सुधाकर अदीब हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। भारतीय पौराणिक एवं महाकाव्यात्मक इतिहास पर किए गए अपने औपन्यासिक लेखन से उनकी विशेष पहचान है। इसके अलावा सरदार पटेल पर उन्होंने ‘कथा विराट’ नामक उपन्यास की रचना की है, जिसके लिए हाल ही में उन्हें कथा यूके का ‘इंदु शर्मा कथा सम्मान’ प्रदान करने की घोषणा हुई है। इस अवसर पर पुरवाई टीम ने सुधाकर अदीब से बातचीत की है, जिसे प्रकाशित करते हुए हम अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।     

सवाल – सुधाकर जी, आपका अधिकांश लेखन आमतौर पर मिथक या ऐतिहासिक चरित्रों पर केन्द्रित है। क्या इससे टाइप्ड होने का डर नहीं रहता? जैसे आदरणीय कोहली जी को रामकथा और महाभारत का लेखक ही मान लिया गया है। उनका बाक़ी लेखन इस सबके नीचे कहीं दब गया है।
सुधाकर अदीब – पहली बात तो यह कि मैंने अभी तक समसामयिक विषयों पर आधारित चार उपन्यासों के अतिरिक्त अनेक ऐतिहासिक चरित्रों एवं विषयों पर उपन्यास रचे हैं, यह सही है। इनमें एक ‘मम अरण्य’ उपन्यास सौमित्र लक्ष्मण की जीवन गाथा भी है। परंतु मैं राम, लक्ष्मण आदि ‘रामायण’ के पात्रों अथवा ‘महाभारत’ के पात्रों को मिथकीय चरित्र नहीं मानता। वस्तुतः रामायण, महाभारत, और हमारे अनेक पुराण हमारे इतिहास ग्रंथ ही हैं, इन पर सम्यक रूप से अनुसंधान कार्य अभी हुआ ही नहीं है। भारत का प्राचीन इतिहास अधिकतर विदेशी साम्राज्यवादियों के संरक्षण में विदेशी इतिहासकारों ने मनचाहे ढंग से रचा गया, जिसे आयातित मानसिकता के इतिहास लेखकों ने भी यथावत स्वीकार कर लिया है। विदेशी हमलावरों ने हमारे तक्षशिला, नालंदा जैसे समृद्ध पुस्तकालयों को नष्ट किया, जलाया। अनेक मठ मंदिरों का विद्ध्वंस किया। इनमें हमारे तमाम ऐतिहासिक, धार्मिक, दार्शनिक और इतिहास ग्रंथों की पुस्तकें और पांडुलिपियां स्वाहा हो गईं। कालान्तर में जो कुछ इधर उधर से प्राप्त हुईं, उनका प्रतिलिपिकरण परवर्ती लेखकों और मनीषियों ने किया। इस प्रक्रिया में उनमें दुर्भावना से अनेक क्षेपक भी किन्हीं तत्त्वों ने निहित स्वार्थवश जोड़े। कुछ राज्याश्रयी कवियों, नाटककारों और इतिहासकारों ने उनमें तत्कालीन राजाओं की वंशावलियाँ आदि भी उनमें जोड़ी, संशोधन और परिवर्द्धन किये। इसका परिणाम यह हुआ कि देश के मध्यकालीन और ब्रिटिशकालीन शासकों के समय में उनके इतिहासकारों को भारत के आधे अधूरे प्राचीन इतिहास को मनचाहे ढंग से व्यक्त करने और उसके कालक्रम को भी अपनी सुविधानुसार गढ़ने में काफी आसानी हो गई। हमारे राम, कृष्ण आदि युगपुरुष मिथकीय चरित्र मान लिए गए। हमारे पुराण ग्रंथों में उन्हें इतिहास का कुछ भी अंश नज़र नहीं आया। न ही उसके शोध की कोई आवश्यकता समझी गई। जबकि विशद अध्ययन के उपरांत और भारतीय मनीषी लेखकों इतिहासकारों को भी पढ़ने के उपरांत यह समझ में आता है कि अंग्रेज़ इतिहासकारों और परवर्ती गुलाम मानसिकता के उनके अनुयायियों ने प्राचीन भारतीय इतिहास के कालक्रम  से तो काफ़ी छेड़छाड़ की ही है, उसकी प्राचीनता को लगभग 1300 वर्ष आगे खींच लिया है। बात लंबी हो जाएगी, इसलिए अभी फिलहाल इतना ही। ऐतिहासिक चरित्रों पर लिखना मेरी रुचि का क्षेत्र इसलिए रहा है क्योंकि एक तो मैं हिंदी साहित्य के साथ इतिहास का भी विद्यार्थी रहा हूँ, दूसरे मुझे वृंदावनलाल वर्मा, अमृतलाल नागर, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि के ऐतिहासिक चरित्रप्रधान उपन्यासों ने काफ़ी प्रभावित किया। मैं ऐसे उपन्यासों के सृजन में टाइप्ड हो जाने का कोई ख़तरा महसूस नहीं करता। अगर वह ख़तरा हो भी, तो मैं उस पर रिस्क लेने के लिए तैयार हूँ। क्योंकि मेरा यह मानना है कि आपके समग्र लेखन का उचित मूल्यांकन आपके समय में न भी हो, तो आपके बाद बेहतर होता है।
सवाल – सन 1943 में आपके पितामह श्री प्रेम अदीब ने फ़िल्म ‘राम राज्य’ में भगवान श्री राम की भूमिका को फ़िल्मी परदे पर सजीव किया था। उनके साथ अभिनेत्री काजोल की नानी शोभना समर्थ जी ने सीता की भूमिका निभाई थी। यह शायद एकमात्र फ़िल्म थी जो महात्मा गान्धी जी ने भी देखी थी। क्या मिथक चरित्रों में आपकी रुचि अपने पितामह के कारण बनी?
