हमारा मानना है कि पुरस्कारों को राजनीति के तराज़ू में न तोला जाए। सिनेमा का मुख्य उद्देश्य है दर्शकों के दिलों में स्थान बनाना। और किसी भी सम्मान समिति का काम होना चाहिये कि बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल और केवल गुणवत्ता के आधार पर ही पुरस्कार दिये जाएं। वरना आमिर ख़ान और अजय देवगन की ही तरह अधिकांश फ़िल्मी हस्तियां इन पुरस्कारों से विमुख हो जाएंगी।

सुशान्त सिंह राजपूत की संदेहास्पद हालत में हुई मृत्यु के बाद हिन्दी सिनेमा जगत पर बहुत से आरोप लगे और ऐसा महसूस होने लगा कि जैसे फ़िल्म उद्योग अलग अलग धड़ों में बंट गया है। फ़िल्म उद्योग ही नहीं टीवी चैनल भी अपने अपने हिसाब से समाचार दिखा रहे थे। कहीं सुशान्त सिंह राजपूत अति महत्वपूर्ण था तो कहीं उसका नाम भी नहीं लिया जा रहा था बल्कि उन लोगों का इंटरव्यू किया जा रहा था जिन्हें किसी न किसी तरह सुशान्त सिहं राजपूत की मौत से जोड़ कर देखा जा रहा था। 
वंशवाद के आरोपों की झड़ी लग रही थी। कुछ फ़िल्म निर्माताओं को इस मामले में पूरी तरह से खलनायक बना कर पेश किया जा रहा था। मुंबई पुलिस पर भी आरोप लग रहे थे। परमबीर सिंह और ठाकरे परिवार पर भी उंगलियां उठ रही थीं। 
कंगना रनावत का घर और ऑफ़िस तोड़े जाने पर भी फ़िल्म इण्डस्ट्री में अलग अलग सुर की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। कंगना रनावत, अनुपम खेर, विवेक अग्निहोत्री, शेखर सुमन जैसे कई नाम एक तरफ़ खड़े दिखाई दे रहे थे तो करण जौहर, महेश भट्ट, अनुराग कश्यप, स्वरा भास्कर, दीपिका पदुकोण, जया बच्चन और तापसी पन्नू एक अलग पेज पर दिखाई दे रहे थे। 
एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप भी लगाए जा रहे थे। मगर आहिस्ता आहिस्ता धूल उड़नी कम हुई और महसूस हुआ कि कुछ शान्ति जैसा माहौल बनने लगा है। मगर लगता है कि फ़िल्म इण्डस्ट्री में हुआ विभाजन आसानी से भरने वाला नहीं है। 
हाल ही में पहले तो भारत में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की घोषणा की गयी और बाद में फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की। भारत में ये दो पुरस्कार ही सबसे अधिक सम्मानित माने जाते हैं। इनकी शुरूआत भी लगभग साथ ही साथ हुई थी। दोनों सम्मानों को शुरू हुए 66/67 वर्ष हो चुके हैं। पहले यह माना जाता था कि राष्ट्रीय पुरस्कार तो आर्ट सिनेमा के कलाकारों को ही मिल सकते हैं। यह काल था नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी, साधु मेहर, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल आदि का। लगता था कि मुख्यधारा के सिनेमा के लिये यहां कोई स्थान नहीं है। मगर आहिस्ता आहिस्ता इस सोच में बदलाव आने लगा।
अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, रवीना टण्डन औऱ सैफ़ अली ख़ान जैसे बड़े नाम भी राष्ट्रीय पुरस्कारों की सूची में दिखाई देने लगे।
राष्ट्रीय पुरस्कारों में सबसे अधिक सम्मानित पुरस्कार है दादा साहेब फालके सम्मान जो इस वर्ष दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकान्त को दिया गया। इसी की तर्ज़ पर फ़िल्मफ़ेयर लाइफ़-टाइम अचीवमेण्ट सम्मान दिवंगत अभिनेता इरफ़ान ख़ान को दिया गया। यहां तक तो किसी प्रकार का विवाद नहीं है।  
