हमारे देश में आम तौर पर प्राथमिक या माध्यमिक शिक्षा पर ही बात हो पाती है और उच्च शिक्षा अलक्षित ही रह जाती है. शिक्षाशास्त्रियों की मूल चिंताएं प्राथमिक शिक्षा से शुरु होकर माध्यमिक शिक्षा तक समाप्त हो जाती है और वे मान लेते हैं कि शिक्षा में सुधार हो गया. हालांकि इन विमर्शों का ही नतीज़ा है कि पिछले कुछ वर्षों में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में बहुत हद तक सुधार देखने में आया है. आज नवाचार का प्रचलन, बच्चों को भय-मुक्त वातावरण देने का प्रयास, मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव, पुस्तकालय का उपयोग तथा उन्हें परस्पर प्रतिस्पर्धी की जगह सहयोगी बनाने की कवायद शुरु हुई है. किंतु इस संदर्भ में सबसे बड़ी बाधा निजी स्कूल हैं जो अपने ढंग से चलने में विश्वास करते हैं.

बहरहाल, आज जब हम अपने देश की उच्च शिक्षा पर बात करना चाहें तो मन बहुत मायूस हो जाता है. इस संदर्भ में सर्वाधिक दिलचस्प पहलू यह है कि प्राथमिक से माध्यमिक शिक्षा तक जहां लोग अपने बच्चों को सरकारी संस्थानों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं, वहीं उच्च तथा उच्चतर शिक्षा के लिए वे निजी संस्थानों में भेजना पसंद नहीं करते. क्योंकि गुणवत्ता की दृष्टि से आज भी सरकारी कालेज़ और यूनिवर्सिटियां अपेक्षाकृत अधिक भरोसेमंद है. किंतु निजीकरण के दैत्य के सम्मुख सरकारी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता कब तक विश्वसनीय बनी रह सकेगी यह कहना बहुत कठिन है.

तो सवाल है, उच्च शिक्षा की पतनशीलता के कारण क्या हैं? मेरी समझ से सबसे बड़ा कारण है राजनीतिक इच्छा शक्ति और नेतृत्व का अभाव. इस देश की शिक्षा से जुड़ी सभी योजनाएं और नीतियां राजनीतिक संस्थाओं की इच्छा पर निर्भर है जबकि हमारे राजनीतिकों को शिक्षा पर कुछ खास विचार करने की कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. न हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों में शिक्षा कोई महत्वपूर्ण मुद्दा बन पाती है. यही वजह है कि शिक्षा में सुधार के लिए समय-समय पर समितियां तो गठित होती हैं किंतु उनकी सिफ़ारिशें हमेशा ठंडे बस्ते में डाल दी जाती हैं या अनमने तरीके से एकाध लागू कर दी जाती हैं. इन कारणों से शिक्षा व्यवस्था लगातार अराजक होती चली जा रही है और हमारे नेता तथा सरकार सब कुछ जानते-समझते हुए भी या तो टाल-मटोल करती रहती है अथवा उसका फ़ायदा उठाती है.

दूसरा कारण है उच्च शिक्षा के लिए ऐसी किसी संस्थान का अभाव जो पूरे देश की उच्च शिक्षा व्यवस्था पर निगाह रख सके तथा उसके निर्देश महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए बाध्यकारी हों. यशपाल कमिटी ने काफ़ी पहले (2009) ही यूजीसी को अप्रासंगिक बताते हुए एनसीएचईआर (the National Commission for Higher Education and Research-NCHER) जैसी एक संस्था की सिफ़ारिश की थी, किंतु सरकारी इच्छाशक्ति के अभाव में आज तक कुछ नहीं हो सका.

उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बहाल करने के लिए आधारभूत संरचना की सबसे ज़्यादा आवश्यकता है और इस संरचना के पहले पायदान पर हैं शिक्षक. अच्छे शिक्षक किसी भी विश्वविद्यालय की पहली प्रमुख आवश्यकता होते हैं. किंतु आज हिंदुस्तान के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में सहायक प्रोफ़ेसर की नौकरी जिस तरह सिफ़ारिश और चंद मिनटों के इंटरव्यू के आधार पर मिल जाती है उतनी आसानी से किसी चपरासी की भी बहाली नहीं होती है. आज इस देश के जितने भी बड़े विश्वविद्यालय हैं उसमें अपेक्षाकृत उतने ही कमज़ोर शिक्षक नियुक्त हैं. अगर इसके कारणों की जांच की जाए तो बड़े दिलचस्प तथ्य हाथ लग सकते हैं. इस अनर्थ पर न शिक्षक संघ मुंह खोलता है और न ही छात्र संघ. उनकी चुप्पी का सबसे बड़ा कारण यह है कि उनकी पूरी राजनीति इसी नियुक्ति प्रक्रिया के ईर्द-गिर्द घुमती है. उदाहरण के लिए, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक और छात्र संघ काफ़ी सक्रिय हैं, जबकि दिल्ली विवि में ही सबसे ज़्यादा शिक्षक ठेके (एडहाक) पर बहाल किए जाते हैं और जिन्हें हर सेमेस्टर में निकाल दिया जाता है. इस असुरक्षा में शिक्षक कितना छात्रों को पढ़ाने पर ध्यान देंगे और कितना प्रिंसिपल और टीचर इंचार्ज़ की चापलूसी पर यह सोचने वाली बात है. छात्र नेताओं के लिए उनके आका (जो अमूमन प्रोफ़ेसर ही होते हैं और छात्र संगठनों को अपनी मर्ज़ी से संचालित करते हैं!) पहले से ही नौकरी की व्यवस्था करके तैयार रहते हैं, इसलिए छात्र आंदोलन भी हास्टल की व्यवस्था, छात्रवृति और फ़ीस की बढ़ोतरी का विरोध करने से आगे नहीं निकल पाता. ऐसे माहौल में उच्च शिक्षा में एक तरफ़ तो हताशा बढ़ती जा रही है तो दूसरी तरफ़ अकर्मण्यता.

उच्च शिक्षा में दूसरी सबसे बड़ी आवश्यकता है आधारभूत संरचना मज़बूत करने की, जैसे बिल्डिंग, लाइब्रेरी, लेबोरेट्री, आडोटेरियम, छात्रावास, शिक्षक-आवास, कक्षा-कक्ष तथा कुछ अन्य तकनीकी सुविधाएं आदि. किंतु आज सरकार के पास शिक्षा के नाम पर इतना कम बजट होता है कि अगर बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों की बात छोड़ दें तो ये सारी आवश्यक चीज़ें आज भी एक दिवा-स्वप्न से ज़्यादा कुछ नहीं है. वर्तमान में शिक्षा का बज़ट साढ़े तीन प्रतिशत है जिसे हाल में गठित सुब्रह्मण्यम समिति ने बढ़ाकर छह प्रतिशत करने का सुझाव दिया है.

इस संदर्भ में उच्च शिक्षा पर गठित ‘यशपाल समिति’ तथा हाल में गठित ‘टी.एस.आर. सुब्रह्मण्यम समिति’ अथवा ‘नई शिक्षा नीति’ के आलोक में कुछ बातें की जानी आवश्यक हैं ताकि उच्च शिक्षा की समस्याओं और निवारणों तथा कुछ अन्य पेचीदगियों पर बात की जा सके.

यशपाल समिति खास करके उच्च शिक्षा तथा शोध में गुणवत्ता बहाल करने के उद्देश्य से गठित की गई थी. इस समिति की रिपोर्ट लगभग सात साल पहले सरकार को सौंपी जा चुकी है किंतु उसकी सिफ़ारिशें आज भी मुंह बाये है. उन सिफ़ारिशों को उसी सरकार ने लागू नहीं किया जिसने समिति गठित की थी (यों तो उस सरकार के मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने मात्र सौ दिनों के भीतर ही उन सिफ़ारिशों को लागू करने का दावा किया था) और उसके बाद आई यह नई सरकार ने उन्हें लागू करने की जगह फ़िर एक नई समिति गठित कर दी. इस नई समिति (टी.एस.आर. सुब्रह्मण्यम समिति) ने भी कुछ महीने पहले अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है. अब देखना यह है कि इस नई समिति की सिफ़ारिशें लागू होती हैं या फ़िर से कोई नई समिति ही गठित की जाएगी.

यशपाल समिति ने यूजीसी को पूरी तरह अप्रासंगिक बताते हुए उसकी जगह पर एनसीएचईआर बनाने पर ज़ोर दिया था जो उच्च शिक्षा से जुड़ी सभी संस्थाओं पर निगाह रखती तथा उन्हें अपने सुझाव देती, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है. किंतु इसी के साथ-साथ इस रिपोर्ट में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर भी काफ़ी बल दिया गया है. साथ ही, यशपाल समिति की सिफ़ारिश है कि आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान अन्य अनुशासनों से इतने अलग-थलग न हों, उन संस्थानों में भी मानविकी, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र आदि विषयों के विभाग हों ताकि उन छात्रों के पास भी इन विषयों को पढ़ने तथा इन्हें जानने-समझने के विकल्प मौजूद हों. इतना ही नहीं, इस समिति का कहना है कि निजी विश्वविद्यालयों को भी अपने यहां अनिवार्य रूप से मानविकी, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा विज्ञान की पढ़ाई सुनिश्चित करनी होगी. केवल तकनीकी या व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के विभाग के बल पर वे अपने संस्थान कायम नहीं रख सकते. इसके अलावा इसमें निजी विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के लिए भी न्यूनतम वेतनमान तथा अन्य मानदंडों को कड़ाई से निर्धारित करने की बात की गई है. यह समिति केंद्रीय तथा राज्य शासित विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में भी किसी भी स्तर पर भेदभाव तथा विषमता के सख्त खिलाफ़ है.