सुधाकर अदीब – यह सर्वविदित है कि प्रेम अदीब और शोभना समर्थ ने अपने समय में, श्रीराम और माँ सीता के चरित्रों को रजतपट पर सबसे पहले साकार किया था  ‘राम राज्य’ और ‘भरत मिलाप’ जैसी अनेक हिंदी फ़िल्मों में। श्री प्रेम अदीब मेरे पितामह (मेरे पिता के चाचा जी) थे, मुझे इस बात का गर्व है। यह बात भी सही है कि एक बार अपने बम्बई प्रवास के दौरान गांधी जी ने ‘राम राज्य’ फ़िल्म देखी थी। परंतु मैं फिर कहूँगा कि राम सीता आदि को मैं मिथकीय चरित्र नहीं मानता, न ही मेरी मिथकों पर कथालेखन में कोई रुचि है। भारत में अयोध्या से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक, रामेश्वरम के निकट सागर भीतर के रामसेतु लेकर श्रीलंका के अनेक स्थलों तक अनेक भौगोलिक प्रमाण रामायण की ऐतिहासिकता के भी प्रमाण हैं, उनपर लिखे गए साहित्य के अलावा। मैंने जिस प्रकार से शेरशाह सूरी, मीराँबाई और लौहपुरुष सरदार पटेल पर लिखा है, या जैसे आजकल जगद्गुरु आदि शंकराचार्य पर लिख रहा हूँ, वैसे ही रामानुज लक्ष्मण के ऐतिहासिक चरित्र पर भी लिखा था। मेरी ऐतिहासिक उपन्यास लेखन में रुचि का कारण मेरे पूर्वज साहित्यकारों के लेखन का प्रभाव है, न कि मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि।
सवाल – अभी हाल ही में आपके उपन्यास ‘कथा विराट’ के लिये कथा यूके ने आपको अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा की है। आपको तो पहले भी बहुत से सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। इस घोषणा पर आपके भीतर कैसी प्रतिक्रिया हुई?
सुधाकर अदीब – स्वाभाविक रूप से कोई भी साहित्यिक सम्मान एक लेखक के लिए उत्साहवर्द्धन का विषय होता है। ‘ अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान’ अनेक वर्षों से हिन्दी कथाकारों के मध्य एक काफ़ी प्रतिष्ठित सम्मान है। ‘कथा विराट’ उपन्यास के लिए इस सम्मान की घोषणा मेरे लिए भी एक अप्रत्याशित और सुखद अनुभव है। इसके लिए मैं कथा यूके का आभारी हूँ।
सवाल – सरदार पटेल के जीवन के बारे में कभी भी वैसी चर्चा नहीं हुई जैसे कि गान्धी जी या नेहरू जी के बारे में हुई। आपने उन पर उपन्यास लिखने के बारे में कैसे और क्यों निर्णय लिया? आपको उनके जीवन पर शोध सामग्री इकट्ठी करने में कोई समस्याएं सामने आईं?