विवाद शुरू होता है उसके बाद। अब राष्ट्रीय पुरस्कारों की ज्यूरी को लगता है कि कंगना रनावत का अभिनय ‘पंगा’ और ‘मणिकर्णिका’ फ़िल्मों में इतना बेहतरीन है कि उसे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान मिलना ही चाहिये। जबकि फ़िल्मफ़ेयर वालों को ‘मणिकर्णिका’ फ़िल्म इस क़ाबिल ही नहीं लगी कि उसे किसी भी कैटैगरी में नामांकन तक मिल सके। कंगना रनावत को भाजपा सरकार का समर्थक माना जाता है तो सरकार ने उसे पुरस्कृत किया। वहीं तापसी पन्नु सरकार की आलोचक है और कंगना के विरुद्ध तो फ़िल्मफ़ेयर ने उसी की फ़िल्म ‘थप्पड़’ को श्रेष्ठ फ़िल्म और तापसी को श्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दे दिया।
फ़िल्मफ़ेयर ने तो ‘थप्पड़’ को लगभग हर कैटेगरी में नामांकित कर दिया और श्रेष्ठ फ़िल्म, श्रेष्ठ अभिनेत्री, श्रेष्ठ गायक का पुरस्कार दे भी दिया। वहीं राष्ट्रीय पुरस्कार की ज्यूरी ने सुशांत सिंह राजपूत की याद को ज़िन्दा रखा और उसकी फ़िल्म ‘छिछोरे’ को श्रेष्ठ फ़िल्म का सम्मान दिया।   
श्रेष्ठ अभिनेता के चयन में भी दोनों पुरस्कारों के ज्यूरी के विचार एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न रहे। राष्ट्रीय पुरस्कार समिति को ‘भोंसले’ में मनोज वाजपेयी और ‘असुरन’ में धनुष का काम पसन्द आया औऱ उन्हें संयुक्त विजेता घोषित किया गया। तो फ़िल्मफ़ेयर को इरफ़ान का ‘इंग्लिश मीडियम’ का रोल जंचा। 
याद रहे कि फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार उसी टाइम्स ग्रुप द्वारा दिये जाते हैं जो कि टाइम्स नाऊ टीवी चैनल चलाते हैं और जिन्होंने कि सुशान्त सिंह राजपूत की मृत्यु पर पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह और महाराष्ट्र सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया था। 
जिस इंडस्ट्री की स्थिति यह हो कि उसका श्रेष्ठतम संगीतकार प्रीतम हो तो उस पुरस्कार समिति को कहा क्या जाए यह समझ ही नहीं आता। यह समय-समय पर साबित होता रहा है कि प्रीतम की धुनें कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा होती हैं। 
विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म ‘दि ताशकन्द फ़ाइल्स’ में पल्लवी जोशी को श्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो फ़िल्मफ़ेयर सम्मान वालों ने तो विवेक को अपने आसपास भी फटकने नहीं दिया। विवेक वर्तमान सरकार की नीतियों के समर्थन में बोलते दिखाई देते हैं तो ज़ाहिर है कि उनकी फ़िल्म पर राष्ट्रीय पुरस्कार समिति तो ध्यान देगी ही। उनकी फ़िल्म को श्रेष्ठ पटकथा एवं संवाद के लिये भी सम्मानित किया गया।
गीतकार मनोज मुंतशिर ने पिछले फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों पर एक तल्ख़ टिप्पणी कर दी थी जब उनके ‘केसरी’ फ़िल्म के गीत ‘तेरी मिट्टी…’ को सम्मान के योग्य नहीं समझा गया। ग़ुस्से में मनोज ने कह दिया था कि वह कभी भी फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार नहीं लेगा। ऐसा लगता है कि फ़िल्मफ़ेयर ने उसकी ग़ुस्से में कही बात को बहुत गंभीरता से ले लिया है। 
संजय सूरी
एक पुरस्कार जिसे ‘पुरवाई’ पत्रिका पूरा समर्थन देगी वो मिला है हमारे लंदन के संजय सूरी को। उनकी लिखी पुस्तक ‘A Gandhian Affair: India’s Curious Portrayal of Love in Cinema’ को सिनेमा पर लिखी हुई श्रेष्ठतम पुस्तक घोषित किया गया। 
हमारा मानना है कि पुरस्कारों को राजनीति के तराज़ू में न तोला जाए। सिनेमा का मुख्य उद्देश्य है दर्शकों के दिलों में स्थान बनाना। और किसी भी सम्मान समिति का काम होना चाहिये कि बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल और केवल गुणवत्ता के आधार पर ही पुरस्कार दिये जाएं। वरना आमिर ख़ान और अजय देवगन की ही तरह अधिकांश फ़िल्मी हस्तियां इन पुरस्कारों से विमुख हो जाएंगी।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

