साल 1880 के बाद से 21 वीं सदी के प्रत्येक साल को सबसे गर्म सालों की सूची में 14 वें पायदान पर रखा गया है। साल 2000 से 2004 के बीच हुए सर्वे के अनुसार अलास्का, पश्चिमी कनाडा, रूस में औसत तापमान वैश्विक औसत में दो-गुना दर से बढ़े हैं। आने वाले दशकों में और साल 2085 में बाढ़ पीड़ितों की संख्या 5.5 मिलियन होने की संभावना है। समुद्र के जल स्तर में  तेजी से बदलाव देखे जा रहे हैं।
जीवाश्म ईंधन से होने वाले वायु प्रदूषण की वैश्विक कीमत आठ अरब डॉलर प्रति दिन है। ये विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 3.3 प्रतिशत है। इन आंकड़ों की गणना करने वाले पर्यावरण संबंधी शोध संस्थान सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर और ग्रीनपीस साउथईस्ट एशिया  वायु प्रदूषण की धनराशि के हिसाब से आंकलन देने वाले ये दोनों दुनिया के पहले संस्थान हैं।
इनकी रिपोर्ट में बताया गया था कि, “हमने पाया कि चीन का मुख्य भूभाग, अमेरिका और भारत पूरी दुनिया में जीवाश्म ईंधन से होने वाले वायु प्रदूषण की सबसे ज्यादा कीमत अदा करते हैं। हर साल चीन इसकी अनुमानित 900 अरब डॉलर कीमत अदा करता है, अमेरिका 600 अरब डॉलर और भारत 150 अरब डॉलर।”
क्या ये आंकड़े भयावह नहीं हैं? क्या ये आंकड़े आपको डराते नहीं हैं? क्या ये आंकड़े आपको सोचने पर मजबूर नहीं करते हैं? अभी पिछले दिनों पहली ऑनलाइन हड़ताल सोशल मीडिया पर हुई। जिसमें यूट्यूब पर 24 घंटे का लाइवस्ट्रीम चला, जिसमें पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट और रिसर्चर अपनी बात कहते नजर आए थे।
समाज ही सिनेमा को नजरिया देता है फ़िल्म निर्माण करने का। लेकिन हम फिल्में देखते हैं उन्हें सराहते हैं। ज्यादा हुआ तो दो बूंद आंसू टपका बाहर निकलते ही प्रदूषण फैलाना शुरू कर देते हैं। राजस्थान में सालों पहले हुए चिपको आंदोलन की सत्य घटना को जिसमें एक हरे पेड़ को कटने से बचाने के लिए बिश्नोई समाज के 363 लोगों द्वारा दिए गए बलिदान की  गाथा बड़े पर्दे पर दिखाई गई थी। बिश्नोई समाज के इस त्याग पर्यावरण संरक्षण का संदेश देने के लिए राजस्थान की श्री जंभेश्वर पर्यावरण एवं जीव रक्षा संस्था ने ‘साको 363´ नामक फिल्म बनाने का बीड़ा उठाया था।
आए दिन हजारों फिल्में रिलीज होती हैं। जिनमें से कुछ ही प्रकाश में आती हैं। कायदे से अपनी बात रखती हैं और हमें सिखाती हैं।
इसी साल 2021 में आई ‘वनरक्षक’ फ़िल्म वनों की रक्षा में लगे जवानों के इर्द गिर्द घूमती है। और पर्यावरण तथा जंगलों को बचाए रखने का आह्वान चिरंजीलाल के माध्यम से करती है। पवन कुमार शर्मा के निर्देशन में बनी यह फ़िल्म हिमाचली तथा हिंदी दो भाषाओं में आई थी। लेकिन सिनेमाघर बंद पड़े रहने के कारण यह ठंडे बस्ते में और ओटीटी प्लेटफॉर्म की झुंड में कहीं खो गई। इससे पहले साल 2018 में आई ‘हल्का’ नीला माधव पांडा के निर्देशन और निर्माण में बनी फिल्म भारत में बड़े पैमाने पर खुले में शौच करने की समस्या पर प्रकाश डालती है। इस फैमिली ड्रामा फिल्म में एक छोटे बच्चे पिचकू की कहानी दिखाई गई है जो दिल्ली के स्लम इलाकों से उठकर अपना खुद का शौचालय बनवाने के लिए मंत्रालय तक पहुंच जाता है। जबकि उसके पिता ऐसा नहीं चाहते। इसी बीच उसे सरकार कार्य तंत्र में फैले भ्रष्टाचार का भी सामना करना पड़ता है।
‘कड़वी हवा’  (2017) हिंदी सिनेमा की यह इकलौती ऐसी फिल्म है जो क्लाइमेट चेंज जैसे मुद्दे को केंद्र में रखकर बनाई गई है। फिल्म के केंद्र में एक महुआ गांव दिखाया गया है जो सूखे का शिकार है। पानी न होने की वजह से फसलें नहीं हो पातीं और किसान आत्महत्या करना शुरू कर देते हैं। यह बात वहां के इंसानों के लिए आम ही थी। एक बूढ़ा आदमी अपने किसान बेटे को लेकर बहुत चिंतित होता है। किसानों की आत्महत्या का मुद्दा तो भारत में एक राजनीतिक मुद्दा भी है। यह फिल्म इस समस्या को गहराई से उजागर करती है।
