सड़क काफी टेढ़ी-मेढ़ी और ऊपर नीचे थी। रास्ते में कहीं-कहीं जंगल भी दिख रहा था। टैक्सी कुछ आगे बढ़ी तो पहाड़ी घाटी मिल गयी। कहीं गहरी खाई थी तो कहीं ऊंची पहाड़ी। आसमान में बादल के टुकड़े तैर रहे थे। सड़क और आसपास पानी दिख रहा था। हवा ठंडी हो गयी थी। लग रहा था कि कुछ देर पहले ही बारिश हुई है।
करीब तीन घंटा चलने के बाद टैक्सी रूपा को लिये हुए चन्दाघासी गांव पहुंच गयी। गांव पहाड़ियों से घिरा हुआ, प्राकृतिक नदी-नालों और जंगलों से भरा हुआ था। गांव में पच्चीसों घर थे। मगर बैजू बाबू का घर अलग ही था। बड़ा-सा घर और उसके सामने बड़ा-सा दालान। बीच की जगह चट्टान थी, जिसे तराश कर समतल किया हुआ था।
रूपा को टैक्सी से उतरते देख बैजू बाबू दालान की कुर्सी से उठ कर आगे आ गये। बैजू बाबू यानी बैद्यनाथ प्रसाद वर्मा। काम गृहस्थी संभालना। दूर-दूर के लोगों के बीच उनकी पहचान थी। उनका इशारा पाकर दो आदमी टैक्सी के पास पहुंच कर सामान उतरवाने लगे। बैजू बाबू दालान से घर की ओर आकर आवाज दिये, ‘‘रूक्मिणी ! देखो, कौन आया है ?’’ 
अंदर से रूक्मिणी आकर दरवाजे पर ठिठक गयी। रूपा पर नज़र पड़ते ही मुंह बिचका कर वह फिर अंदर चली गयी। रूक्मिणी का यह व्यवहार बैजू बाबू के लिये अप्रत्याशित नहीं था। उन्होंने घर के नौकर रामू को बुला कर कहा, ‘‘इनका सामान ऊपर वाले कमरा में ले जाओ !’’ उन्होंने रूपा से कहा, ‘‘जाओ, लंबी यात्रा से आयी हो, जाकर तैयार हो जाओ !’’
सीढ़ियों से ऊपर पहुंचने पर रूपा के पांव ठीठक गये। वहां से गांव का दृश्य दिखाई दे रहा था। पहाड़ियों से घिरा गांव और दो तरफ से पहाड़ी नदियां। पहाड़ियों के नीचे नदी के उस पार जंगल दिख रहा था। गायें और बकरियां चर रही थीं। सचमुच प्रकृति ने धरती को बहुत कुछ दिया है। लेकिन मनुष्य उसे सहेजना तो दूर, उल्टे विकृत कर देता है। वहां की प्राकृतिक रमणीयता देख कर रूपा की सारी थकान दूर हो गयी।
घर के नौकर रामू की बेटी प्रीति सयानी थी। लेकिन वह पढ़ नहीं पायी थी, क्योंकि गांव में विद्यालय नहीं था। जो भी विद्यालय थे, गांव से काफी दूर थे। गांव की लड़कियों को पढ़ने के लिये वहां प्रति दिन जाना-आना संभव नहीं था। रामू ने बताया, ‘‘मालकिन ! जिसे पढ़ना होता है, वे शहर में जाकर रहते हैं और वहीं से पढ़ाई पूरी करते हैं। गरीबों की बेटियों के लिये ऐसा संभव नहीं है। गांव में मोहन बाबू थे, जो छोटी-छोटी बच्चियों को खल्ली पकड़ाना सिखला देते थे। उनकी सोहबत में बच्चियां क-ख-ग और ए-बी-सी-डी पढ़ लिया करती थीं।’’
‘‘अक्षर-ज्ञान ही तो पढ़ाई का आधार है।’’ रूपा ने आगे कहा, ‘‘अभी गांव में पढ़ाने वाला कोई नहीं है क्या ?’’