एक नई बात यह है कि इस समिति ने छात्रों द्वारा शिक्षकों के आकलन की बात भी कही है. इसके अलावा इस समिति की सिफ़ारिशों में एक अन्य महत्वपूर्ण बात है विश्वविद्यालयों में जेंडर, वर्ग तथा जाति को लेकर किसी भी तरह की असमानता को खत्म करने की.

यह दिलचस्प है कि एक तरफ़ प्रो. यशपाल वर्ग-संबंधी भेदभाव को विश्वविद्यालयों से खत्म करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ़ उन छात्रों को ध्यान में रखकर फ़ीस में पर्याप्त बढ़ोतरी की बात भी कहते हैं जो अधिक फ़ीस देने में समर्थ हैं, अर्थात जिनके माता-पिता संपन्न हैं. अब इस तरह का कमाल प्रो. यशपाल के ही वश में है कि अलग-अलग वर्ग के छात्रों से अलग-अलग फ़ीस ली जाए तथा उनके बीच वर्गीय भावना तथा भेदभाव को समाप्त भी कर दिया जाए! इसके अलावा मध्यवर्गीय छात्रों को पढ़ने के लिए कर्ज़ का विकल्प दिया गया है ताकि वे अपनी पढ़ाई खत्म करने से पहले ही कर्ज़ का जुआ अपने कंधों पर धर लें. इससे बैंकों का और पूंजीपतियों को तो लाभ होगा किंतु आम लोगों के लिए शिक्षा धीरे-धीरे दुर्लभ होती चली जाएगी. इसी प्रकार जहां एक तरफ़ विश्वविद्यालयों से जातिगत भेदभाव को खत्म करने की वकालत की जा रही है वहीं दूसरी तरफ़ हकीकत ठीक इसके विपरीत है जिसका एक ठोस उदाहरण ‘रोहित वेमुला’[3] है. जेंडर को लेकर भी विवि में होने वाले भेदभाव की हालत इससे बेहतर नहीं है.

इसी तरह यशपाल समिति तथा हाल में गठित सुब्रह्मण्यम समिति में विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए राह आसान करने की सिफ़ारिश की गई है तथा उच्च शिक्षा में (प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में तो निजी क्षेत्रों का ही बोलबाला है) निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढ़ाने की बात की गई है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले यशपाल समिति ने ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप’ की भी बात की थी. इसी प्रकार उपर्युक्त दोनों समितियों ने शिक्षा को रोज़गारपरक तथा कौशल विकास से जोड़ने पर बल दिया है.

उच्च शिक्षा के संबंध में नई शिक्षा नीति में सर्वाधिक उल्लेखनीय बात है विश्वविद्यालयी शिक्षकों के लिए एक “अखिल भारतीय शिक्षा सेवा” के गठन की, जिसकी नियुक्तियां भी लोक सेवा आयोग द्वारा सिविल सेवा परीक्षा की तरह से की जा सकेगी. यह सिफ़ारिश अगर लागू कर दी जाए तो उच्च शिक्षा में मील का पत्थर साबित होगी, क्योंकि इसके माध्यम से नियुक्तियों में होने वाली लगभग सारी गड़बड़ियां दूर हो सकेंगी और विश्वविद्यालय तथा छात्रों को योग्य शिक्षक मिल सकेंगे. हालांकि यह समिति कुलपतियों और उपकुलपतियों की नियुक्ति के लिए किसी नियम की बात नहीं करती है. ऐसे में यह सुधार ऐतिहासिक होकर भी अधूरा ही रहेगा. इसके अलावा यह समिति ऐसी शिक्षा नीति विकसित करने पर बल देती है जिसके माध्यम से कोचिंग संस्थानों को हतोत्साहित किया जा सके, जिसके द्वारा वर्गीय भेदभाव में बढ़ोतरी होती है तथा कमज़ोर आय वर्ग के छात्र स्वाभावत: पिछड़ जाते हैं.

