मुलाकात: सुप्रसिध्द संपादक सुमन कुमार घई से धर्मपाल महेंद्र जैन की बातचीत

हिन्दी की ई-पुस्तकों का बाज़ार बहुत बड़ा होगा

1952 में अम्बाला में जन्मे प्रतिष्ठित रचनाकार श्री सुमन कुमार घई पिछले चार दशकों से टोरंटो  (कैनेडा) में रहते हुए अपनी साहित्यिक अभिरूचियों में सक्रिय हैं। पिछले बीस वर्षों में मैं उनसे कई बार मिला हूँ और एक चीज़ जो हमेशा मुझे आकृष्ट करती रही वह है उनके शांत चेहरे पर बसी एक ऋषि जैसी सादगी। वे समर्पित संपादक हैं, बेबाक आलोचक हैं और अच्छे-खासे पढ़ाकू भी हैं। हर मुलाकात में एक-दो नए सशक्त कथाकार के बारे में उनसे जानना अच्छा लगता है, विशेषकर तब जब अपनी ही रचना को समालोचक के रूप में पढ़ने के लिए स्वयं रचनाकार की ही रूचि नहीं होती। न उन्हें पर-निंदा आती है, न स्व-प्रशंसा; और न ही अपनी रचनाओं पर बात करने का अति उत्साह। वे कैनेडा से प्रकाशित त्रैमासिक हिन्दी चेतना के सह-संपादक (2002-2007) रहे, एवं अब सुप्रसिद्ध इंटरनेट पत्रिका ‘साहित्य कुंज (http://www.sahityakunj.net) का 2003 से संपादन एवं प्रकाशन कर रहे हैं। साथ ही, 2008 से सक्रिय हिन्दी राइटर्स गिल्ड, टोरंटो के संस्थापक निदेशक हैं।

सुमन जी कैनेडा से प्रकाशित ‘हिन्दी टाइम्स’ के 2009 से 2014 तक वैतनिक सम्पादक रहे। मैं उन्हें ‘वैतनिक’ सम्पादक इसलिए लिख रहा हूँ कि भारत के बाहर बहुत कम हिन्दी साहित्यकर्मी होंगे जिन्होंने पेशेवर हिन्दी सम्पादक के रूप में 5 साल काम किया हो। एक हिन्दी साप्ताहिक के रूप में अपने शिखर के दिनों में ‘हिन्दी टाइम्स’ ने कैनेडा में नए कीर्तिमान स्थापित किए। 64 पेजों के कलेवर में 32 पृष्ठ साहित्य को देते हुए उन्होंने ‘हिन्दी टाइम्स’ को अच्छा लाभ अर्जित करने वाली और पाठकों की मनपसंद पत्रिका बना दिया। उन्होंने पुस्तकबाज़ार.कॉम (http://pustakbazaar.com) के द्वारा ई-पुस्तकों का प्रकाशन 2015 से शुरू किया और यह निरन्तर प्रगति करता जा रहा है। अपने सुविचारित और संश्लिष्ट सम्पादकीय आलेखों के अलावा सुमन कुमार घई एक कथाकार और कवि भी हैं। इसलिए यह मुलाकात कहीं कहानी हो सकती है तथा कहीं कविता भी।

सुमन जी, भारत के बाहर रचा जा रहा साहित्य प्रवासी साहित्यके नाम से सुदृढ़ होता जा रहा है, और तो और लगभग हर प्रमुख साहित्यिक पत्रिका में प्रवासी कहानीससंदर्भ स्थान पा रही है। अपनी कविता खो चुका परिचयमैं आप कहते हैं अनजाने से देश में / मुखौटों की भीड़ / कोलाहल में खो चुका / अपना ही परिचय / और मैं दर्पण में अपना चेहरा ढूँढता हूँ। पहचान की इस तलाश के मद्देनज़र प्रवासी साहित्यनामकरण को ले कर आपके क्या विचार हैं?

