“कैनवस”

 

कैनवस पर

रंग बिखेरते समय

तुम…

मेरी छोटी सी तस्वीर में

रंग भरना

भूल गए शायद  

 

तभी आज तक

किसी ने

इस चेहरे को जाना नहीं

पहचाना नही

पूछा नही किसी ने

कौन हो तुम ??

 

रैक में पड़ी किताबों को भी

सालों बाद

पढ़ लिया जाता है

पर मुझे

इतनी नीचे रख दिया गया कि

दबी रही

‘मैं और मेरी आवाज़’

 

रंगों से पहचान करवाना

तुमने मुनासिब ही नहीं समझा

या फिर…

मुमकिन ही नहीं था तुम्हारे लिए..

 

मुझे सब रंग अच्छे लगते हैं

पर सफेद से कुछ यूँ नाता बना दिया तुमने कि

धैर्य की मूरत के नाम से

जानी जाने लगी

 

अब मैं खुद में सब रंग भरूँगी

और अपनी तस्वीर पूरी करूँगी

तू भले ही मुझे

रूप बना या कुरूप

अब उसमें रंग मेरे अपने होंगे

तेरे ब्रश और रंगों के बिना

अब मैं इतराऊँगी

 

अब तेरे रंग नहीं

खुद के रंग बनाऊँगी

 

“बीच वाली मंज़िल”

 

मैं हमेशा

बीच वाली मंज़िल पर ही रही हूं

सबसे ऊपर जाना

प्रतिबंधित था

और घरों की छतें जो लगती थीं

और

मेरा बाकी छतों से बात करना

मुनासिब नहीं समझा जाता था

दायरों की घुट्टी

मुझे पहले ही पिला दी गई थी

 

ऊपरी मंज़िल कैसी है

मैं कभी देख ही नहीं पाई

हां, ऊपर जाती हुई सीढ़ियों पर

चुपके से

नज़र दौड़ा लिया करती थी

 

ज़्यादा तो नहीं

अंदाज़न

दस-बारह होंगी

चार-पाँच को मापा है मैने

बस

इतनी ही हिमाकत कर पाई

 

पतंगों के पेच लड़ते

आसमान में सतरंगी झूला बनते

पक्षियों को दाना चुगते

अपनी उड़ान के करतब दिखाते

काले मेघों को बरसते

मैं कभी देख नहीं पाई

 

एक दफ़ा

सूरज की सुनेहरी रोशनी

मेरी कोठरी में

छुपते-छुपाते आई

रौशनदान से

 

नीले आकाश को मैने

तब पहली बार देखा

उस टूटे हुए काँच से

उस घायल कांच की व्यथा

आज भी मेरी देह में

दर्द का काफिला दौड़ा देती है

 

मैं

भह्भीत, निशब्द

जीवन के 35 वर्ष

बीच वाली मंज़िल पर

 

माँ का स्वैटर

 

अक्सर माँ को

स्वैटर बुनते देख

मैं सोचा करती थी

कि

‘औरत’ की तकदीर को

बुनते समय

खुदा ने कौन से नंबर की

सिलाई का इस्तेमाल किया होगा???

 

जो ना तो उधेडी जा सकता है

और

ना ही बुनती ढीली की जा सकती है।

-शिवानी कोहली

 

शिवानी कोहली (अनुवादक)

भारत पर्यटन विकास निगम

नई दिल्ली – 110003

ईमेल- anamika1851983@yahoo.com

मोबाइल- + 91 99153 15289

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