‘वारदात’ साल 1981 में आई यह फ़िल्म पिछले दिनों फिर से चर्चा में आई थी जब भारत के किसानों की फसलों में टिड्डी दल का हमला खूब चर्चा में आया। इससे किसान बहुत परेशान और घबराए भी हुए भी नजर आए थे। टिड्डियों का यह झुंड एक ऐसी समस्या थी जो जहां से गुजरती, अपने पीछे तबाही का मंजर और फसलों का सूपड़ा साफ करती जाती। इस फिल्म में भी टिड्डियां हमला करती हैं लेकिन वे मानव जनित होती हैं। दरअसल एक रासायनिक परीक्षण असफल हो जाने से टिड्डियां पैदा होती हैं और वह फसलों का सर्वनाश करना शुरू कर देती हैं। हालांकि इस फिल्म के हीरो मिथुन चक्रवर्ती गन मास्टर जी बनकर इस घटना का पर्दाफाश करते हैं।
‘हाथी मेरे साथी’ (1971) हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार दिवंगत अभिनेता राजेश खन्ना की यह सुपरहिट फिल्म लोगों को जानवरों से प्यार करना आज भी सिखाती है। वैसे भी आजकल जानवरों के संरक्षण के लिए न जाने कितने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम किए जा रहे हैं। कई ऐसी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं हैं जो जानवरों के संरक्षण पर जोर देती हैं। पर्यावरण में संतुलन बनाए रखने के लिए जानवरों का होना भी बहुत जरूरी है। फिल्म में राजेश खन्ना चार हाथियों के बीच पलकर बड़े होते हैं और उनके दोस्त बन जाते हैं। बदले में राजेश की बहुत सी परेशानियों को ये हाथी अपने सिर ले लेते हैं।
‘उपकार’ 1967 में आई इस फ़िल्म के आने से पहले तक जब शानदार अभिनेता, निर्देशक और निर्माता मनोज कुमार को भारत कुमार का दर्जा मिलने लगा था, तो उसका कारण कुछ इस तरह की धरती से जुड़ी फिल्में ही थीं। फिल्म में भारत एक धरती से जुड़ा इंसान है जो खेती बाड़ी करता है और अपने भाई को शिक्षित करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। लेकिन बाद में वही पढ़ा लिखा भी लालची निकलता है और पैसा कमाने के लिए गलत रास्तों पर निकल पड़ता है। फिल्म में भारत का धरती प्रेम बहुत ऊंचा है। वह धरती को अपनी मां समझता है और उसी के गीत गाता है।
कुछ लोगों को लगता है कि हिंदुस्तान का सिनेमा सिर्फ मिर्च मसाले के किसी घोल जैसा है। तो इस विदेशी विधा को पसंद करने वालों के लिए डॉक्यूमेंट्री भी बनी हैं। हॉलीवुड में कई ऐसी डॉक्यूमेंट्री हैं जिन्हें देखा जा सकता है बशर्ते आप उन्हें देखकर ही सिर्फ इतिश्री न कर लें।
‘माई ऑक्टोपस टीचर’ 2020 में आई यह डॉक्यूमेंट्री दिखाती है कि कोई भी इंसान किसी जंगली ऑक्टोपस के इतना करीब नहीं गया होगा जितना दक्षिण अफ्रीकी फिल्म निर्माता क्रेग फॉस्टर गए। फॉस्टर एक साल तक अटलांटिक महासागर के एक इलाके में रोज पानी के नीचे गए और मंत्रमुग्ध कर देने वाले इस जीव के जीवन को कैमरे में कैद किया। संभव है कि ये फिल्म जानवरों और अपने पूरे ग्रह से आपके रिश्ते को देखने के आपके तरीके को ही बदल दे।
‘एटेनबोरो: ए लाइफ ऑन आवर प्लैनेट’ डेविड एटेनबोरो पर्यावरण संबंधी डॉक्यूमेंट्रियों के गॉडफादर माने जाते हैं।  ब्रिटेन के रहने वाले 94 साल के ये फिल्म निर्माता प्रकृति और उसके हर अचम्भे को कैमरे में कैद करने के लिए दुनिया के हर कोने में गए। और साल 2020 में डॉक्यूमेंट्री लेकर आए। अपनी नई फिल्म में वो उन बदलावों पर रोशनी डालते हैं जो उन्होंने अपने जीवनकाल में देखे हैं। साथ ही वो भविष्य के बारे में अपनी परिकल्पना भी सामने रखते हैं जिसमें इंसान प्रकृति के साथ काम करे, ना कि उसके खिलाफ।
