समकालीन परिदृश्य में सत्य व्यास लेखकों की वर्तमान पीढ़ी और नई वाली हिंदी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। बीएचयू से लॉ ग्रेजुएट सत्य व्यास का 2015 में जब ‘बनारस टॉकीज’ नाम से पहला उपन्यास आया, तो हिंदी कथा साहित्य के धरातल पर उनके लिखे-कहे की धूम मचने लगी। इसके बाद लगातार आई उनकी किताबों- दिल्ली दरबार, बागी बलिया, उफ्फ़ कोलकाता, चौरासी, 1931 देश या प्रेम आदि ने नई वाली हिंदी का ऐसा समां बांधा कि उन्हें बेस्टसेलर की सूची में पहले पायदान पर पहुँचा दिया। इन उपन्यासों का अंग्रेजी के साथ असमिया, उर्दू, मराठी, आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ। बहुचर्चित पुस्तक ‘चौरासी’ पर ‘ग्रहण’ नाम से वेब सीरीज आई। इन दिनों ‘बागी बलिया’ पर वेबसीरीज और ‘दिल्ली दरबार’ पर फिल्म रूपांतरण की प्रक्रिया में है। साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंधों पर डॉ. एस.डी. वैष्णव से उनकी बातचीत के प्रमुख अंश-
सवाल – लॉ ग्रेजुएट होने के बाद इधर साहित्य में कैसे आना हुआ?
उ.- एक बात दिमाग में थी कि कुछ नहीं हुआ, तो वकालत का पेशा तो सामने है ही। लेकिन मन में कुछ और द्वंद चल रहा था। मैं अपने हॉस्टल के मित्रों को लैपटॉप पर उनके नाम के साथ कुछ लाइनें लिखकर भेजता था। उन्हें लगता था कि मैं उनके नाम से कोई कहानी लिख रहा हूँ, इसलिए उन्हें अच्छा भी लगता था। उन्होंने कहा कि तुम अच्छा लिखते हो, कुछ बड़ा लिखो। फिर हॉस्टल लाइफ को लेकर किताब लिखी ‘बनारस टॉकीज’।
सवाल – आप प्यार–मोहब्बत वाले लेखक के रूप में शुरू हुए थे और अब ‘बागी बलिया’ के बाद लगातार पॉलिटिकल थ्रिलर रच रहे हैं, इसके पीछे क्या कोई योजना है?
उ.- नहीं, ऐसी कोई योजना नहीं है। मुझे करीब से जानने वाले जानते हैं कि राजनीति कदाचित अंतिम विषय हो, जिस पर बात–बहस करना मैं पसंद करता हूँ। व्यवसायिक लेखन में हूँ, तो विषय के वैविध्य पर भी काम करना ही होगा। इसलिए पॉलिटिकल थ्रिलर लिखना भी मेरे लिए जरूरी है।
सवाल – आपके लगभग उपन्यासों के नाम क्षेत्र विशेष पर हैं। ‘बागी बलिया’ यह नाम रखकर क्या आप पूर्वांचल की कथा कहना चाहते हैं?
उ.- ‘बागी बलिया’ क्षेत्र विशेष का नाम अवश्य रखा है, परंतु ऐसा नहीं है कि इसमें पूर्वांचल की कथा कही जा रही है। क्योंकि, इसकी जो कहानी है वह संपूर्ण भारतीय परिदृश्य को रेखांकित करती है। यह उपन्यास एक मित्र द्वारा दूसरे मित्र को यूनियन अध्यक्ष बनवाने की जद्दोजह के साथ-साथ बदला प्रधान कहानी है, जहाँ हास्य, विनोद, प्रेम, विछोह सबका पुट है। छात्रसंघ और छात्र–संघ चुनाव का माहौल बलिया क्या! सब जगह एक जैसा है। ‘बागी बलिया’ भाईचारे, दोस्ती, एकता और बंधुत्व प्रधान कहानी है, जिसमें राजनीति एक तत्व है। इसलिए क्षेत्र विशेष पर उपन्यास का नाम रखने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।
सवाल –फॉर्मूला फिल्मों की तरह हिंदी में भी फार्मूला किताबों का दौर चल निकला है। आपका नॉवेल ‘दिल्ली दरबार’ भी ऐसा ही है। आप क्या कहेंगे?