सुधाकर अदीब – मेरा प्रारंभ से यह मानता है कि शीर्ष व्यक्तित्वों पर तो सभी लिखते हैं, परंतु  हमारे जो बड़े व्यक्तित्व अथवा पूर्वज उन व्यक्तित्वों के गुणगान के चलते इतिहास में उपेक्षित रह जाते हैं, जिन्होंने राष्ट्र, समाज और संस्कृति के लिए उन शीर्ष व्यक्तित्वों के समानांतर ही बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह की थी, उनपर भी लिखा जाना चाहिए। इसका दायित्व भी कवियों, लेखकों और बुद्धिजीवियों का है। इसमें मैथलीशरण गुप्त और शिवाजी सावंत जैसे कवि-कथाकारों का कृतित्व मेरे लिए आदर्श है। महान किंतु उपेक्षित चरित्रों पर लिखना यद्यपि काफ़ी चुनौतीपूर्ण होता है, कभी-कभी यह धारा के विपरीत तैरने के समतुल्य भी होता है, किंतु ऐसा लेखन मुझे बहुत सार्थक और आवश्यक लगता है। सरदार पटेल पर लिखने में कठिनाई का एक पहलू यह तो था ही कि महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, मौलाना आज़ाद आदि की भांति सरदार ने स्वयं पर कोई पुस्तक अथवा आत्मकथा इत्यादि नहीं लिखी। लेकिन उनके लिखे अनेक पत्रों और भाषणों के संकलन सुलभ हैं, जो उनकी जीवंत सोच को दर्शाते हैं। सरदार पटेल आत्मश्लाघा से कोसों दूर, एक अकृत्रिम विचारवान, कर्मठ महापुरुष थे। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उनके उल्लेखनीय कार्य और स्वतंत्र भारत में 550 से अधिक देसी रियासतों के विलय और राष्ट्रीय एकीकरण के दुष्कर कार्य में उनकी अद्वितीय भूमिका के बावजूद, नेहरू के आगे गांधी जी द्वारा की गई उनकी उपेक्षा ने ही मुझे सरदार पटेल पर लिखने की स्वाभाविक प्रेरणा दी।
सवाल – आप तो यू.पी. हिन्दी संस्थान के निदेशक के रूप में कार्य किया है। आपके कार्यकाल में यू.पी. हिन्दी संस्थान ने हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रचार प्रसार के लिये कैसी नीतियों पर फ़ोकस किया? क्या यू.पी. सरकार एवं भारत सरकार से आपके प्रयासों को लेकर सहयोग मिला?
सुधाकर अदीब – निदेशक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ का मेरा कार्यकाल व्यक्तिगत रूप से मुझे सुखद और काफ़ी रुचिकर लगा। प्रदेश सरकार से उत्तम सहयोग मिला। साहित्यकारों को दी जाने वाली सम्मान धनराशि दुगनी किये जाने का संस्थान का प्रस्ताव तत्कालीन शासन ने स्वीकृत किया। भारत सरकार की  इसमें कोई भूमिका नहीं होती है। मेरे समय में, संस्थान में आयोजित होने वाले हिन्दी साहित्यिक विमर्शों के कार्यक्रमो और देश भर में होने वाले अन्य आयोजनों, साहित्यिक पुस्तकों के नियमित प्रकाशन तथा पत्रिकाओं यथा- ‘साहित्य भारती’ और ‘बाल वाणी’ के प्रकाशन के स्तर और उनके नैरन्तर्य पर, संस्थान के रखरखाव के अतिरिक्त, सर्वाधिक ज़ोर दिया गया। इसमें सरकार, तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्षों, लेखकों, पाठकों, श्रोताओं और संस्थान के सहकर्मियों, सभी का, मुझे पर्याप्त सहयोग मिला।
सवाल – हिन्दी भाषा की भारत और विश्व स्तर पर स्थिति के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आपको लगता है कि हिन्दी भाषा में वैश्विक भाषा बनने की संभावनाएं हैं?
सुधाकर अदीब – देश में हिन्दी के उन्नयन के लिए बहुत कार्य हो रहा है। साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं से लेकर सोशल मीडिया तक। वर्तमान भारत सरकार और अधिकांश प्रदेश सरकारें भी हिन्दी के प्रयोग, प्रचार और प्रसार के विषय में जागरूक हैं। अतः हिन्दी के वैश्विक भाषा बनने की अनंत संभावनाएं हैं। बशर्ते हमारी वर्तमान पीढ़ी भावी पीढ़ी को इसके लिए तैयार करने के लिये हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रोत्साहन हेतु शासकीय और शैक्षिक सभी स्तरों पर सतत जागरूक रहें। और हाँ, हिंदी लेखकों के प्रति प्रकाशन जगत और विभिन्न संस्थाओं का भी कृपण और कुछ हद तक पक्षपातपूर्ण रवैया बदले।
सवाल – आपने उपन्यास और कहानियों का तो बेहतरीन सृजन किया है। कहा जाता है कि हर लेखक अपनी शुरूआत कविता से ही करता है। क्या आपने कभी कविताएं लिखने का प्रयास किया है? इसीसे जुड़ा एक सवाल कि आपकी पहली प्रकाशित रचना कौन सी है और कब प्रकाशित हुई थी?
