उसकी आँखें भूरी थी | आँखों का भूरापन ही उसकी खूबसूरती थी | एक ऐसा आकर्षण की जो भी देखे डूबता चला जाए | इस चुम्बकीय आकर्षण से कितने ही खिंचे चले आए | सैकड़ों ने तो प्रतियोगिता में भाग लेने से पूर्व ही हार स्वीकार कर ली और दूर हो गए | सैकड़ों कोशिस करके थक गए, तब मन मसोस कर दूर हुए | यौवन की दहलीज़ पर होते हुए भी मैं उससे आकर्षित नहीं हुआ, ऐसा कहना सरासर झूठ होगा | कई बार बचपन में सुनी बातें इतनी गहरी बैठ जाती है की चाहते हुए भी दिमाग से निकलती नहीं | दादाजी बहुत सी बातें सुनाते रहते थे उसमें एक यह भी थी भूरी आँखों वाले कभी विश्वास के लायक नहीं होते | ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए | हालाँकि उनकी बातें कोई रिसर्च या प्रमाणों पर आधारित हो, ऐसा नहीं था पर कहीं न कहीं कई पीढ़ियों का गहरा अनुभव उनके पीछे अवश्य था | शतप्रतिशत सत्यता की सम्भावना न तो प्रमाण पर आधारित बातों में होती है और न ही अनुभव से कही गई बातों में फिर भी उसकी भूरी ऑंखें देखते ही मन में भय भरी एक सिहरन सी दौड़ जाती | यही कारण था सभी के लिए वे चुम्बकीय आकर्षण थी पर मेरे लिए विकर्षण | मेरी सदैव कोशिश रहती उससे सामना न हो पर  संयोग था या साजिश, होता इसका उल्टा था | किसी न किसी बात पर वो टकरा जाती, कभी नोटबुक के लिए तो कभी किसी विषय पर संशय दूर करने के लिए |

मित्रता एक ऐसा ताबीज़ है की उसके बाद सारे भय दूर हो जाते है, सारे संशय विश्वास में बदलने लगते है | अब समझ आने लगा था की यह कॉपियों की अदला बदली अनायास नहीं होती थी | लगभग उसकी सोची समझी योजना होती थी | वह भी बताने लग गई थी कि वह बचपन से ही जिद्दी है | उसे जितनी मुश्किल से मिले वह मंज़िल हासिल करने में मज़ा आता है और अब ऐसी आदत हो गई कि दो डगर होती भी है तो कठिन डगर पर चल देती है | मेरी दूर भागने की कोशिशें ही उसको पास आने के लिए प्रेरित करती | कॉपियों के आदान प्रदान से शुरू हुआ ये औपचारिक कार्यक्रम अब थ्योरी क्लास में पेन से एक दूसरे को मारना, लैब में सभी की उपस्थिति में मज़ाक से लेकर कैन्टीन में अकेले में एक दूसरे के देहिक से लेकर दिल के सौन्दर्य के बखान पर जाकर समाप्त होने लगा |

जब किसी को प्यार हो जाता है तो सिर्फ़ माँ बाप भाई या दोस्त ही नहीं दुनिया का हर शख्स उन्हें अपना दुश्मन लगने लगता है | ऐसा ही हमारे साथ भी हुआ सबसे पहले लाइब्रेरियन अपना दुश्मन लगने लगा क्योंकि कॉलेज में एक ही जगह होती है जहाँ कॉलेज समय के बाद भी घंटो आप बैठ सकते है | रात्रि आठ बजे बन्द होने का समय था | हम सोचते थे सवा आठ तक तो बैठें पर वह तो पौने आठ बजे घड़ी दिखानी शुरू कर देता | जब सभी उठने शुरू हो जाते तो हमारे पास भी कोई विकल्प नहीं होता, मन में बुरा भला कहते हुए बाहर निकल जाते | तब तक कैन्टीन पहले ही बंद हो चुकी होती थी | वह होस्टलर थी तो उसे दस बजे तक पहुँचने की छूट थी | ऐसे में कोशिस यही रहती कि इस समय का पूरा सदुपयोग किया जाए पर आठ बजे के बाद जगह की समस्या बरक़रार थी | ढूँढने पर आखिर एक नीम का पेड़ मिल गया | वहाँ रोड़ लाइट से प्रकाश भी पर्याप्त आता था इसलिए सोमरस पीने वालों के लिए अनुपयुक्त था और पास में ही ढाबा था, जो हमारे लिए उपयुक्त | ठण्ड के दिनों में उसकी अदरक वाली चाय का आनंद लिया जा सकता था |