उ.- इस दौर को आप ना तो बहुत अच्छा कर सकते हैं और ना ही बहुत बुरा कह कर पूरी तरह खारिज कर सकते हैं, क्योंकि हिंदी से दूर हो रहे पाठक वर्ग को खींच लाने और बांधे रखने में इन किताबों का बड़ा योगदान रहा है। कहानी के स्तर पर आपको भले ही नया कुछ ना मिले, पर इसका ट्रीटमेंट मजेदार है। सरल वाक्य रचना, जबरदस्त ह्यूमर और पात्रों के मिजाज से मेल खाती भाषा आपको बांधे रखेगी। कुल मिलाकर यह उपन्यास आपका मनोरंजन अवश्य करेगा।
सवाल – लोकप्रिय साहित्य को किसनजर से देखते हैं?
उ.- सब की भाषा हिंदी है, लेकिन सब लेखक नहीं हो सकते हैं और केवल साहित्य से अर्थोपार्जन नहीं कर सकते हैं। लेकिन, यदि आपके लेखन में बात है, तो लेखन से आजीविका आपको ढूंढ ही लेगी। हमें पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर लिखना पड़ेगा। और यह काम लोकप्रिय साहित्य ने बड़े अच्छे से किया है। लोकप्रिय साहित्य पर ढेरों फिल्में बनी हैं। एक माध्यम यदि दूसरे माध्यम में रूपांतरित होता है, तो उससे लेखक और साहित्य दोनों का भला होता है। एक समय था जब लोकप्रिय उपन्यासों पर फिल्में बनाने के लिए निर्माता सूटकेस भर रुपये लेकर लेखक की अनुमति के इंतजार में खड़े रहते थे। वही दौर वापस लाने की आवश्यकता है। लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य पर बहस के इतर हमें हिंदी का पाठक वर्ग खोजना होगा।
सवाल –नई वाली हिंदी का आईडिया किस तरह आया?
उ.- हमारे यहाँ पहले से ही एक बहुत बड़ा हिंदी का लेखक वर्ग है। ऐसे में लेखन के क्षेत्र में अपने लिए जगह बनाना बहुत दुष्कर काम है। दूसरा साहित्यकारों में ईर्ष्या भाव भी बहुत है। ऐसे में अपने लिए जगह किस तरह से सुरक्षित करें! तब मेरे दिमाग में एक ऐसा थॉट था जो युवा वर्ग को साहित्य से जोड़े और हिंदी का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग तैयार हो। उसी दरमियान नई वाली हिंदी का आइडिया मेरे दिमाग में आया, लेकिन ‘नई वाली हिंदी’ यह शब्द हमारे सीनियर साथी दर्पण शाह ने दिया था। नई वाली हिंदी के इसी कॉन्सेप्ट के रूप में ‘बनारस टॉकीज’ आई और उसी ने मुझे प्रतिष्ठा दिलाई।
सवाल – साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंधों पर आपके क्या विचार हैं?
उ.- साहित्य के मूल में समाज है और सिनेमा का संबंध अर्थ यानी कॉमर्स से हैं। हिंदी फिल्मों ने सुदूर क्षेत्रों तक अपनी पहुँच बनाई और उसी से हिंदी का एक बड़ा पाठक वर्ग भी तैयार हुआ। साहित्य पर जब सिनेमा बनता है, तब वहाँ साहित्य का मूल नष्ट हो जाता है, क्योंकि सिनेमा पर एक आदमी का नियंत्रण नहीं रहता, वहाँ कई सारे बंधन होते हैं। फिल्म बनना एक संगठित प्रक्रिया है। इधर राइटर्स के पास इगो बहुत होता है, लेकिन फिल्म निर्माण के समय लेखक को अपनी किताब से अलग हो जाना चाहिए। ऐसे में वहाँ से जो साहित्य को या उस मूल बात को आगे ले जाए, वहाँ सिनेमा सफल होता है।
सवाल – ऑडियो माध्यम से लेखन में क्या संभावनाएँ देखते हैं?
