इन्सानी रिश्ते…

लेखिका: गोपा नाग इंदु, देहरादून

कॉलेज से आकर थकान मिटाने के लिए कॉफ़ी का प्याला हाथ में लेकर बिस्तर पर निढाल सी पड़ गयी।  छत पर ध्यान गया। ओह माय गॉड, इतनी मोटी मकड़ी! ओफ़ ओह! ये गोल गोल घूमती आँखें, खुरदुरे पैर, छत के इस कोने से उस कोने तक दौड़ता हुई विचित्र सा जीव।

थकान  उड़ गई, नींद ख़त्म हो गई। मकड़ी बिलकुल मेरे सिर के ऊपर से सीधा मुझे घूर रही थी । हुश… हुश… की आवाज़े निकाल कर मकड़ी को भगाने की कोशिश की। फिर अपने आप पर ही हंसी आ गयी… क्या मकड़ी के भी कान होते हैं जो मेरी हुश हुश से भाग जाएगी।… दिमाग़ ने दन से दूसरा सवाल दाग़ दिया… यह मकड़ी है या फिर मकड़ा… दिमाग़ कभी कभी ऐसे सवाल दाग़ता है जिनका जवाब उसके अपने पास भी नहीं होता।

अपने आप को तैयार कर रही थी क्योंकि आज रात को इसी कमरे में मुझे उस अजनबी के साथ रहना था। वह अपने स्थान से थोड़ी सी हिली; पेंटिंग के पीछे शायद छुप गई। चैन की साँस ली और इसी ऊहापोह में आँख लग गई। आँख खुली और अंगड़ाई लेकर छत पर ताका तो उससे नज़रे मिल गई। पर, अब वैसा डर नहीं लगा। मुस्कुरा दी और अपने काम में लग गई।

अब तो मैं भी अभ्यस्त हो चली थी। उसने अपने चारों ओर जाले का ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया था और निडर होकर उस छत के टुकड़े को अपना आशियाना समझ कर रहने लगी थी। मैं भी अब इतनी आदी हो गई थी कि सुबह-शाम, आते-जाते एक बार निहार ज़रूर लेती थी। लगता था कि कोई और भी यहाँ मौजूद है। मन में उसे एक नाम देने का विचार आया। भला कब तक उसे मकड़ी कहती रहूंगी। मगर सवाल यह भी था कि नाम कौन सा दूं… लड़कों वाला या फिर लड़की वाला। इस मामले में सरदार लोगों को ख़ासी आसानी है। कौर लगाया तो लड़की और सिंह लगा दिया तो लड़का… मैंने भी उस मकड़े का नाम विजय रख दिया। अब चाहे मकड़ी समझो या फिर मकड़ा।

कभी-कभी जाले से निकलने की कोशिश में वह नीचे आने लगता तो मैं सहम जाती; पर वह उन्ही धागों से बड़ी आसानी से ऊपर की ओर बढ़ जाता। इस तरह एक अलग थलग कमरे में चहलकदमी शुरू हो गई थी।

मैं अपनी सारे दिन के उतार-चढ़ाव उसे सुनाकर हल्की हो लेती।  दिन, सप्ताह, महीने बीतने लगे; उसकी आवश्यक-अनावश्यक चहल-पहल से मैं अभ्यस्त हो चली थी। उसका इधर-उधर भटकना मुझे अच्छा नहीं लगता था। पर उसने तो मुझे तंग करने की ठान रखी थी। कभी भी गायब और फिर से औचक निरीक्षण मुझे हंसी-ठिठोली जैसी लगने लगी थी।

कुछ दिनों के लिए मुझे अपने मित्रों के साथ रहने के लिए बाहर जाना पड़ा। मैं निश्चिन्त थी की मेरे कमरे में कोई तो है। छुट्टी बिताकर कमरे में लौटने पर उसे वहाँ न पाकर बेचैनी सी हुई। इधर-उधर झाँका; विजय कहीं दिखाई नहीं दिया। थकान की वजह से जल्द सो गई। आँख खुलने पर विजय को न पाकर अजीब सा लगा। सोचा शायद पर्दे के पीछे, फ़ोटो के पीछे या जाली के पीछे होगा। फिर रात हो झुरझुरी हुई की कहीं मेरे बिस्तर पर ही तो नहीं है!! मन को समझाया।

दूसरे दिन ढूंढ़ने की कोशिश की। कोई अता-पता नहीं। अचानक खिड़की पर नज़र गई — सोचा गल्ती से खुली रह गई, तो ज़ाहिर है कि विजय उसमे से निकल गया होगा; फिर वापसी कार रास्त ना  ढूंढ  पाने के कारण भटक गया होगा।

एक अजीब सा रिश्त बन चला था, उसके साथ। खोजी नज़रें रोज़ एक बार उस जाले को देखतीं, हिलती हुई कमरे की किसी भी चीज़ पर उसका अस्तित्व ढूंढती। पर नहीं,वह तो जैसे लोप ही हो गया था। मैं भी शायद उसे भूलने का प्रयास करने लगी थी।

रविवार की सुबह कमरे के रख-रखाव, झाड़-पोंछ में लगी हुई थी। कॉफ़ी का प्याला रखकर क़िताब की रैक हटाई, तो कुछ गिरा। ओ हो ! यह तो विजय था; बिचारा सूख कर काठ हो गया था। आँखे अभी भी मुझे ढूंढ रही थीं। अजीब सा लगा। मेज़ खिसका कर कागज़ की कतरन से उसे उठाया और बहार ले जा कर क्यारी में गड्ढा करके उसे मिट्टी में दबा दिया…

क्या विजय मेरी याद में अपनी जान दे गया… काश, इन्सानी रिश्ते भी ऐसे हो पाएं….

Gopa Indu Nag, Dehradun, Email: gopaindu@gmail.com

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