अक्सर घंटो नीम के पेड़ के नीचे बैठे बतियाते रहते थे और कई बार लड़ते भी | ऐसे ही एक दिन नीम के नीचे उसकी स्कूटी पर बैठे हुए चाय पी रहे थे | सर्दियों की रात थी और ठण्ड का गुस्सा सातवें आसमान पर था | लोग अँधेरा होते ही घरो में दुबकने लग जाते थे | ऐसे में सड़क पर आवाजाही काफ़ी कम हो गई थी वहां पर  हम दोनों के अलावा थड़ी वाला ही था | वह नीम के तने के दूसरी तरफ़ था यानि हम सीधे उसकी नज़रों में नहीं थे |

एक हाथ में गिलास पकड़े, दूसरे हाथ की अँगुलियों से मेरे बालों में कंघी करते हुए अचानक से बोली ‘आई लव यू’ |

एकदम हुए इस हमले से मैं अवाक् रह गया फिर थोड़ा सामान्य होते हुए सोचकर बोला तुमने कभी प्रेम कहानियाँ पढ़ी है ? मैंने तो जितनी भी पढ़ी है न जाने क्यों उन सभी में प्रेम हमेशा गुलमोहर के नीचे ही पल्लवित हुआ है | हम तो नीम के नीचे बैठते है देखना यहाँ तो कड़वाहट ही पैदा होगी…हा हा हा |

वह हँसते हुए बोली, तुम हमेशा नेगेटिव सोचते हो | वैसे बाई दी वे मैं क्यों पढूं प्रेम कहानियाँ ? मैं ऐसी कहानियाँ पढ़ने में नहीं गढ़ने में यकीन रखती हूँ | तुम कुछ भी सोचो या कहो, देखना एक दिन ऐसा होगा जब कोई हमारी प्रेम कहानी भी लिखेगा और उसे हज़ारों लाखों लोग पढ़ेंगे |

तुम समझती क्या हो कहानियों के बारे में ? वे ऐसे पेड़ों के नीचे बतियाने से नहीं बनती है |उनमें प्रेम, रोमांस उलझनें, दर्द, मिलना, बिछुड़ना सब कुछ होना चाहिए | ट्विस्ट होना चाहिए ट्विस्ट वर्ना हर किसी की कहानी किताबों में, अखबारों में छप जाती तब तो अभी तक इतनी किताबें होती कि न तो हमारे और तुम्हारे बैठने लायक जगह बचती और न ही कोई पेड़ बचता |

थ्योरी क्लास से होते हुए लैब, कैन्टीन, लाइब्रेरी और फिर नीम के पेड़ तक पहुँचने के बाद अब कभी कभी मेरे कमरे पर भी आ जाती थी | कोई चार माह बाद छुट्टियाँ थी तो माँ मिलने आई तब मकान मालकिन ने जितना था उसमें अपनी और से छोंक लगा कर सुनाया | माँ एक सप्ताह रुकी | भगवान ने साथ दिया और इन सात दिन में पता नहीं क्यों वह एक बार भी नहीं आई | इसलिए माँ को थोड़ा बहुत मेरी बातों पर विश्वास हुआ की ऐसी कोई गंभीर बात नहीं है | बस मामूली सी दोस्ती है जिसकी वजह से कभी कभार कमरे पर आना जाना हो जाता है | छह महीने बाद माँ फिर आई | अब तक उसकी यहाँ आने की आवृति भी कुछ अधिक हो गई थी ऊपर से माकन मालकिन द्वारा अबकी बार छोंक के साथ मसाला भी डालकर बातें परोसी गई | अब माँ को बात में गंभीरता का कुछ कुछ आभास होने लगा | शायद इस कारण वह उसके माँ, बाप, भाई, बहन, परिवार, ननिहाल के बारे में अनेकों प्रश्न करने लगी | वैसे सिर्फ़ मित्रता कहते हुए अब भीतर से कभी कभी मुझे भी रिश्ते की गहनता का अहसास होने लगता था | अब उसके बिना कमरे पर मन नहीं लगता | यहाँ तक की माँ के साथ रहते हुए भी दो बार उसका आना हुआ | माँ क्या सोचेगी इसका भय होते हुए भी की उसका आना अच्छा लगा, दिल को कुछ सुकून सा मिला |

