता  जो,
क्यूँ  उन्हें  आदर्श  हम अपना बनाएँ।।

सोचिए कितने युगों तक क्रम चला, तब
सभ्यताएँ   इस   तरह   पोषित  हुई  हैं।
कुछ उचित समझे गए प्रतिबन्ध, जिनसे
यह  व्यवस्थाएँ  यहाँ  विकसित  हुई हैं।
पूर्वजों   के  अनुभवों  को   मार  ठोकर,
क्यूं  उसी  आदिम  गुफ़ा  में लौट जाएँ।।

 

बृज राज किशोर ‘राहगीर’
ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड, मेरठ (उ.प्र.), भारत
संक्षिप्त परिचय: पचास वर्षों से लेखनरत वरिष्ठ कवि
दो काव्य संग्रह प्रकाशित, पत्र पत्रिकाओं में ढेरों रचनाएँ प्रकाशित
सेवानिवृत्त एलआईसी अधिकारी

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