उ.- कहानियों का ऑडियो माध्यम तो अथाह संभावनाएँ लेकर आया है। नए कलेवर के साथ रचनात्मक भी है। खासकर नए लेखकों के लिए। लेखक के पास एक अतिरिक्त अवसर यह भी है कि वह अपने लेखन में आ रहे पेंच को दुरुस्त कर सकता है। टीवी लेखन, स्क्रीन प्ले लेखन का शुरुआती व्याकरण भी सीख सकता है।
सवाल –कैंपस नॉवेल की बात करें, तो ‘बनारस टॉकीज’ से साहित्य के धरातल पर पाठकों की बाढ़– सी आ गई थी। इसकी कहानी के चयन के पीछे के थॉट के बारे में क्या कहेंगे?
उ.- जैसा कि मैं बता चुका हूँ कि मैं स्वयं बीएचयू से लॉ ग्रेजुएट हूँ। वहाँ के कैंपस को, हॉस्टल के वातावरण को यानी वहाँ के छात्र जीवन को बहुत करीब से देखने समझने का मुझे अवसर मिला है। लेखन के विचार से फिर मेरे सामने एक चुनौती यह भी थी कि नया क्या लिखें? जिससे हिंदी का पाठक वर्ग जुड़े! जो अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थी हैं, उनके हाथ में भी नए तेवर–कलेवर के साथ हिंदी की किताब पहुँचे। इसलिहाज से युवाओं को साहित्य से जोड़ना ही मेरा मकसद रहा। नई वाली हिंदी का आईडिया दिमाग में था ही। फिर बीएचयू के भगवान दास हॉस्टल में रहने वाले तीन छात्र जो कानून की पढ़ाई कर रहे हैं, उनके और हॉस्टल लाइफ के किस्से, छात्र जीवन का हास्य, सौहार्द और चुनौतियों से भरे माहौल के साथ, देशज बोली में पगे अपने अनूठे संवादों के साथ यह उपन्यास लिखा। पाठकों का प्रेम ही कहिएगा कि पहली ही किताब को सिर–आँखों पर रखा। उसकी लाखों प्रतियों की बिक्री हुई और बेस्टसेलर भी रही।
सवाल – वेब सीरीज़ आपके उपन्यास पर बन चुकी है और अब जनवरी 2024 में ‘दिल्ली दरबार’ पर बनी फिल्म पर्दे पर आ रही है, तो आप कैसा महसूस कर रहे हैं?
उ.- देखिए, कोई अपवाद ही होंगे जो नहीं चाहते होंगे, अन्यथा हर रचनाकार का सपना होता है कि उसकी रचना पर फिल्म बने और पर्दे पर आए। किसी रचना के पाठक भले ही कम हो सकते हैं, लेकिन सिनेमा के करोड़ों दर्शक हैं। सिनेमा का प्रभाव बहुत विस्तृत और व्यापक है। हो सकता है जिन्होंने पहले किताब ना पढ़ी हों, वे फिल्म देखने के बाद ही सही, किताब पढ़ेंगे! किताब के कवर से निकलकर यदि सत्य व्यास का नाम पर्दे पर आता है, तो निश्चित रूप से खुशी तो होती ही है कि आपके लिखे–कहे को पाठक ही नहीं, सिनेमा भी तवज्जो दे रहा है और फिर आगे के लिए लेखक की जिम्मेदारी भी बढ़ती है।
सवाल –आपकी किताबें बेस्टसेलर रही हैं। उस लिहाज से हिंदी साहित्य में आर्थिक संभावनाएं कैसी हैं?