5 टिप्पणी

  1. तेजेंद्र जी आपने बहुत सीधे ढंग से अपनी बात रखी है,हमेशा की तरह। मुझे लगता है जहाॅं पुरस्कार होंगे,वहाॅं राजनीति तो होगी ही। क्योंकि सत्ता को अपने लिए मज़बूत समर्थकों की तलाश होती है। यदि वे मज़बूत न भी हों तो उन्हें पुरस्कार देकर मज़बूत बनाने और दिखाने की कोशिश होती है। अब‌ यदि पुरस्कारों के लिए लोग खुलेआम अपनी दावेदारी प्रस्तुत करने लगें,जैसा मनोज मुंतशिर ने किया , तो सारे पुरस्कार तमाशा बनकर रह जायॅं। ऐसा दावा तो कलाकार के अधैर्य और स्खलन को ही दर्शाता ‌है। कहना न होगा कि ऐसी प्रकट या अप्रकट दावेदारी ही पुरस्कारों को राजनीति की ओर ले जाती है।
    – कमलेश भट्ट कमल
    ग्रेटर नोएडा वेस्ट, उत्तर प्रदेश

  2. बहुत ही स्पष्ट और सुलझे ढंग से लिखा गया संपादकीय। निश्चय ही पुरस्कारों को राजनीति और वैयक्तिक मतभेदों से बचना चाहिए। वहाँ सिर्फ गुणवत्ता का ही मूल्यांकन होना चाहिए।

  3. आदरणीय सम्पादक जी, आपने सम्पादकीय में कला जगत के
    प्रचलित दो पुरस्कारों ,राष्ट्रीय और फ़िल्म फ़ेयर का ज़िक्र करते हुए इन पुरस्कारों की गुणवत्ता पर स्पष्ट चिन्तन व्यक्त किया है यह सही है कि कलाकारों को कला की कसौटी पर परखा जाना चाहिए उनकी गुणवत्ता के साथ पक्षपात नहीं होना चाहिए किंतु देखा यही जा रहा है कि दोनों प्रकार के अवार्ड चयनकर्ताओं के
    मनोविज्ञान और राजनीतिक जोड़तोड़ को ध्यान में रखकर किये जा रहे हैं कला जगत प्रति वर्ष गहरे दल दल में फंसता नज़र आ रहा है।
    सम्पादकीय में एक और अच्छा संकेत है सुशांत राजपूत की मत्यु पश्चात फ़िल्मोद्योग के अंदर छुपा हुआ अनैतिक आचरण का उजागर होने।सिनेमा जगत के लिए ये हालात अनसुलझे प्रश्न है।
    जिस तरह कलाकार के निजी जीवन को उसकी प्रतिभा से अलग देखा जाता है उसी तरह उसके कला कौशल को उसके निजी चितन से अलग रखकर देखा जाना चाहिए ।आपके इन विचारों से सहमत हूँ।
    प्रभा

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