 धर्म जी, कविता की जो पंक्तियाँ आपने उद्धृत की हैं, वह हर प्रवासी का नए देश-परिवेश से उत्पन्न अंतर्द्वद्व है और यह निःस्संदेह हम प्रवासी लेखकों के रचनाकर्म में दिखता है। “प्रवासी साहित्य” की संज्ञा विदेशों में रचे जा रहे साहित्य की पहचान के साथ पूरा न्याय नहीं करती। हो सकता है भारत के पाठकों, समीक्षकों की दृष्टि में भारत से बाहर, विभिन्न देशों में रचा जा रहा साहित्य एक जैसा ही हो, परन्तु अगर सूक्ष्मता से देखें तो ऐसा है नहीं। मैं अँग्रेज़ी साहित्य का उदाहरण देता हूँ – क्या इंग्लैंड के पाठक, समीक्षक या भाषा के विद्वान अमेरिका, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया या न्यूज़ीलैंड के साहित्य को “इमिग्रैंट साहित्य” का नाम दे कर एक ही पुलिंदे में बाँध देते हैं – नहीं। चाहे भाषा एक ही है परन्तु कथानक में पात्रों की जीवनशैली और उनके अनुभव हर देश, जीवन के अपने हैं। यानी इसे एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता। इसी तरह विभिन्न देशों में रचित हिन्दी साहित्य को एक ही वर्ग में सीमित नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि भारतीय साहित्य-सत्ता ने अपनी समझ के अनुसार इस वर्ग का सरलीकरण कर दिया हो – परन्तु यह वास्तविकता नहीं है। ऐसा क्यों है इसका एक उदाहरण देता हूँ –  हिन्दी राइटर्स गिल्ड के उद्घाटन के समय प्रसिद्ध कहानी लेखक डॉ. महीप सिंह जी को हमने आमन्त्रित किया था। कार्यक्रम के बाद हुई बातचीत के दौरान उन्होंने इच्छा प्रकट की कि अगर हम लोग कैनेडा में रचे जा रहे साहित्य को समीक्षा के लिए उनके पास भारत भेजें तो वह उसकी समीक्षा करवा देंगे। मैंने उनसे प्रश्न करते हुए कहा, “आप कई बार कैनेडा आ चुके हैं और आप यहाँ के समाज को समझने लगे हैं। क्या भारत का समीक्षक जिन्होंने यहाँ का जीवन केवल किताबों में पढ़ा है और जिया नहीं है; क्या वह कैनेडियन जीवन, समाज और परिदृश्य की सूक्ष्मताओं को समझ सकेंगे?” महीप सिंह जी ने मेरे तर्क को मानते हुये कहा, “नहीं, ऐसा संभव नहीं है- परन्तु कला पक्ष की समीक्षा तो हो ही सकती है।” यही समस्या “प्रवासी साहित्य” नामकरण करने वाले भारतीय साहित्यविदों की है।

 सुमन जी, आपकी कुछ कविताएँ पढ़ते हुए मैं आपके कवि की मनःस्थिति टटोलने की कोशिश कर रहा था। जैसे  भूत भूलता नहीं है / वर्तमान पहचानता नहीं है / भविष्य जानता नहीं है / इस त्रिशंकु में रहूँगा तो कब तक‘ (त्रिशंकु) या  भाव तुम तो मेरे थे तुम क्यों पराये हो गए?’ (मेरे शब्द)। ख़ुद को खोजते हुए अपने रचनाकर्म के साथ, हिन्दी साहित्यिक पत्रिका के संपादक के रूप में आपकी अपने रचनाकारों से क्या अपेक्षाएँ होती हैं और आपके कवि व कथाकार उन्हें कितना पूरा कर पाते हैं?