घर पहुँच कर माँ पिताजी को ऐसा कोई समाचार देकर तनाव नहीं देना चाहती थी पर अनुभव से पके सफ़ेद बाल कम से कम जीवन साथी का चेहरा पढ़ना तो जान ही जाते है | आखिर उनके बार बार पूछने पर की जब से वापस आई हो ललाट पर ये चिन्ता की रेखाएं कैसी है ? तुम कितना ही इंकार करो पर कुछ तो है जो मुझसे छुपा रही हो | माँ ने सब कुछ बता दिया और अन्त में हंस कर बोली की बच्चे है, एक दूसरे को पसन्द करते है तो साथ बैठ जाते है आप क्यों टेंशन लेते हो ? पिताजी बोले बात इतनी सी होती तो तुम्हारे ललाट पर ये रेखाएं नहीं उभरती | मान लो कुछ नहीं भी है तब भी तुम्हारे चिन्तित रहते मुझे चैन कभी आया है जो अब आ जाएगा  ?

इतनी ही चिन्ता हो रही है तो उसके घर परिवार के बारे में तो पता कीजिए फिर सोचते है आगे क्या करना है | कई बार इन्सान सोचता ही रह जाता है, समय कब पंख लगा कर उड़ जाता है पता ही नहीं लगता | ऐसा ही हुआ, पिताजी आज कल करते रहे, सोचते रहे तब तक हमारी डिग्री पूरी हो गई | इस बीच हमने जरुर एक दूसरे की गोद में सिर रखकर, बालों में अँगुलियों से कँघी करते हुए कितनी ही बातें की होगी | महसूस किया की दुनिया में प्रेम के सिवाय कुछ भी नहीं है | प्रेम ही जीवन है उसके अभाव में, शुष्कता से जीवन कितना कष्टपूर्ण और रुखा होता है |

ग्रेजुएशन के बाद क्या करना है ? कभी सोचा ही नहीं या यूँ कहूँ मैंने सोचा नहीं क्योंकि परिणाम आते ही उसने जाने की तैयारी कर ली थी | मुझे पता लगा तो पांवों के नीचे से जमीन खिसक गयी | किसी बात की कल्पना भी नहीं की हो और वह घटित हो जाए तो हर किसी के साथ ऐसा ही होता है | वो जाना चाह रही थी और मेरा आग्रह था रुक जाए |

अरे यार, तुम समझते क्यों नहीं हम यहाँ तीन साल के लिए पढाई करने आए थे | अब मैं अपनी अगली मंज़िल को जा रही हूँ तुम अपनी को जाओ |

हमने भी तो किसी मंज़िल का सोचा था ?

…और ये हम से सीधे तुम और मैं पर कैसे आ सकती हो ? मेरी कौनसी मंज़िल ? मेरी तो पहली और आखिरी मंज़िल तुम ही हो और किसी मंज़िल के बारे में कभी सोचा ही नहीं तो जाऊं कहाँ ?

तुम सच में पागल हो चुके हो अब तुम्हारी मंज़िल कोई अच्छा साइकेट्रिस्ट होना चाहिए…हा हा हा |

तुम समझते क्यों  नहीं ? कुछ व्यवहारिक बनो | प्यार, मोहब्बत, इश्क कहने सुनने में अच्छे लगते है पर असल ज़िन्दगी में आपकी डिग्री, बिज़नेस, पैसा, गाड़ी, बंगला, रिलेशंस काम आते है | हम जब तक रहे सुख से रहे अब उसे दिल पर लेकर या भावुक होकर परेशान होने से कोई अर्थ नहीं निकलता | ज़िन्दगी ने कारण अकारण फिर अवसर दिया तो सुख से साथ रहेंगे पर अभी तो मेरी तरह तुम्हे भी कहीं जाना चाहिए |

क्या प्लान बनाया है तुमने ? कहाँ जाओगे ?

तपते हुए रेगिस्तान में |

हा हा हा…फिर तो मैंने पागल कह कर कोई गलती तो नहीं की | जानते हो वहां का तापमान कितना होता है ? कहते है गर्मियों में खुले में पड़ा पानी भी उबलने लगता है |

जनता हूँ इसीलिए तो जाना चाहता हूँ | एक ऐसे रेगिस्तान में जहाँ सैकड़ो, सैकड़ों क्यों हजारों किलोमीटर तक कोई नहीं हो, मनुष्य क्या पशु या पानी भी नहीं | हाँ, बस एक कोयल हो जिसका संगीत सुनते हुए गर्म धूप में सिकता रहूँ | सूखी गर्म हवा देह से पानी की एक एक बूंद ले जाए और पीछे रह जाए सिर्फ़ एक ठूंठ | जिसमें कूट कूट कर भरी होगी तेरी यादें और आखिरी वक़्त में सुना गया उस जान लेवा गर्मी में तड़पती हुई कोयल का दर्द से भरा संगीत | तुम जब आओगी न, देखने उस ठूंठ को तब बस, एक बार बाहें फैला कर गर्मजोशी से सिर्फ़ एक बार मिल लेना, जैसे तुम मुझसे मिला करती थी | मेरी सारी यादों, सारे दर्द का अन्त हो जाएगा, मैं मुक्त हो जाऊँगा हमेशा हमेशा के लिए | वादा करो तुम रूकती नहीं हो तो कोई बात नहीं पर वहां तो आओगी |