सुधाकर अदीब – वर्तमान में उपन्यास लेखन में मेरी विशेष रुचि है। परंतु कविता मेरी भी प्रारंभिक लेखन विधा रही है। मेरी प्रारंभिक कृतियां चार काव्य संग्रह ही रहे। पर एक बार कथा लेखन की ओर जब मैं प्रवृत्त हुआ तो मेरा रुझान उसी दिशा में बढ़ता गया। मैंने 12 वर्ष की आयु में लिखना शुरू किया था। विद्यार्थी जीवन में कुछ कविताओं और कुछ कहानियों से मेरा लेखन प्रारंभ हुआ था, वे रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में  छपीं। जहाँ तक प्रथम प्रकाशित कृति का सम्बन्ध है, ‘अनुभूति’ 1992 में प्रकाशित मेरा प्रथम काव्य संग्रह था।
सवाल – सुधाकर जी आपको अतीत और वर्तमान दोनों के यथार्थ में पूरी आस्था है। आप बहुत गहरी दृष्टि से मिथक और वर्तमान स्थितियों का वर्णन कर लेते हैं। देखा गया है कि आप अपने आसपास के वास्तविक चरित्रों को कल्पित पात्रों में ढालते हुए अपने सृजन को विस्तार देते हैं। भला ऐसा कठिन कार्य आप कैसे कर पाते हैं?
सुधाकर अदीब – ईश्वर और गुरुकृपा से ही ऐसा कुछ कर पाता हूँ। सामाजिक जीवन के साथ-साथ मेरे विविध प्रशासनिक अनुभवों ने भी लेखन कार्य में मेरी काफ़ी कुछ सहायता की है।
सवाल – हिन्दी भाषा के विस्तार के लिये आप विश्व हिन्दी सम्मेलनों की भूमिका को कैसे देखते हैं? इन सम्मेलनों में हर बार कुछ प्रस्ताव पारित किये जाते हैं। क्या आपको लगता है कि उन प्रस्तावों पर कोई अमल भी किया जाता है या फिर जहां सम्मेलन समाप्त हुआ और प्रस्ताव फ़ाइलों में बन्द हो कर रह जाते हैं?
सुधाकर अदीब – अब तक किसी विश्व हिन्दी सम्मेलन में जाने का मेरा कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। फिर भी जितना कुछ उनके बारे में पढ़ा है, मुझे नहीं लगता कि  हिन्दी के नाम पर कुछ चुनिंदा लेखकों के विदेश पर्यटन से बहुत अधिक कोई सार्थकता सिद्ध की है इन सम्मेलनों ने। हिन्दी यदि वास्तव में आगे बढ़ रही है तो अपने प्रतिबद्ध कवियों, लेखकों और सुरुचिपूर्ण पाठक वर्ग की बदौलत।
सवाल – आप तो मीडिया से भी जुड़े हैं। आजकल टीवी चैनलों में जो आपस में मारकाट मची है और टी.आर.पी. को लेकर मुंबई पुलिस ने जो एफ.आई.आर दर्ज की है, क्या ये स्थिति दुखदाई नहीं है? टीवी चैनलों में मचे शोर और ब्रेकिंग न्यूज़ पर आपकी क्या राय है?
सुधाकर अदीब – अधिकांश टीवी सीरियलों का स्तर कूप-मंडूकता से ऊपर उठ नहीं पाया है, जो कि खेद का विषय है, ऐसा मेरा मानना है। जबकि टीवी न्यूज़ चैनलों का स्तर तो इतना गिर चुका है, जिसकी कभी कल्पना न थी। हाल में मुम्बई की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण हैं। वहाँ नेताओं, अभिनेताओं और उन्हें लेकर अधिकतर चैनल्स का रवैया अवसरवादिता और स्तरहीन प्रलापों और प्रस्तुतियों का हो चला है। ख़बरों पर दिखाई जाने वाली बहस बहुधा अश्लील और घटिया होती है। अतः ऊबकर मैंने इस कोरोना काल में टीवी खोलना ही बंद कर दिया है। बस पढ़ने लिखने में ही सच्चा संतोष मिलता है।
सवाल – आज अधिकांश लेखक सीधे कम्पयूटर पर टाइप करते हैं। काग़ज़ पर कलम से लिखना लगभग समाप्त हो चुका है। क्या आप अभी भी पहले काग़ज़ पर लिखते हैं और फिर टाइप करवाते हैं या फिर सीधे कम्पयूटर पर ही लिखते हैं ?
सुधाकर अदीब – जी हाँ मैं अभी भी परंपरागत ढंग से कागज़ पर ही लिखता हूँ और उसके बाद उसे टाइप करवाता हूँ। फ़ेसबुक आदि के लिए विचार, टिप्पणियां, कविता आदि अपने मोबाइल पर सीधे टाइप कर पोस्ट करता हूँ। मैं कम्प्यूटर अलग से चलाने का अभी भी अभ्यासी नहीं हूँ।

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