यह बहुत ही विषम प्रश्न किया है आपने धर्म जी, एक संपादक के रूप में मेरी रचनाकारों से क्या अपेक्षाएँ होती हैं। मैं अपने रचनाकर्म से अपने आप को अलग करते हुए अन्य रचनाकारों की रचनाओं को देखता हूँ। कभी यह नहीं सोचता कि मैं इस रचना को कैसे लिखता। क्योंकि रचना रचनाकार की है और मैं केवल उसका पाठक हूँ। रचना का मूल्यांकन पाठक की तरह ही करता हूँ। इस मूल्यांकन के लिए भी मुझे अपने आप को “विमर्शों” की दलदल से बचा कर चलना पड़ता है। क्योंकि अक्सर देखा है कि कुछ पत्रिकाएँ किसी विशेष विमर्श को ही समर्पित होती हैं। अगर रचना उस विमर्श से हट कर है या उस विशेष विमर्श का विरोध करती है तो प्रकाशित नहीं हो पाती। ऐसा करने से पाठकवर्ग भी सीमित हो जाता है। मेरा उद्देश्य अधिक से अधिक पाठकों को अधिक से अधिक विधाओं से जोड़ने का है। अधिक से अधिक शैलियों की रचनाओं से जोड़ना है। क्योंकि मेरा मानना है साहित्य मनोरंजन के साधन से बढ़कर नहीं है। यह स्वविद्वता का प्रदर्शन तो बिल्कुल नहीं है। अगर ऐसा हो जाता है तो पाठक साहित्य से अलग हो जाता है। रचना पाठक को छूनी चाहिए। मेरी अपेक्षा ऐसी भी नहीं रहती कि एक रचना सभी पाठकों को पसन्द आए। इसीलिए आप देखेंगे कि साहित्य कुंज में साहित्य की विविधता बनाये रखने का प्रयास करता हूँ। साहित्य कुंज में मैं नवोदित लेखकों को विशेष रूप से प्राथमिकता देता हूँ, क्योंकि प्रकाशन से प्रोत्साहन मिलता है। मैं देख रहा हूँ कि नयी पीढ़ी में लिखने की रुचि तो बहुत है परन्तु मार्गदर्शन की कमी है। इन युवा रचनाकारों की कसौटी उनके लेखन में सुधार की संभावना है। भारत में कोई “क्रियेटिव राइटिंग” के कोर्स तो हैं नहीं। अगर वह मेरा परामर्श मानते हैं और उनके रचनाकर्म का स्तर बढ़ता है तो मुझे प्रसन्न्ता होती है। दूसरी ओर कई बार ऐसे लेखकों से यह भी सुनने को मिलता है कि “अभी तक उनकी रचनाएँ अस्वीकार तो हुई हैं, परन्तु किसी ने यह बताने की चेष्टा नहीं की कि उनमें कमी क्या थी”। अगर संपादक हिन्दी साहित्य का उज्जवल भविष्य चाहते हैं तो उन्हें नवोदित लेखकों के साथ संवाद आरम्भ करना चाहिए। इस दायित्व को निभाने का मैं प्रयास कर रहा हूँ।

 आपकी रुचि कम्प्यूटर टेक्नालॉजी में रही है। 1994 का वाक्या है। न्यूयार्क में बिल गेट्स को सुनने के लिए मैं अपने मित्रों के साथ गया था, और उनसे कम्प्यूटर टेक्नोलोजी के अगले बीस वर्षों का रोड मैप सुन कर, हमें लगा ये मार्केटिंग गिमिक्स हैं, भला ऐसा हो सकता है क्या? और आज हम इंटरनेट और उससे जुड़ी हर सुविधा की उत्तरोत्तर प्रगति को देखें तो यह सच लगता है कि आदमी जो कल्पना कर सकता है उसे यथार्थ में बदल भी सकता है। हिन्दी ई-पत्रकारिता के शुरूआती दिनों में आपने काफी आधारभूत काम किया है, अब यह बहुत सरल लगता है। हिन्दी में ई-पत्रकारिता के शुरूआती दिनों के बारे में बताएँ, और आपके विचार में आगामी बीस सालों में हिन्दी ई-पत्रकारिता कहाँ होगी।