उसने हँसते हुए अभी स्वयं की मुक्ति के लिए बोला, हाँ बाबा आउंगी | अब तुम जाओ मुझे अपना सामान, बैग सब तैयार करना है कल निकलना भी तो है | जो बाज़ार ब्रेड लेने या कैंटीन तक भी मेरे बिना नहीं जाती थी, कल एयरपोर्ट तक छोड़ने का कहा तो मेरे प्रस्ताव पर सख्ती से असहमति जता दी |

मैं वहां से निकल पड़ा, कहाँ के लिए ? मुझे भी नहीं पता पर वहां से जाने का कह दिया गया था, इसलिए जाना तो था ही | कमरे पर आ कर बिना लाइट ऑन किए कम्बल में घुस गया | दो घंटे करवटें बदलता रहा फिर उठकर नींद की गोली ली | एक घन्टे बाद फिर दो गोली पर नींद ने भी आज कोई कसम ले रखी थी की नहीं आनी तो नहीं आनी | कभी किसी मित्र ने कहा था की नींद की गोलियों से नींद नहीं आती है तब हंसी आई थी | मैंने पूछा था फिर इनका नाम ऐसा क्यों रखा ? पर आज प्रत्यक्ष अनुभव हुआ, ये असर तभी करती है जब नींद आ रही हो और ले ली जाए वर्ना कोई काम की नहीं |

हालाँकि उसने एयरपोर्ट तक टैक्सी से जाने का कह इशारा कर दिया था की अब आखिरी मुलाकात हो गई |  मेरा और वक़्त जाया मत करना परन्तु जगह और समय बताने की गलती कर दी थी | रात नो बजे की फ्लाइट थी | चोबीस घंटे बाद बिस्तर से निकला, मेरी एक बात से वह सबसे खुश होती थी की इस ठण्डे प्रदेश में भी मैं रोज़ नहाता हूँ पर आज वह भी नहीं कर पाया | आखिरी मुलाकात में मेरी एक खूबी जो उसे पसंद थी उसे बरकरार नहीं रख सका पर वैसा आभास हो इसलिए डियो लगाया और चल पड़ा |

एयरपोर्ट दो घंटे पहले ही पहुँच गया | समय होने पर वह आई, इधर उधर नज़रें घुमाई, जैसे उसे पूरा विश्वास हो कि मैं जरुर आऊंगा | वो मेरे पास आई बाहें फैला कर मुस्कराते हुए मिली पर आज हमेशा वाला वो प्रेम, वो ख़ुशी महसूस नहीं हुई, न ही कोई स्त्री और पुरुष के मिलने से उत्पन्न होने वाले कोई भाव | मैं भाव शून्य हो गया था या हम दोनों ही, पता नहीं पर इस मिलन में न कोई गर्माहट थी, न ही कोई पीड़ा | विचार शून्य समाधि जैसी स्थिति, जिसमें कोई भाव, संवेदना, दुःख, सुख, या विचार नहीं, जिसे कुछ भी नाम दे दिया जाए |

वह कब गई मुझे नहीं पता |

रात दो बजे, आखिरी फ्लाइट भी जा चुकी तो किसी कर्मचारी ने पूछा भाई यहाँ क्या कर रहे हो ? सभी लोग तो अपने अपने गन्तव्य को चले गए | तब मुझे पता चला वह तो अगली मंजिल तक भी पहुँच गई और मैं रेगिस्तान की बजाय यहाँ पर ठूंठ बन गया था | तब से आज तक रेगिस्तान हो या हरियाली जहाँ भी जाता हूँ, वैसा ही भावशून्य, विचारशून्य ठूंठ | कब मुक्ति होगी मैं नहीं जानता |

FATEH SINGH BHATIडॉ.फ़तेह सिंह भाटी “फ़तह”
मो: 9414127176
आचार्य, निश्चेतना विभाग
डॉ.एस.एन.मेडिकल कॉलेज जोधपुर

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