‘‘नहीं मालकिन ! बगल वाले गांव में नरेश बाबू पढ़ाते हैं। लेकिन वहां गांव के लड़के ही जाते हैं, उतनी दूर लड़कियां नहीं जा पातीं।’’ रामू के चेहरे पर विवशता थी। मैं गांव की बच्चियों को पढ़ाऊंगी।’’ रूपा ने कहा, ‘‘लेकिन पहले बाबू जी से पूछ लूं।’’
‘‘नेकी और पूछ-पूछ ?’’ बैजू बाबू वहां कब आ गये थे रूपा को पता नहीं चल पाया था। उन्होंने स्पष्ट किया, ’’बहू, तुम गांव की बच्चियों को पढ़ाना चाहती हो यह बहुत अच्छी बात है। एक लड़की के पढ़ने से दो परिवार-खानदान शिक्षित होता है। सबसे बड़ी बात है कि तुममें पढ़ाने की क्षमता है। पढ़ाने का तुमको अनुभव भी है। तुम यह काम बखूबी कर सकती हो। इसलिये खुले दिल से यह काम करो।’’
बैजू बाबू की बातों से रूपा के मन को बहुत शांति मिली। दिल्ली से आने के पहले उसने ऐसा कुछ सोचा नहीं था। रामू की बेटी को अनपढ़ देख कर अचानक उसके दिमाग में गांव की बच्चियों को पढ़ाने की बात आ गयी थी। 
दिल्ली में रूपा अपने पति महेश के साथ रहती थी। जब उसकी शादी हुई तो महेश एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता था। वह अपने पिता की इकलौती संतान था। उसकी पढ़ाई-लिखाई पुणे में हुई थी और दिल्ली में वह नौकरी कर रहा था। किराये का फ्लैट था, जिसमें घरेलू सुख-सुविधा के सारे सामान उपलब्ध थे। आराम और खुशी की जिन्दगी थी। 
रूपा की शादी के अभी छह माह ही हुए थे कि एक हादसा हो गया। कार्यालय से निकलने के बाद महेष की बैठकी दोस्तों के साथ होती थी। कुछ दिनों से प्रायः रोज ही ऐसा होने लगा था। सभी दोस्त एक साथ बैठ कर शराब पीते थे। महेष पहले शराब नहीं पीता था। उसके एक सहकर्मी ने जबरदस्ती उसे एक दिन बैठकी में ले जाकर शराब पिला दी थी। वह सहकर्मी दूसरे दिन भी महेश को साथ ले गया। महेष की जाने की इच्छा नहीं थी। लेकिन वह नाभी नहीं कर पाया था। 
बातचीत में संकोच करना और वरीय कर्मियों के प्रेमपूर्ण झांसे में आ जाना नव कर्मियों के लिये उचित नहीं होता। महेष ने यहीं भूल कर दी थी। संगत के प्रभाव में वह कुछ दिनों तक बैठकी में गया। उसके बाद बैठकी में जाना उसकी आदत हो गयी थी। कार्यालय का समय समाप्त होता था और स्वयमेव उसके पैर बैठकी की ओर बढ़ जाते थे। आदत हो जाने के बाद उसे ऐसा लगने लगा था कि कब कार्यालय का समय खत्म हो कि वह बैठकी में जाये। शराब के साथ सिगरेट का भी दौर चलता था। बैठकी में सिगरेट शराब का सह-उत्पाद हो गयी थी।
एक दिन महेश शराब पीकर निकला और प्रति दिन की तरह मेट्रो पकड़ने आ गया। नशा में उसके पैर लड़खड़ाये और वह प्लेटफार्म पर गिर पड़ा था। उसके सिर में चोट आ गयी थी। गिरने पर वह बेहोश हुआ तो आठ दिनों तक उसे होश नहीं आया और बेहोशी में ही वह दुनिया से चल बसा।
महेश की बेहोशी का समाचार सुन कर बैजू बाबू दूसरे दिन ही दिल्ली पहुंच गये थे। घर से अस्पताल तक रूपा की मेहनत, लगन और सक्रियता देख कर वे हैरान थे। अपनी बहू को निकट से देखने-समझने का उन्हें पहली बार मौका मिला था। उस समय उन्हें लगा था कि बहू-बेटी का षिक्षित होना कितना जरूरी है। महेश ने दिल्ली से दिल्ली में ही अपनी शादी कर ली थी। उस दौरान बैजू बाबू सपत्नीक दिल्ली आये तो थे, मगर अतिथि के तौर पर एक सप्ताह तक वहां रह कर चले गये थे। दिल्ली में पली-बढ़ी लड़की ऐसी होगी, उन्होंने सोचा भी नहीं था। उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि मेहनत, लगन और सक्रियता का संबंध किसी नगर-महानगर से नहीं, अपने व्यक्तिगत स्वभाव और पारिवारिक संस्कार से होता है।
