जनवरी 1975, प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर में एक युवा साहित्यिक प्रतिभागी के रूप में जाना हुआ। वहाँ हिंदी के अनेक दिग्गज साहित्यकार उपस्थित थे जिनमें डॉ॰ धर्मवीर भारती का आकर्षण मेरे लिए विशेष था, वे मेरे पसंदीदा साहित्यकार रहे हैं। धर्मयुग के संपादक के रूप में भी उनका व्यक्तित्व मुझे बहुत आकर्षित करता था। मेरी अभिलाषा थी कि मैं भारती जी का सान्निध्य प्राप्त करूँ और उनसे आत्मीय संवाद कर सकूँ। मैं उन दिनों स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाटकों पर शोध-कार्य कर रहा था। भारती जी के प्रख्यात रंग नाटक ‘अंधायुग’ से संदर्भित मेरे बहुत से सवाल थे। मैं अवसर की तलाश में था।
बाल कवि बैरागी के साथ मेरी मित्रता थी जिनके कारण जल्दी ही यह सुयोग बना। सम्मेलन में जहाँ भारती जी होते उनके साथ दस-बारह साहित्यकार जमे रहते थे, जिनमें बाल कवि बैरागी भी थे। उन्होंने जमाव दूर किया और भारती जी को अलग ले जाकर मुझसे मिलवाया मेरी प्रश्नावली को सुनकर भारती जी ने मुझसे पूछा, ‘सुबह सैर पर जाते हो?’ मैंने कहा, ‘जी’ उन्होंने कहा, ‘कल सुबह साढ़े छह बजे कामदार हॉस्टल के लॉन में मिलो घूमते-घूमते बात करेंगे।
मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ और उस रात यही लगता रहा कि सुबह कब होगी! सर्दियों के दिन थे शॉल ओढ़कर मैं लॉन में पहुँच गया, थोड़ी देर बाद भारती जी भी पहुँच गए मैंने चरण स्पर्श किये उन्होंने आशीर्वाद दिया और सैर करते-करते मैंने उनसे अंधायुग के विषय में अपने सवाल रखे और उत्तर पाता गया। मूल रूप से अंधायुग रेडियो नाटक था जिसे काव्य नाटक का रूप दिया गया और प्रदर्शन भी हुआ जिसमें प्रसिद्ध रंगकर्मी पंडित सत्येदव दुबे की प्रेरणा रहीं। नाट्य के अतिरिक्त सामान्य चर्चा में भारती जी को मैंने अपने पितामह पंडित त्रिलोक नाथ ‘आजम’ के विषय में बताया जिन्होंने पारसी रंग विधान से कुछ नाटक लिखे थे और वे एक प्रख्यात यूनानी चिकित्सक भी थे जो दो दर्जन से अधिक रियासतों के राजाओं, नवाबों आदि का इलाज रजवाड़ों के युग में कर चुके थे। इस पर भारती जी ने मुझे दादा जी के अनुभव लिखने के लिए प्रेरित किया और उनसे मिलने की इच्छा भी ज़ाहिर की उस समय दादा जी अस्सी वर्ष के थे और हम उनके साथ ही रहते थे।
इस भेंट से मेरे भारती जी से पत्र-व्यवहार करने के द्वार खुल गए। धर्मयुग में दादा जी के अन्य धातुओं से सोना बनाने के अनुभव जो एक राजा के कहने से दादा जी ने लिए थे। वे धर्मयुग में प्रकाशित हुए सिलसिला चला और भारती जी संभवत: 1976 ईस्वी में दिल्ली किसी विवाह महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आए। उनका संदेश पाकर उनसे मिला और वे मेरे साथ दादाजी को मिलने के लिए हमारे घर पधारे। तब हम शाहदरा में रहते थे। दादाजी उनसे मिलकर बहुत खुश हुए। भारती जी ने दादाजी से उर्दू शायरी संबंधित चर्चा की तथा अपने स्वास्थ्य संबंधी चिकित्सा परामर्श भी लिया। आज सोचता हूँ कितने सहज और सांस्कृतिक थे भारती जी को एक नवोदित लेखक के घर चले गए और एक वयोवृद्ध लेखक को मान दिया।
मैंने धर्मयुग में संपादक के नाम कई बार रचनाएँ भेजीं किंतु वे खेद सहित वापस आती रहीं तभी एक दिन एक व्यंग्य रचना हेतु स्वीकृति पत्र आया जिसमें स्वयं भारती जी ने नीचे एक पंक्ति लिखी थी, ‘ऐसी रचनाएँ भेजा करें’ मैं समझ गया कि मुझे धर्मयुग में व्यंग्य रचना ही भेजनी चाहिए। इस प्रकार धर्मयुग में मेरा खाता खुल गया यद्यपि इसके बाद भी कुछ रचनाएँ सखेद वापिस मेरे लेटर बॉक्स में पाई गईं ।