बहरहाल एक तरफ़ तो शिक्षा पर गठित विभिन्न समितियों की सिफ़ारिशें हैं जिनके आधार पर आज के हालात को देखें तो यही लगता है कि सरकार अपनी सुविधा देखते हुए उन्हें लागू करती है अथवा दरकिनार करती है. जो सिफ़ारिशें सरकार अथवा पूंजीपतियों के हित में हैं उन्हें तत्काल बिना बहस के अनायास ही स्वीकार कर लिया जाता है. उदाहरण के लिए शिक्षा में निजी क्षेत्रों की भागीदारी, फ़ीस में बढ़ोतरी तथा शिक्षा हेतु कर्ज़ आदि. किंतु जो सुधार आमजन के लिए आवश्यक हैं उन्हें बिसरा दिया जाता है.

शिक्षा को निगलने वाला सबसे बड़ा दैत्य निजी-क्षेत्र है, जिसने भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को तहस-नहस कर डाला है. इसके बावजूद उपर्युक्त दोनों समितियां उच्च शिक्षा में भी निजी क्षेत्रों की भागीदारी और अधिक बढ़ाने की बात करती हैं. दूसरी तरफ़ हम देख सकते हैं कि अधिकांश निजी विश्वविद्यालय इस देश के संविधान की ओर से पीठ करके अन्यायपूर्ण नीतियों के सहारे चल रहे हैं. इन विश्वविद्यालयों में छात्रों से मनमानी फ़ीस वसूली होती है, दूसरी तरफ़ शिक्षकों को इतने कम वेतन दिए और इतने अधिक काम लिए जाते हैं कि उसे उत्पीड़न भी कहना कम होगा. ऐसे निजी विवि में शिक्षा की गुणवत्ता का भी कोई मानक नहीं है, बस डिग्रियां बांटी अथवा बेची जा रही है. इसलिए उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढ़ाने जैसी मनमानी सिफ़ारिशों के कारण कैसे यह विश्वास किया जाए कि इन समितियों ने इस देश की अधिकांश मध्यवर्गीय तथा निर्धन आबादी का ध्यान रखा होगा?

समस्या इतनी ही नहीं है. उच्च शिक्षा में जो संस्थाएं हैं वे भी अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह नहीं करती हैं. यूजीसी समय-समय पर नियम तो जारी कर देती है किंतु उसका पालन होता है या नहीं इसे देखना वह शायद अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझती है. इसके अलावा यूजीसी अपनी ही परीक्षा को लेकर शायद इस विश्व की सर्वाधिक भ्रमित संस्था है. यही कारण है कि कभी वह नियम जारी करती है कि ‘नेशनल इलिज़िबिलिटि टेस्ट- नेट’ सहायक प्रोफ़ेसर के लिए अनिवार्य योग्यता है और कभी उसे स्वयं वह अनावश्यक घोषित कर देती है. ऐसी संस्था से उच्च शिक्षा का कितना भला हो सकता है यह समझने वाली बात है.

दूसरी तरफ़ तमाम विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर पूरी दुनिया के खिलाफ़ तो प्रदर्शन करते हैं किंतु विश्वविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर न मुंह खोलने को तैयार हैं और न ही इसके निदान हेतु सरकार को अपनी तरफ़ से कोई सुझाव देते हैं. उल्टे सरकार अगर अपनी तरफ़ से कुछ करना भी चाहे तो स्वायत्तता का रोना लेकर बैठ जाते हैं.

इसी प्रकार इस देश में उच्च शिक्षा की गिरावट का अयोग्य प्राध्यापकों की नियुक्ति के अलावा एक अन्य प्रमुख कारण है केंद्रीय तथा राज्य शासित विवि में शिक्षकों की भारी कमी. इस देश के सभी विश्वविद्यालयों का औसत देखें तो शिक्षकों के आधे से अधिक पद रिक्त हैं. ऐसे में हम किस मुंह से शिक्षा में गुणवत्ता की बात कर सकते हैं यह सहज ही समझा जा सकता है. फ़िर सवाल है कि इन बातों के लिए किसे जवाबदेह माना जाए और किस पर कार्रवाई की जाए, और अगर न की जाए तो क्यों न की जाए??

Universities must take steps to reduce gender, class and cast asymmetries. page No. 27

There are a large number of students who can afford to pay for their education. Absence of differential fees has led to subsidizing students who can actually afford to pay. Those who can afford to pay must pay higher fee for which they will be offered guaranteed student loans. Free education will be provided ‘only’ to those who cannot afford it. Page 42

रोहित वेमुला हैदराबाद केंद्रीय विवि का छात्र था जिसने विश्वविद्यालय प्रशासन तथा छात्रों द्वारा हो रहे जातिगत भेदभाव तथा उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी.

विपिन कुमार शर्मा

8/945, विकास नगर, लखनऊ-226022 (उ.प्र.)

मो.- 7619014236

ईमेल- bipinjnu@gmail.com

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