बैजू बाबू को पता था कि दिल्ली छोड़ कर चन्दाघासी गांव में आकर बसने का रूपा का निर्णय आसान नहीं है। वह दिल्ली के एक अच्छे उच्च विद्यालय में पढ़ा रही थी। कुछ दिन सास-ससुर के पास रह कर वापस दिल्ली चली जाने की सोच कर वह ससुराल आयी थी। मगर गांव में लड़कियों की अषिक्षा और शैक्षणिक माहौल की कमी को देख कर उसने शहरी सुख-सुविधाओं और कैरियर को त्याग देने का निर्णय लिया। उसके कहने पर बैजू बाबू अपने नौकर रामू के साथ दिल्ली जाकर सारा सामान लेते आये।
घर के सामने स्थित दालान में ही विद्यालय चलने लगा। विद्यालय का बोर्ड भी लगा दिया गया – महेष शिक्षा निकेतन। बैजू बाबू विद्यालय के प्राचार्य बन गये। रूक्मिणी देवी छोटे बच्चों के खेल विभाग की प्रभारी बन गयीं। विद्यालय में गांव की दो महिलाएं और दो लड़कियां भी सहयोग करने लगीं। बाहर से दो और स्नातकों को बुला कर शिक्षक नियुक्त कर लिया गया। गांव के कुछ पढ़े-लिखे बेरोजगार लड़के भी विद्यालय के बाहरी-भीतरी कामों से जुड़ गये। गोद की बच्चियों से लेकर बड़ी-बड़ी छात्राओं तक की पढ़ाई की व्यवस्था कर दी गयी।
गांव में लड़कियों के लिये एक विद्यालय खुल जाने से देखते-देखते वहां का माहौल ही बदल गया। आसपास के गांवों की लड़कियां भी वहां पढ़ने आने लगीं। सब कुछ बड़ी जल्दी में हो गया। लग रहा था कि गांव में शिक्षा की समस्या को समाप्त करने की सोच को पर लग गया हो। 
रूपा दिन-रात विद्यालय के कामों में व्यस्त रहती थी। जब विद्यालय बंद हो जाता था तो वह रात में बैठ कर अगले दिनों की तैयारी करती थी। रूक्मिणी देवी और बैजू बाबू भी उसके काम में सहयोग करते थे। पड़ोस की दो लड़कियां गुंजा और रीना भी रूपा के कामों में देर तक मदद किया करती थी। वे दोनों रूपा की सहेली जैसी हो गयी थी। हर काम में रूपा के साथ रहती थीं।
रात में खाना खाते समय बैजू बाबू ने कहा, ‘‘इस गांव में लड़कियों के लिये शिक्षा की शुरूआत हो सकती है ऐसा तो किसी ने सोचा ही नहीं था। रूपा ने शिक्षा की समस्या दूर करने में जो कार्य किया है, वह कल्पनातीत है।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘इससे एक बात यह भी स्पष्ट होती है कि शिक्षा के विकास के लिये सुविधाएं तो चाहिये ही, लेकिन उससे अधिक लगन और मेहनत की आवश्यता है। यदि लगन और मेहनत से किसी काम को शुरू किया जाये तो वह अवश्य पूरा होता है।’’
‘‘हां ! और तो और, जो लोग खुद पढ़े-लिखे नहीं हैं, रूपा ने उन्हें भी इस शिक्षा के मंदिर से जोड़ कर छात्राओं के विकास में लगा दिया।’’ यह रूक्मिणी देवी की आवाज थी। रूपा जब गांव में आयी थी तो रूक्मिणी देवी ने उसे घृणा की दृष्टि से देखा था। उनके मन में एक बात बैठी हुई थी कि महेश की मौत का कारण रूपा ही है। महेश की न रूपा से शादी होती, न वह मरता। उसके मन में गंवई विचार के अनुसार यह भावना भी काम कर रही थी कि रूपा डायन है और वही उसके बेटे को खा गयी है। लेकिन बैजू बाबू की बातों और रूपा के व्यवहार ने रूक्मिणी देवी के मन से डायन का वहम ही हटा दिया था। अब वह पूरी तरह समझ गयी थी महेश की मौत का कारण रूपा नहीं, शराब थी। यहां तक कि अब वह गांव में दूसरी औरतों के मन से भी डायन या भूत का वहम हटाने लगी थीं और शराब का दुष्प्रचार करने लगी थीं। वह गांव की महिलाओं को किसी की मौत के कारण की जड़ में जाने की वकालत करने लगी थीं। रूपा के प्रति तो उनके मन में श्रद्धा का पौधा उपज आया था और वह नित बढ़ता जा रहा था।