भारती जी से अगली मुलाकात की कहानी बड़ी दिलचस्प है। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के वोकेशनल कॉलेज के विद्यार्थियों का टूर लेकर बंबई गया था जहाँ हमें चार दिन ठहरना था। इस टूर में मेरी पत्नी स्नेह सुधा और मेरी दो ढाई वर्षीया बेटी अन्विता साथ थीं। टूर गोवा से दिल्ली लौट रहा था स्नेह सुधा को अपने कॉलेज हर हालत में लौटना था जिस कारण वह दिल्ली की ओर रवाना हो गईं बेटी अन्विता को मैंने अपने साथ ही रखा। मेरे एक मामा माहिम बंबई में रहते थे। अत: मैं टूर की जिम्मेदारी अपने सहयोगी प्राध्यापक को देकर बिटिया को लेकर मामाजी के घर ठहर गया।
मामाजी के घर से मैंने भारती जी को फोन करके मिलने का समय लिया। उन्होंने अगले दिन साढ़े ग्यारह बजे ऑफिस में मिलने का समय दिया। मैं निर्दिष्ट समय पर एक टैक्सी में बेटी के साथ टाईम्स ऑफ इंडिया भवन पहुँच गया। मैंने टैक्सी से उतर कर बिटिया को ‘फोल्डिंग प्राम’ में बिठाया और जैसी ही पटरी से मुख्य द्वार की ओर बढ़ने लगा, तभी धर्मवीर भारती जी अपनी पुराने मॉडल की संभवत: फिफ्टी फार्इव कार में वहाँ पहुँचे। मुझे देखकर कार रोकी और बाहर आ गए। मैंने प्रणाम किया उन्होंने इधर-उधर देखा और फिर ‘प्राम’ में बैठी बच्ची को देखते हुए मुझसे पूछा, ‘इसकी माँ नहीं है?’ मैंने उत्तर दिया ‘वे चलीं गईं ।’ वे कुछ व्यथित से दिखे और बोले मैं गाड़ी पार्क करके पहुँचता हूँ, तुम ऊपर मेरे ऑफिस में चलो।
मैं जब तक उनके आफिस में पहुँचता वे पहले ही पहुँच चुके थे। उन्होंने बच्ची के लिए बिस्किट और मेरे लिए कोल्ड ड्रिंक का ऑर्डर दिया मुझसे पूछा बिटिया का नाम क्या है? मेरे उत्तर देने से पहले ही बिटिया ने जवाब दिया अन्विता भारती जी सुनकर प्रसन्न हुए और बोले, ‘छोटी सी बच्ची है पर इसकी माँ नहीं रही चली गई बहुत दु:खद है।’ यह सुनकर मैं चौंक उठा और तुरंत उन्हें बताया कि इसकी माँ है और हमारे साथ थी उसे दिल्ली जाना था वे दिल्ली चली गई हैं।
इस पर भारती जी के चेहरे पर रौनक आ गई और मुस्कुराते हुए बोले, ‘तुमने तो डरा दिया था हरीश तुमने कहा चली गई तो मैंने समझा चली गई’ और धीर-गंभीर भारती जी इस बात का विनोद बार-बार लेते रहे। लगभग एक घंटा मैं भारती जी के साए में साहित्यिक प्रसाद पाता रहा और जब मैं विदा होने लगा, भारती जी ने बारह-सिंगे के सींग से बनी एक छोटी सी खूबसूरत कलाकृति मुझे भेंट की जो मुझे भारती जी स्मृति वर्तमान करती रही।
समय बीतता गया भारती जी से ख़तो-किताबत होती रही वे धर्मयुग के विशेषांकों होली, फाल्गुन, दीपावली आदि अवसरों पर पत्र भेजकर रचनाएँ प्रेषित करने का आदेश भी देते रहे। धर्मयुग में प्रकाशित होने के कारण व्यंग्यकार के रूप में एक नाम बनने लगा उन दिनों ज्ञान चतुर्वेदी और प्रेम जनमेजय भी धर्मयुगीन हो रहे थे। हम तीनों पर भारती जी के संपादक की पैनी दृष्टि थी हमें बहुत संकोच हुआ था जब उन्होंने इन तीनों को युवा व्यंग्य-त्रयी नाम दिया था जिसका उल्लेख हमने वर्षों बरस तक नहीं किया। उनके आशीर्वाद के साथ हमें उनका मार्गदर्शन भी मिलता रहा था।
एक बार इतना नेह करने वाले भारती जी मुझसे नाराज हो गए उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उन्हें कोई सामाजिक हो सके तो पारिवारिक कहानी या व्यंग्य भेजूं जो थोड़ी सामान्य से हटकर हो। मैंने अपने एक विदेशी मित्र के अनुभव पर आधारित एक कहानी उन्हें भेज दी। यह कहानी एक ऐसे युवक की थी जो पुरुष वेश्या हो गया था और कुछ उच्च धनाढ्य वर्ग की महिलाएँ उसकी ग्राहक थीं। आज तो ऐसी कहानियाँ और फिल्में भी देखने को मिल जाती हैं लेकिन चालीस वर्ष पूर्व हिंदी साहित्य में ऐसे कथ्य का प्रवेश नहीं हुआ था।
लौटती डाक से ही भारती जी का पत्र धमधमाता हुआ मेरे पास पहुँच गया जिसमें उन्होंने लिखा, ‘हरीश! अपना ध्यान केवल व्यंग्य लिखने में लगाओ। याद रखो कि मेरी पत्रिका ऐसी है जिसे परिवार में सभी सदस्य एक साथ पढ़-सुन सकते हैं। धर्मयुग छिपाकर नहीं पढ़ा जाता बल्कि प्रकट करके पढ़ा जाता है। मैंने तुम्हें पारिवारिक कहानी भेजने के लिए कहा था सोचो जो तुमने भेजी कितनी पारिवारिक है?…….’
