वन्दना यादव का स्तंभ ‘मन के दस्तावेज़’ – आइए होली मनाते हैं!
दोस्तो पर्व है होली का चलो हो कुछ यूँ
कोई दुश्मन ना रहे रंग लगाओ कुछ यूँ
: आतिश इंदौरी :
यह मौसम के बदलने की आहट है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और यहाँ तक कि इंसान के भीतर भी बदलाव की लहर तरंगित हो रही है। लंबी सर्दियों...
डॉ. नन्दकिशोर साह का लेख – नारी उत्थान में गांधी के विचार
महात्मा गांधी स्त्रियों के सामाजिक उत्थान के लिए भी बहुत चिंतित हैं। महिलाओं के जीवन को प्रभावित करने वाले सामाजिक कृतियों के बारे में उनके मन में काफी कड़वाहट थी। वे मानते थे कि बाल विवाह, पर्दा प्रथा सती प्रथा और विधवा विवाह निषेध...
वन्दना यादव का स्तम्भ ‘मन के दस्तावेज़’ – उतार-चढ़ाव की डगर
जीवन उतार-चढ़ाव का एक रोलरकोस्टर है। कोई भी स्थिति ज्यादा देर तक एक जैसी नहीं रहती। एक पल के लिए खुदको सबसे नीचे महसूसने वाला व्यक्ति भी अगली बार अपनी सोच के शीर्ष पर पहुंच जाता है। यहाँ जो व्यक्ति जितने प्रयास करेगा, सोच...
वन्दना यादव का स्तम्भ ‘मन के दस्तावेज़’ – जो रूह को सुकून दे।!
समय अपनी रफ्तार से बढ़ता है। सुख के दिन तेजी से बीतते और परेशानियों के दौर आ कर ठहर गए-से लगते हैं मगर सच तो सच ही होता है। इंसानी भावनाएं जिन पलों को बाँधना चाहती हैं, वे भी रेत की मानिंद मुट्ठी से...
डॉ रामवृक्ष सिंह का लेख – भाषा उत्सव नहीं, उपयोग की विषयवस्तु है
सन् उनचास में हिन्दी संघ की राजभाषा बनी और उसके बाद से हम हिन्दी दिवस मना रहे हैं। इसी प्रकार अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस, मातृभाषा दिवस आदि मनाते हमें दशकों हो चुके। विडम्बना ही है कि तमाम उत्सवों के बावजूद हिन्दी ही नहीं, देश की...
संगीता राजपूत “श्यामा” का शोध आलेख – डॉ. महेश दिवाकर की सजल का समीक्षात्मक अध्ययन
ऐसा कुछ कर चले सखे हम,
काल – चक्र के आते आते !
धरती महके, अम्बर महके,
महक उठे जग जाते जाते ||
मनुष्य को अपने जीवन काल मे सार्थक कार्य करने की प्रेरणा देने वाली डा. महेश दिवाकर जी की यह संदेशप्रद पंक्तिया, किसी भी सुप्त अवस्था...