विद्यालय में लड़कियों की सक्रियता दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही थी। स्वाधीनता दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। मुख्य अतिथि के रूप में जिलाधिकारी महोदया पधारी हुई थीं। गांव में पहली बार कोई सार्वजनिक आयोजन हो रहा था। झण्डोत्तोलन के उपरांत विद्यालय की बच्चियों ने नृत्य-गान प्रस्तुत किया। छोटी-छोटी बच्चियों ने जो नृत्य-नाटिका प्रस्तुत की, उसमें वे गा रही थीं
आओ मिल हम गायें
शिक्षा को सब अपनायें ।
जिसको भी शिक्षा मिली
कठिनाई में वह नहीं हिली ।
लगन से जो पढ़ती है
आगे वही बढ़ती है ।
ठप्पामार न बनना है
सीढ़ियां बस चढ़ना है।
जिसको शिक्षा हो प्यारा
देश उसी का है न्यारा।
मुख्य अतिथि जिलाधिकारी महोदया बच्चियों का कार्यक्रम देख कर बहुत प्रभावित हुईं। उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘‘जो जितना पढ़ पायेगी, उतना आगे बढ़ जायेगी। बच्चियों ! घर में बड़े-बुजुर्ग हैं। विद्यालय में रूपा मैडम एवं अन्य लोग हैं। यहां टी0 भी0 भी लगा हुआ है, जिस पर तुम लोग कुछ कार्यक्रम देखती होगी। तुम्हें इस बात की जानकारी है कि दुनिया कितनी बड़ी है। दुनिया में कितने तरह के लोग हैं। जगह-जगह लोगों के कपड़े अलग हैं, उनकी बोली अलग है। उनका रंग अलग है, ढंग अलग है। लेकिन एक बात सबमें समान है कि वे इन्सान हैं और इसीलिये महान हैं। इन्सान और जानवर में यही अंतर है कि इन्सान षिक्षा ग्रहण कर सकता है, जानवर नहीं। दुनिया में जितने भी महान हुए हैं, सबों ने शिक्षा पायी थी। बिना शिक्षा के कोई महान तो क्या, सही मायने में इन्सान भी नहीं बन सकता। भले वह पुरुष हो या महिला। तुम सभी जितनी मेहनत और लगन से विद्यालय में लगी रहती हो, उतनी ही मेहनत और लगन से घर में भी लगी रहो। तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। बचपन में खेलते हुए शिक्षा प्राप्त करती हो। खेलती अधिक हो और पढ़ती कम हो। लेकिन जब उच्च शिक्षा की ओर बढ़ोगी तो खेल कम हो जायेगा और पढ़ाई बढ़ जायेगी। कितनी देर खेलना है और कितनी देर पढ़ना है इसके अनुपात से ही शिक्षा आगे बढ़ती है और व्यक्ति का विकास होता है। यह बात दीगर है कि खेल के क्षेत्र में भी आगे बढ़ा जा सकता है। लेकिन इसके लिये भी पढ़ना आवश्यक है। पढ़ना ही बढ़ना है। उच्च शिक्षा हमेशा साथ देती है, चाहे वह महिलाओं को दी जाये या पुरुषों को। जय हिन्द, जय शिक्षा !’’
कार्यक्रम के अंत में कुछ बच्चियों को पुरस्कृत किया गया। बैजू बाबू और रूक्मिणी देवी के हाथों सभी बच्चियों को मिठाइयां दिलवा कर रूपा ने कार्यक्रम की समाप्ति की। उसके बाद गांव और आसपास से पधारे बुजुर्गों ने एक साथ नारा लगाया, ‘‘रूपा बिटिया की जय !’’ वे सभी बहुत उत्साहित थे। उसके बाद सभी अपने-अपने घर चले गये। विद्यालय के सामने अब भी तिरंगा लहरा रहा था। लग रहा था कि वह गांव में बह रही हवा के माध्यम से संदेश दे रहा हो, ‘‘पढ़ना ही बढ़ना है।’’
सारिका, कादम्बिनी, आजकल, नवनीत, नया ज्ञानोदय, हरिगंधा, अहा! जिन्दगी, हरियाणा संवाद, जागृति, कुरूक्षेत्र, पंजाब सौरभ, समाज कल्याण, योजना, पर्यावरण, गगनांचल आदि तमाम पत्र-पत्रिकाओं में चार हजार से अधिक लघुकथाएं, कहानियां, बालकथाएं, आलेख प्रकाशित. झारखण्ड सरकार द्वारा हिन्दी सेवी सरकारी सेवक सम्मान से 14 सितम्बर, 2013 को सम्मानित. हमारे वन्यप्राणी, हमारे पक्षी, हमसे है पर्यावरण (बालोपयोगी पुस्तकें) एवं सागर के तिनके (लघुकथा संकलन). करीब चार दर्जन सम्पादित संकलनों में लघुकथाएं, बालकथाएं एवं कहानियां प्रकाशित. संपर्क - 8809972549, ankushreehindiwriter@gmail.com

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