…… मैं बहुत लज्जित हुआ मुझे लग गया कि मुझसे एक बड़ा अपराध हुआ है मुझे जीवन भर के लिए शालीन लेखन की गहरी सीख मिली। मैंने अपनी भूल मानते हुए क्षमा याचना की उस पत्र का कोई जवाब नहीं आया काफी समय तक मुझे चिंता और अवशाद रहे कि भारती जी ने मुझे क्षमा किया की नहीं।
इस घटना के कई महीनों बाद भारती जी का पोस्टकार्ड आया जिसमें उन्होंने युवा शक्ति विषयक लेख का आदेश दिया था। साथ ही हिदायत दी थी कि युवा पहले जैसा न हो! इस पत्र में मुझे निंश्चित तो किया किंतु उन्हें उस कहानी का मूल स्वरूप तक ध्यान था यह अभी भी मेरे लिए संकोच बना।
सन् 1987 में मेरे व्यंग्य-लेखन ‘बागपत के खरबूजे’ पर जब ‘युवा ज्ञानपीठ’ पुरस्कार घोषित हुआ। सबसे पहले मिलने वाले बधाई पत्रों में उनका भी पत्र था जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘मैं खुश हूँ तुम्हारे खरबूजे रंग लाए’ ज्ञातव्य हो कि मेरे संकलन का शीर्षक व्यंग्य कथा ‘बागपत के खरबूजे’ संकलन से पूर्व धर्मयुग में ही प्रकाशित हुए थे, जिस पर तब भी मुझे भारती जी शाबाशी मिली थी।
बहुत कुछ सीखते रहें भारती जी से पढ़ते रहे उनके शाश्वत साहित्य की प्रतीक रचनाएँ किशोरावस्था में जो गुनाहों का देवता से आरंभ हुई और कनुप्रिया से आती हुई अंधायुग तक पहुँची उनके निबंध संग्रह ठेले पर हिमालय, प्रयोगात्मक कथा सूरज का सातवां घोड़ा और कहानी संग्रह बंद गली का आखिरी मकान मेरे जैसे अनेकानेक पाठकों की सार्वकालिक पसंदीदा रचनाएँ हैं । जिस विधा में भी उन्होंने लिखा वह उसकी प्रतीक रचना बना ऐसा कृतित्व बहुत कम साहित्यकारों में मिलता है। मेरे जैसे सौभाग्यशाली रहे जिनकी चर्चा उनके कृतित्व पर उनसे भी हो सकी।
सन् 1989 में बंबई जाना हुआ उस यात्रा में मेरी पत्नी और दोनों बेटियाँ तथा प्रेमजनमेजय उनकी पत्नी आशा और उनके दोनों बेटे भी साथ थे। प्रेम जनमेजय भी उनके स्नेहभाजक थे। हम भारती जी के घर गए भारती जी तनिक अस्वस्थ थे। इसके बावजूद उन्होंने और श्रद्धेया पुष्पा भारती जी ने खूब खातिर की। भारती जी के घर में उनके पालतू तोते से चारों बच्चे बेरोकटोक खेलते रहे पुष्पा जी आशा जी और सुधा बतियाते रहे। मैं और प्रेम भारती जी के साथ उनसे साहित्य और जीवन के प्रेरक टिप्स लेते रहे। यह मेरी भारती जी रूबरू अंतिम मुलाकात थी लेकिन पोस्टकार्ड संवाद बने रहे उनकी माँग और बिना माँग की मेरी रचनाएँ धर्मयुग में प्रकाशित होती रहीं।
मेरी पुस्तक ‘पीली छत पर काला निशान’ के फ्लैप पर उन्होंने मेरी लिए शालीन और सौम्य व्यंग्यकार विशेषण लिखे तब मैं संतुष्ट हुआ कि मैं वह कर सकता जो वे मुझसे चाहते थे। 4 सितंबर, 1997 को वे सत्तर वर्ष की आयु में हमसे शारीरिक रूप में विदा हो गए किंतु आत्मिक रूप में सदा साथ रहेंगे। स्नेह सुधा जब कनुप्रिया का पाठ करती हैं जिसे पुष्पा भारती जी ने बहुत पसंद किया तब तब भारती जी का साहित्यकार मन मानो प्रकट हो जाता है।
डा धर्मवीर भारती जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है सर बधाई।
स्व बालकवि बैरागी जी याद आ जाते हैं उनकी स्मृतियों को शत् शत् नमन।