 यह विषय मेरे दिल के बहुत क़रीब है। कैनेडा आने के पश्चात मैंने कंप्यूटर टेक्नालॉजी में डिप्लोमा प्राप्त किया था और इसी क्षेत्र में 1975 से 1981 तक काम किया। वे दिन इस तकनीक के आरम्भिक दिन थे। 1991 में इंटरनेट जनसामान्य के लिए मंच पर आया। मेरा संबंध इंटरनेट से 1995 में जुड़ा। इस दौरान मेरा संबंध हिन्दी या हिन्दी साहित्य से टूट चुका था। क्योंकि हिन्दी में रुचि थी तो इंटरनेट पर खोजने से पता लगा कि हिन्दी की वेबसाइट्स केवल मुट्ठी भर हैं। न्यूयॉर्क से “बोलोजी.कॉम” (अब यह हिन्दीनेस्ट.कॉम से जानी जाती है) और शायद ऑस्ट्रेलिया से “भारत-दर्शन” और  भारत से “काव्यालय”। मैं इन्हीं से ही परिचित हुआ। बोलोजी.कॉम की संपादिका उन दिनों पूर्णिमा वर्मन जी थीं। मैं उन्हीं के संपादन काल में बोलोजी.कॉम पर प्रकाशित होना शुरू हुआ था। इंटरनेट पर खोज करने पर भी कुछ ख़ास हिन्दी में मिल नहीं पाता था। हताशा होती थी तो विचार आया कि मैं ही कुछ क्यों न करूँ। उन दिनों geocities.com नामक एक कंपनी निःशुल्क व्यक्तिगत पेज देती थी। यू.एस. में नीता अवत्रामनी की उर्दू शायरी की एक बहुत बड़ी वेबसाइट थी जो कि उन्होंने रोमन लिपि में बनायी थी। लिप्यांतरण की स्कीम भी उनकी अपनी थी। मैंने उनकी अनुमति लेकर रोमन को हिन्दी (शुषा फ़ांट) में बदलना शुरू किया तो करता ही चला गया। “उर्दू शायरी और हिन्दी कविता” नामक इस साइट में मैंने चार सौ से अधिक शायरों और उनकी 1800 से अधिक ग़ज़लों और नज़्मों को देवनागरी लिपि में संग्रहित किया। एक अन्य जियोसिटीज़ पेज पर रामचरितमानस को टाईप करना भी आरम्भ किया। इस दौरान “वेबदुनिया.कॉम” आरम्भ हुई और उन्होंने भी रामचरितमानस को प्रस्तुत किया तो मैंने बालकाण्ड के बाद अपनी वेबसाइट को रोक कर अपना परिश्रम उर्दू से हिन्दी शब्दकोश बनाने में लगा दिया। यह शब्दकोश में पूरा नहीं कर पाया “म” पर आकर रुक गया। रोचक बात यह है कि यह शब्दकोश अनगिनत ब्लॉग्ज़ और वेबसाइट्स पर मिल जाएगा और किसी ने भी उसे आगे बढ़ाने और पूरा करने का प्रयास नहीं किया है, क्योंकि अभी भी वहीं पर अटका है जहाँ मैंने इसे छोड़ा था। उधर पूर्णिमा जी ने “अनुभूति-अभिव्यक्ति” को आरम्भ कर दिया तो मैं उनके साथ जुड़ गया। कैनेडा के रचनाकारों की रचनाओं को शुषा फ़ांट में टाईप करके उन्हें भेजता और लोगों को प्रोत्साहित करता कि वे भी हिन्दी को कंप्यूटर पर टाईप करना सीखें और उन्हें सिखाता भी था। 2002 में कैनेडा से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका “हिन्दी चेतना” में श्री श्याम त्रिपाठी जी की, सह-संपादक की भूमिका में सहायता करने लगा। हिन्दी चेतना के लिए मैंने हिन्दी के चार फ़ांट बनाये जो लेखकों में निःशुल्क वितरित किये। आवश्यकता अनुभव होने पर 2003 में साहित्यकुंज.नेट को आरम्भ किया। इसका उद्देश्य साहित्य की उन विधाओं और गम्भीर साहित्य को जनमानस के लिए प्रस्तुत करना था जो अन्य वेबसाइट्स पर नहीं था। भारत के विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों से संपर्क करके उन्हें इंटरनेट पर अपने शोधपत्रों को प्रकाशित करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनका समर्थन व सहयोग दोनों ही मिले। क्योंकि साहित्य के भविष्य में मैं ईबुक के विकल्प को महत्वपूर्ण मानता हूँ, इसलिए इन दिनों पुस्तकबाज़ार.कॉम (pustakbazaar.com) को डेवलप करवाने में व्यस्त हूँ। आगामी दशकों में हिन्दी में ई-पत्रकारिता बहुत सुदृढ़ हो जाएगी और हिन्दी ई-पुस्तकों का बाज़ार और पाठक वर्ग निश्चित रूप से बहुत बड़ा होगा।