उ.- अंग्रेजी उपन्यासों पर लगातार जिस तरह से फिल्में बन रही हैं, उस दृष्टि से कहीं ना कहीं हिंदी लेखक समुदाय को लगता है कि उनके उपन्यासों–कहानियों पर या उनके लिखे–कहे पर बात नहीं हो रही है, तो मेरा मानना है कि ऐसा नहीं है। पिछले कुछ सालों में फिल्म निर्माताओं की नजर हिंदी लेखक समुदाय की ओर गई है। फिल्में बनी भी हैं। और बन भी रही हैं। लेकिन सच कहने के लिहाज से कहानी का कंटेंट यदि अच्छा है, तो आप विश्वास रखिए कि पाठक समुदाय की ही नहीं, फिल्मी दुनिया वालों की भी नजर आप पर है और सब लोग आपको नोटिस कर रहे हैं। इसके बाद यह नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक संभावनाएं नहीं है! आर्थिक संभावनाएँ बहुत है। नए-नए रास्ते खुल रहे हैं। याद होगा आपको, एक समय में लुगदी साहित्य ने पर्दे पर धूम मचा के रखी थी। आप इंतजार कीजिए, वह समय वापस आ रहा है। फिर भी यदि कोई कहे कि आर्थिक संभावनाएँ नहीं हैं, तो फिर ऐसे लोगों की तरफ पैर करके भी नहीं सोना चाहिए।
सवाल – अभी हाल ही में मुंबई में आपकी नई किताब ‘मीना मेरे आगे’ का विमोचन हुआ। क्या खास है इस किताब में?
उ.- ‘मीना मेरे आगे’ यह एक अनधिकृत आत्मकथा है। अनधिकृत इसलिए कि यह एक फिल्मची का नजरिया है, जो उनके जीवन में ताक–झांक कर रहा है। आगे भी मेरी फिल्मी दुनिया के गुमशुदा लोगों पर एक किताब लिखने की तमन्ना है।
सवाल – ‘मीना मेरे आगे’ उपन्यास के ट्रैक से हटकर इस तरह की किताब लिखने की क्या वजह रही?
उ.- समाज आज जिस बदलाव की ताकीद कर रहा है, जिन बेड़ियों को तोड़कर आगे बढ़ रहा है, मीना ने वह सिलसिला, वह बेड़ियां आधी सदी से भी ज्यादा पहले तोड़ दी थीं। इसलिए लिहाज से वह एक मायने में पथ–प्रदर्शक भी रही थी। मीना के बारे में जितने हकीकत बयान हैं, उतने ही अफ़साने भी तैरते हैं। उनको लेकर हर इंसान की अपनी ही कहानी है और हर कहानी का अपना ही अलग जाविया है। कानून का विद्यार्थी कहीं ना कहीं कानून की भाषा बोलता ही है। मीना कुमारी इस दुनिया को तब छोड़ गई जब मेरे इस दुनिया में आने का कोई इमकान भी आसपास नहीं था। इसलिए उन पर लिखने, उनको जानने और उन तक पहुँचने के लिए मुझे द्वितीयक साक्ष्यों से ही गुजरना पड़ा। लिहाजा किताब में लिखी बातें भी फसाना मान कर पढ़ी जानी चाहिए। यही सही होगा, क्योंकि इस किताब में लिखी बातें उतनी ही सच्ची हैं, जितनी मीना की बाबत फैले किस्से।
सवाल – नई वाली हिंदी के पेशेवर–शौकिया लेखक के तौर पर सत्य व्यास के लिए जब ‘पोस्टर ब्वॉय’ शब्द का इस्तेमाल होता है, तो कैसा लगता है?