‘द ह्यूमन एलिमेंट’ (2018) इस फिल्म में हम फोटोग्राफर जेम्स बलोग से मिलते हैं, वे उन अमेरिकियों में से है जो जलवायु परिवर्तन से सीधे प्रभावित हुए हैं, जिनके जीवन और आजीविका पर इंसानों और प्रकृति के आपस में टकराने का सीधा असर पड़ा है। बलोग दिखाते हैं कैसे इंसान की जरूरतें पृथ्वी, अग्नि, जल और आकाश चारों मूल-तत्वों को बदल रही हैं और हमारे भविष्य के लिए इसके क्या मायने हैं।
‘बिफोर द फ्लड’ (2016) इस डॉक्यूमेंट्री में हॉलीवुड सुपरस्टार लिओनार्डो डिकैप्रियो नेशनल ज्योग्राफिक के साथ मिल कर समुद्र के बढ़ते हुए जल स्तर और वन कटाई जैसे पूरी दुनिया में हो रहे ग्लोबल वॉर्मिंग के असर को हमारे सामने लाते हैं। बराक ओबामा, बान कि-मून, पोप फ्रांसिस और इलॉन मस्क जैसी हस्तियों के साथ साक्षात्कार के जरिए यह फिल्म एक सस्टेनेबल भविष्य के लिए समाधानों को सामने रखती है।
‘टुमॉरो’ साल 2015 में आई यह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए एक आशावादी नजरिए की तलाश करती है।  कृषि, ऊर्जा आपूर्ति और कचरा प्रबंधन के मौजूदा स्वरूप के विकल्पों पर रोशनी डालती है।  यह फ्रांसीसी फिल्म शहरी बागबानों से लेकर नवीकरणीय ऊर्जा के समर्थकों तक अलग अलग लोगों की कहानियों के जरिए यह हमें रोजमर्रा के सस्टेनेबिलिटी इनोवेटरों से मिलाती है और स्थानीय बदलाव लाने की प्रेरणा देती है।
‘रेसिंग एक्सटिंक्शन’ (2015) में ऑस्कर जीतने वाली निर्देशक लुई सिहोयोस की इस फिल्म में एक्टिविस्टों की एक टीम विलुप्तप्राय प्रजातियों के अवैध व्यापार की कलई खोलती है और वैश्विक विलोपन यानी एक्सटिंक्शन के संकट को हमारे सामने लाती है। गुप्त तरीकों और आधुनिकतम प्रौद्योगिकी के जरिए टीम आपको ऐसी जगहों पर ले जाती है जहां कोई नहीं जा सकता और कई रहस्य खोलती है।
‘विरुंगा’ (2014) डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो का विरुंगा राष्ट्रीय उद्यान दुनिया की उन एकलौती जगहों में से है जहां अभी भी जंगली पहाड़ी गोरिल्ला पाए जाते हैं। लेकिन उद्यान और उसमें रहने वालों पर शिकारियों, सशस्त्र लड़ाकों और प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की मंशा रखने वाली कंपनियों की वजह से खतरा है। इस फिल्म में आप मिलते हैं ऐसे लोगों के एक समूह से जो इस उद्यान को और इन शानदार जंतुओं को बचा कर रखना चाहते हैं।
‘काऊस्पिरसी: द सस्टेनेबिलिटी सीक्रेट’ 2014 में आई यह फ़िल्म एक क्राउड-फंडेड डॉक्यूमेंट्री है जो पर्यावरण पर भोजन के लिए पशु-पालन के असर की तफ्तीश करती है और यह जानने की कोशिश करती है कि क्यों दुनिया के अग्रणी पर्यावरण संगठन इसके बारे में बात करने से घबराते हैं। यह फिल्म दावा करती है कि पर्यावरण के विनाश का प्राथमिक स्त्रोत और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार फॉसिल जीवाश्म ईंधन नहीं बल्कि भोजन के लिए किया जाने वाला पशु-पालन ही है।
‘इयर्स ऑफ लिविंग डेंजरस्ली’ (2014) में यह फ़िल्म एम्मी पुरस्कारों से नवाजी डॉक्यूमेंट्री की सीरीज थी जिसमें कई सेलिब्रिटी जलवायु संकट और उसके असर पर दुनिया के कोनों कोनों में जा कर विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों के साक्षात्कार लेते दिखाई दे रही थी। इन लोगों की स्टार-पावर पर ध्यान केंद्रित करने की जगह यह सीरीज जलवायु संकट से प्रभावित आम लोगों के जीवन पर रोशनी डालती है और यह दिखाती है कि कैसे हम अपनी दुनिया को आगे की पीढ़ियों के लिए बचा कर रख सकते हैं।
इन फिल्मों को तथा आस पास हो रहे पर्यावरणीय बदलावों के बावजूद अगर हम पर्यावरण के लिए कुछ नहीं करते हैं तो हम किसी भी तरह की संवेदनाओं से मुक्त हो चले हैं। यही कारण है कि महामारियां आती हैं, हमें चेताती हैं बावजूद इसके हमारे कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। इन फिल्मों को देखने के तुरंत बाद ही बाहर निकलकर हम प्रदूषण फैलाना शुरू कर देते हैं।

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