 हिन्दी टाइम्सके सम्पादन के रोचक अनुभव बताएँ।

वे तो बहुत हैं, पर एक सुनिए। ‘हिन्दी टाइम्स’ का पेज ले-आउट भारत में होता था। मुख पृष्ठ पर बिल क्लिंटन से संबंधित प्रमुख समाचार जा रहा था, पर वहाँ फोटो किसी और की लगी थी। मैंने भारत फ़ोन किया और ले-आउट आर्टिस्ट को बताया, उसका मासूम उत्तर मिला, सर जी, फोटो तो गोरे की ही लगाई है।

 सुमन जी, लघुकथाओं पर बात करते हुए आपने अपने एक संपादकीय में कहा है लघुकथाएँ केवल शाब्दिक कलाबाजियाँ या केवल कला नहीं हैं, कथानक घड़ना लेखक का काम है और उस कथानक को अपने शिल्प से कथा रूप देना लेखक की सफलता।इन्हीं मापदंडों के बाद आप लघुकथा के कथाकार के साथ मानद लघु कथा लेखककी बात करते हैं। मानद लेखक से आपका आशय क्या है?

जी, मानद लेखक से मेरा इशारा उन लेखकों की ओर है, जो कुछ भी लिख कर अपने आपको लेखक मान लेते हैं। बल्कि इस समय इंटरनेट पर कुछ हिन्दी की साहित्यिक वेबसाइट्स या ब्लॉग हैं जो इन लेखकों को प्रकाशित कर रहे हैं। कहते हुए संकोच तो हो रहा है पर कहना भी आवश्यक है – संपादन का दायित्व निभाने में लेखन कला के साथ समझौता नहीं किया जा सकता। हमारा दायित्व हो जाता है कि रचना को प्रकाशित करने से पहले उसे विधा की कसौटी पर परखें। हो यह रहा है कि संपादक रचना को ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं। यहाँ तक कि वर्तनी और व्याकरण को भी अनदेखा कर देते हैं। ऐसे संपादक हिन्दी भाषा और साहित्य को हानि पहुँचा रहे हैं और घटिया लेखन को स्वीकार करते हुए “मानद लेखक” वर्ग को पैदा कर रहे हैं। ऐसे संपादक और लेखक न तो लेखन कला को समझते हैं और न ही उसे निखारने का प्रयास करते हैं। धर्म जी, लघुकथा की भी वही दशा हो गयी है जो अतुकान्त कविता की हो चुकी है। ऐसे लेखक और संपादक यह नहीं समझ पाते कि साहित्य की प्रत्येक विधा के अपने कुछ नियम होते हैं, व्याकरण होती है यहाँ तक कि अपनी शब्दावली होती है। अतुकान्त कविता में जिस तरह लेखक एक वाक्य को लिख कर कुछ अंशों में बाँट कर उसे कविता मान लेते हैं, उसी तरह लघुकथा और आपबीती या संस्मरण में अन्तर नहीं समझते। एक घटना को ज्यों का त्यों लिख देने से वह लघुकथा नहीं बन जाती। कहानी के नियम लघुकथा पर भी लागू होते हैं – बल्कि लघुकथा को मैं कहानी लेखन से अधिक कठिन विधा मानता हूँ, क्योंकि लेखक को शब्दों की सीमा का ध्यान रखना पड़ता है।

एक प्रकाशक के रूप में आप ईबुक्स, ईरीडर, और एंड्रायड ऐप्स आदि की पैरवी करते हुए कहते हैं कि पुस्तक प्रेमी पुराने काग़जों की खुशबू के रोमांसको त्यागने को तैयार नहीं हैं। आप ईबुक्स और मुद्रित साहित्य को लेकर एक रचनाकार की तरह क्या सोचते हैं? ईबुक्स पर यदाकदा ही समालोचनाएँ और चर्चाएँ पढ़ने में आती हैं। आप ईबुक्स के लेखकों को कैसे आश्वस्त करेंगे कि उनके काम पर सार्थक चर्चा तब भी हो सकती है।