उ.- राजनीति में, सिनेमा में और कहूँ तो हर क्षेत्र में कोई न कोई चेहरा ऐसा होता है, जो उस विचार का प्रतिनिधित्व करता है। पोस्टर एक विचार का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है। फिर हिंदी में क्यों ना हो! साहित्य में भी यदि किसी खास विशेषता के कारण, अपनी किसी राय या किसी विशेष कंटेंट के कारण यदि आप जाने जा रहे हैं, और फिर आप उस व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, तो निश्चित रूप से आप साहित्य का पाठक वर्ग तो बढ़ा ही रहे हैं। कहीं न कहीं उसके पीछे सृजनात्मकता का विचार तो है ही। इस लिहाज से नई वाली हिंदी के पोस्टर बॉय के रूप में यदि कोई मुझे जाने, तो इसमें बुराई ही क्या है। अच्छा ही लगता है।
सवाल – नये युवा लेखकों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
उ.- देखिए, साहित्य में संभावनाएँ तो अपार हैं, लेकिन साहित्य लेखन इतना आसान काम भी नहीं है। बहुत चुनौतियाँ भी हैं। वहाँ धैर्य की जरूरत होती है और अपने लिखे पर संपादकीय दखल पर सहज रहने और समयबद्ध लेखन की भी परीक्षा होती हैं। पहले खूब पढ़ें, स्वाध्याय करें। फिर यदि आपके पास कोई कहानी है, तो ऐसा लिखें जो एक पेड़ से ज्यादा महत्वपूर्ण हो! क्योंकि एक किताब छापने के लिए एक पेड़ काटना पड़ता है। पेड़ हमें बहुत कुछ देता है। इसलिए ‘स्वांत सुखाय’ लिखिए और अपनी रचना को समय दीजिए। तभी आपके लिए नये आयाम खुलेंगे। मेरी पहली किताब को मैंने पाँच साल का समय दिया। खाली किताब छपवाने के लिए जल्दबाजी में मत लिखिए।
सवाल – सत्य व्यास जी आपने समय दिया, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
उ.- जी बहुत शुक्रिया। और आपको भी बहुत-बहुत शुभकामनाएँ कि आपका लेखन भी इसी तरह लगातार आगे बढ़ता रहे।
शीर्षक महत्वपूर्ण है इसका वैष्णव जी! हम पहले से नहीं समझ पाए थे लेकिन जब पूरा इंटरव्यू बड़ा कब शीर्षक काम है तो समझ में आया और जान पड़ा कि वाकई ऐसा ही लिखना महत्वपूर्ण है। यह कथ्य इस पूरे इंटरव्यू की जान है।
जिस नयी हिंदी को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई उस नयी हिंदी के बारे में जानने की लालसा थी।जो बाद में समझ आई।
एक बात महत्वपूर्ण लगी। हिंदी सबकी भाषा है लेकिन सब लेखक नहीं हो सकते।
नए युवा लेखकों के लिए सत्य जी ने महत्वपूर्ण संदेश दिया है।
इस पूरे इंटरव्यू के दौरान जो बात सबसे अधिक कीमती,सबसे अधिक महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य ही नहीं याद रखने योग्य भी लगी वह यह है-
*”ऐसा लिखें जो पेड़ से ज्यादा महत्वपूर्ण हो, क्योंकि एक किताब छापने के लिए एक पेड़ काटना पड़ता है। पेड़ हमारे लिए बहुत कुछ देता है। इसलिए स्वान्त: सुखाय लिखिये और अपनी रचना को समय दीजिए।”*
सत्य जी को बहुत-बहुत बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ।
आपका शुक्रिया वैष्णव जी इस इंटरव्यू की जानकारी देने के लिये।
शीर्षक महत्वपूर्ण है इसका वैष्णव जी! हम पहले से नहीं समझ पाए थे लेकिन जब पूरा इंटरव्यू बड़ा कब शीर्षक काम है तो समझ में आया और जान पड़ा कि वाकई ऐसा ही लिखना महत्वपूर्ण है। यह कथ्य इस पूरे इंटरव्यू की जान है।
जिस नयी हिंदी को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई उस नयी हिंदी के बारे में जानने की लालसा थी।जो बाद में समझ आई।
एक बात महत्वपूर्ण लगी। हिंदी सबकी भाषा है लेकिन सब लेखक नहीं हो सकते।
नए युवा लेखकों के लिए सत्य जी ने महत्वपूर्ण संदेश दिया है।
इस पूरे इंटरव्यू के दौरान जो बात सबसे अधिक कीमती,सबसे अधिक महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य ही नहीं याद रखने योग्य भी लगी वह यह है-
*”ऐसा लिखें जो पेड़ से ज्यादा महत्वपूर्ण हो, क्योंकि एक किताब छापने के लिए एक पेड़ काटना पड़ता है। पेड़ हमारे लिए बहुत कुछ देता है। इसलिए स्वान्त: सुखाय लिखिये और अपनी रचना को समय दीजिए।”*
सत्य जी को बहुत-बहुत बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ।
आपका शुक्रिया वैष्णव जी इस इंटरव्यू की जानकारी देने के लिये।
बहुत सार्थक साक्षात्कार । नये लेखकों के लिये सलाह बहुत अच्छी लगी । बधाई ।