गज़ल
१.
हर तरफ से खिड़कियाँ ही खिड़कियाँ महसूस होती हैं,
दूर  रह  करके  भी  घर  में  बेटियाँ महसूस होती हैं .
एक भी  दाना  कभी  उपजे  न  उपजे  अन्न  का उनसे ,
पर, ख़ज़ाने  की  तरह  ही  खेतियाँ महसूस होती हैं .
कान से जब भी गुज़रते हैं कभी अश्आर कुछ अच्छे,
दिल पे  बारम्बार  उनकी  पंक्तियाँ  महसूस होती हैं .
बोलते हों लाख दुनिया से भले हम झूठ ही लेकिन,
आइने में  सबको अपनी  ग़लतियाँ  महसूस   होती हैं .
सामना जब-जब भी होता है किसी पत्थर की मूरत से,
जिस्म पर  कितनी सही  हैं छेनियाँ  महसूस   होती हैं .
हर कोई उन तक पहुँच पाए न पाए ,ठीक है लेकिन,
सबको ही ख़ुद तक बुलाती चोटियाँ महसूस होती हैं .
देखने में   तो अकेला  मैं भले  तन्हा  नज़र आऊँ,
इन रगों  में   दौड़ती-सी   पीढ़ियाँ   महसूस   होती हैं .
सरहदों पर लड़ रहे हैं मुल्क के जांबाज़ जितने भी ,
जिस्म पर  अपने भी  उनकी  वर्दियाँ  महसूस  होती हैं.
२.
क़ाफ़िये से क़ाफ़ियों का मेल भर बिल्कुल नहीं
शायरी बस चन्द लफ़्ज़ों का सफ़र बिल्कुल नहीं.
ज़िन्दगी के  सर पे  ही  हर वक्त  मँडराती रहे
और फिर भी मौत की कोई ख़बर बिल्कुल नहीं.
जिसकी नज़रों में ही है यह सारी दुनिया, ये जहां
वह किसी को भी कहीं आता नज़र बिल्कुल नहीं.
ज़िन्दादिल आती हैं सुबहें और शामें ख़ुशनुमा
ज़िन्दगी में  दोपहर ही  दोपहर  बिल्कुल नहीं.
घाटियाँ भी  खाइयाँ भी  उनमें  मिलती हैं कई
पर्वतों के हों शिखर,केवल शिखर बिल्कुल नहीं.
सुख ही सुख छोड़े मिटा दे ज़िन्दगी के सारे दुख
ऐसा तो  मिलता कहीं  कोई रबर  बिल्कुल नहीं .
जाने किस-किस लोक से अल्फ़ाज़ आ जाते हैं ख़ुद
शायरी का  मुझमें तो  कोई  हुनर बिल्कुल नहीं.
कमलेश  भट्ट 
सी-631,
गौड़ होम्स, गोविन्द पुरम
हापुड़ रोड,ग़ाज़ियाबाद-201013(उ.प्र.)
मो.9968296694.
ईमेल-kamlesh59@gmail.com

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