धर्म जी, हिन्दी पाठकों और लेखकों के लिए ईबुक्स एक नया माध्यम है। इस समय हिन्दी ईबुक्स अपना आधार खोज रही हैं। पश्चिमी देशों की भाषाओं की ईबुक्स जिस तरह से साहित्यिक बाज़ार में अपना स्थान स्थापित कर चुकी हैं, हिन्दी की ईबुक्स अभी घुटनों के बल चलना भी नहीं सीख पायीं। इस क्षेत्र में अराजकता का बोलबाला है। अधिकतर ईबुक्स के प्रकाशक केवल सॉफ़्टवेयर की कंपनियाँ हैं और वह स्वःप्रकाशन (Self Publication) पर आधारित हैं। यानी लेखक की पाण्डुलिपि को न तो कोई प्रूफ़रीड करता है और न ही उसका संपादन। ऐसे ईबुक प्रकाशक, साहित्य की स्तरीय ईबुक्स पाठकों को कैसे दे सकते हैं? कुछ वेबसाइट्स एक ईबुक में केवल एक कहानी प्रकाशित करके उसे एक ई-पुस्तक कह देते हैं। इतना ही नहीं, वह ईपुस्तकों के पाठकों को यह भी समझाते हैं कि ई-पुस्तकों का साप्ताहिक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित होना सामान्य है। ऐसे वातावरण में अगर हम उचित समीक्षा की अपेक्षा करें तो ऐसा सोचना ही अनुचित होगा। पहले हमें ई-पुस्तक को मुद्रित पुस्तक के बराबर लाना होगा। यानी ई-पुस्तक को उन्हीं मानदंडों पर खरा उतरना होगा जिन पर मुद्रित पुस्तक खरी उतरती है। इस समय हिन्दी ई-पुस्तक प्रकाशन व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। पुस्तकबाज़ार.कॉम इसी उद्देश्य से आरम्भ किया है। पुस्तक बाज़ार द्वारा प्रकाशित हर पुस्तक पहले चयन प्रक्रिया, प्रूफ़रीडिंग प्रक्रिया और संपादन प्रक्रिया से गुज़रती है और तब वेबसाइट पर आती है। यह काम आसान नहीं है परन्तु किसी को नींव का पहला पत्थर रखना ही होगा सो मैं अपनी सॉफ़्टवेयर सहयोगी कंपनी 21GFox Technology Inc. के साथ मिलकर यह काम कर रहा हूँ। अभी हम आरम्भिक चरणों में हैं। आशा है कि हम पुस्तक बाज़ार द्वारा ऐसी ई-बुक्स पाठकों को दे सकेंगे जिससे मुद्रित पुस्तकों के प्रति उनका मोहभंग होगा और इस माध्यम को गंभीरता से स्वीकार करेंगे। ई-पुस्तक लेखकों के लिए धन अर्जन में बहुत लाभकारी हो सकती है क्योंकि इनकी बिक्री इत्यादि की प्रक्रिया पारदर्शी होती है। यानी लेखक अपने एकाउंट में कभी भी देख सकता है कि उसकी कितनी पुस्तकें बिकी हैं और उसने कितना कमाया है। अन्य प्रकाशकों का तो नहीं कह सकता परन्तु पुस्तक बाज़ार में हमने ऐसी ही व्यवस्था की है।

सुमन जी, 2016 में आपका कहानी संकलन लाश व अन्य कहानियाँपुस्तकबाज़ार.कॉम से प्रकाशित हुआ। संकलन की सातों कहानियाँ प्रवासी परिवारों की पहली और दूसरी पीढ़ी की जीवनचर्या, प्रेम संबंधों और तनावों को सुक्ष्म रूप से उकेरते हुए दो संस्कृतियों (भारत व कैनेडा) के टकराव को भाषा देती है। युवा पीढ़ी मानती है हमारी पीढ़ी अपनी संस्कृति का अन्वेषण स्वयं ही कर रही है। माँ-बाप भारतीय संस्कृति हम पर लाद देना चाहते हैं।‘ (असली-नकली)।  भारत में भी जीवन दर्शन तेज़ी से बदल रहा है। वहाँ का शहरी जीवन, पश्चिमी शहरी जीवन से अब भिन्न नहीं रहा। ऐसे में प्रवासी कहानीभारतीय कहानी से कैसे भिन्न हुई?

