जोगी
द्वारे आता था एक जोगी
भस्म ललाट से लेकर
पूरे तन पर लगाये हुए
आँखों मे तेज़ ब्रह्म का
होंठो पे मुस्कान निश्छल
आते ही पुकार लगाता
अलख निरंजन
द्वारे जोगी आया माई
मुट्ठी में जो आये डाल दे झोली में
एक मुट्ठी में संतुष्ट होकर
चला भी जाता वो
एक रोज जाने क्या सूझी मुझे
जो दौड़ पड़ी
आज मुट्ठी मुट्ठी झोली भर दूँ जोगी?
निश्छल मुस्कान संग जोगी ने कहा
हम मुट्ठी नहीं नापते माई
श्रद्धा से जो आये दे जा
एक मुट्ठी गेंहू लेकर दौड़ी
कुछ राह में गिरे,कुछ झोली में
उसने मुस्कुरा कर कहा
“जा बच्चा”
तुझे भी मिले तेरा जोगी
वर्षो बीते गए
न आया फ़िर वो कभी नज़र
तुम आये भस्म रंग का शर्ट पहने
उसी मुस्कान संग द्वार खड़े
लेकिन ये जोगी थोड़ा अलग है
ये चिमटा घुमा कर अलख न जगाता
ये नज़र घुमा कर मन सुलगाता है
सब जानते सब बूझते कि
न चल सकती उस जोगी संग दो क़दम भी
मन मिलों की यात्रा कर आता है
जब महकने लगता है
मन के ऊसर में महुवे सा कुछ
उस पल जोगी शरमा भी जाता है
महकते चहकते इस जोगी संग
मन बाउल गीत जाने क्यों गाता है।
आशा पाण्डेय तस्लीम, कोलकाता