 धर्म जी, अभी तक मैंने जितनी कहानियाँ लिखीं हैं उनमें से केवल दो भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित हैं बाकी सब कैनेडियन जीवन पर आधारित हैं। आपने मेरी कहानियों को बिल्कुल सही समझा है। मैं पहली पीढ़ी का आप्रवासी हूँ और दूसरी पीढ़ी को अपनी आँखों के सामने पलता बढ़ता देख रहा हूँ। अब उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ तीसरी पीढ़ी भी सामने आने लगी है। इन तीनों पीढ़ियों के जीवन के विभिन्न पक्षों पर लिखा गया साहित्य ही मौलिक रूप से “कैनेडियन हिन्दी साहित्य” होगा। इंटरनेट और संचार माध्यमों से बेशक़ विश्वग्राम वास्तविकता बनता जा रहा है। दुनिया भर की महानगरीय संस्कृतियाँ एक होती लगती हैं परन्तु यह ऊपरी सतह का सच है। सतह के नीचे की विचारधारा संस्कृति की बजाय सभ्यता पर निर्भर करती है। इसी कारण भारत के महानगर की युवा पीढ़ी और कैनेडा की युवा पीढ़ी एक ही समस्या, एक ही अनुभव को बिल्कुल अलग अलग दृष्टिकोण से देखेगी। यही दैनिक जीवन की सूक्ष्मताएँ हैं जो आधुनिक भारतीय महानगरीय कहानी को पश्चिमी भारतीयमूल की पीढ़ी के महानगरीय साहित्य से अलग करती हैं।

 प्रेम का उदात्त स्वरूप आपकी कविताओं एवं कहानियों में है। स्रष्टाकी कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं – मैं अँधेरों में जी रहा था और तुम / मुट्ठी भर प्रकाश ले आई / हमने उसे सूर्य बना लिया।आपकी कहानी उसकी ख़ुशबूमें तलाकशुदा पति अपनी पूर्व पत्नी को याद करते हुए सोचता है  कितने ठंडे हो गए थे उसके हाथ-पैर। मीरा का उसके जीवन से जाना कितना खालीपन भर गया था। मीरा का प्यार, खीझ, डाँट, कुण्ठायें, शरारत और स्वतंत्र व्यक्तित्व.. सभी कुछ। … आज वही ख़ुशबू विनय अपने अंतर तक सोख लेना चाहता है। … अगली बार मम्मी से बात हो तो कहना आती रहे अच्छा लगता है।इस काल की हिन्दी कहानियों में कामुकता के भव्य उद्दीपन को रचनाकार का साहसकह कर कुछ समालोचक सेक्सप्रधान कहानियों को मुख्यधारा की कहानी का श्रेय दे-ले रहे हैं। ऐसे में कथित साहित्यिक पत्रिकाएँ वयस्क कामुक पत्रिकाओं का मुकाबला कर रही हैं। वर्तमान कहानी की इस प्रवृत्ति पर आप क्या कहेंगे?

इसे विचारों, शब्दावली और अपनी ज़मीन को खोज पाने की क्षमता का दिवालियापन ही कहा जा सकता है। यह सच है कि हिन्दी कहानी भारत को पश्चिमी साहित्य की देन है परन्तु उसे हम अपना बना चुके हैं। यह भी सच है कि कुछ प्रसिद्ध लेखक पश्चिमी साहित्य को हिन्दी में, हिन्दी भाषी पात्रों में गूँथ कर ज्यों का त्यों प्रस्तुत करके “रचनाकार का साहस” की थपकी समीक्षकों से प्राप्त करते रहे हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य से लेकर नई कहानी के युग तक सेक्स या काम साहित्य का अंग रहा है क्योंकि यह एक शक्तिशाली मानवीय अनुभव और संवेदना है। कालिदास के मेघदूत से लेकर शिवानी की कहानियों के कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, परन्तु एक मर्यादा की सीमारेखा होती थी जो छिन्न-भिन्न होती दिखाई दे रही है। कुछ ऐसी कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने को मिले हैं जिन्हें पढ़ने के बाद लगा कि लेखक ने इंटरनेट पर उपल्ब्ध “पॉर्न” को वास्तविकता मान लिया है और उसे ही शब्दों में उकेर दिया है। ऐसे लेखन को साहित्य में न गिन कर “एकान्त में पढ़ने” वाली पुस्तकों के वर्ग में रखना अधिक उचित होगा।_________________________________________________

 

धर्मपाल महेंद्र जैन 

ईमेल : dharmtoronto@gmail.com        फ़ोन : + 416 225 2415

सम्पर्क : 1512-17 Anndale Drive, Toronto M2N2W7, Canada

 

 

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