मज़ेदार बात यह है कि इंडिया टुडे, आजतक, इंडिया टीवी, एन.डी.टी.वी. जैसे महत्वपूर्ण चैनल भी परमबीर के साथ मिल कर अर्णव गोस्वामी के विरुद्ध चल रहे अभियान पर या तो चुप्पी साधे हैं, या फिर परोक्ष रूप से उसका समर्थन कर रहे हैं। अर्णव की बढ़ती लोकप्रियता से तमाम दूसरे चैनल भयभीत से लगते हैं। इसलिये उन्हें परमबीर सिंह के रूप में एक ऐसा मसीहा दिखाई दे रहा है जो शायद अर्णव को उनके रास्ते से हटा सके।

विश्व के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ होगा कि किसी शहर की पुलिस ने अपने ही शहर के किसी टीवी चैनल के एक हज़ार कर्मचारियों के विरुद्ध एफ़.आई.आर. दर्ज की हो। यह किसी तानाशाही देश में तो संभव हो सकता था… मगर भारत, जहां यह घटना घटी है, एक लोकतांत्रिक देश है और महाराष्ट्र राज्य में जनता द्वारा चुनी गयी सरकार है। 
वैसे कुछ लोग मेरे इस वाक्य पर भी आपत्ति उठा सकते हैं और कह सकते हैं कि महाराष्ट्र में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार नहीं है। जनता ने तो भाजपा एवं शिवसेना का सरकार बनाने का फ़ैसला सुनाया था। यह जो महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार है वो तो मौक़ापरस्त सरकार ही कहलाएगी।… मगर इस संपादकीय का मुख्य मुद्दा यह नहीं है।
मुद्दा है मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह का व्यवहार। सबसे पहले तो परमबीर सिंह सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के चंद घंटे में बिना किसी तहकीक़ात के प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुला कर घोषणा कर देते हैं कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली है। वे मौक़ा-ए-वारदात को सील नहीं करते। जिस व्यक्ति ने बिना पुलिस की इजाज़त के सुंशात सिंह राजपूत को पंखे से उतार कर बिस्तर पर लिटाया उससे कोई पूछताछ नहीं की गयी। रिया चक्रवर्ती को क्लीन चिट दे दी गयी।
रिपब्लिक टीवी के पत्रकारों को मुंबई की सड़कों से उठा लिया गया। ऐसा अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान में तो सुनने को मिलता था कि पत्रकारों को कहीं से भी उठा लिया गया मगर भारत में ऐसी कोई परम्परा नहीं बनी है। यदि 1975 की इमरजेंसी को अलग रखा जाए तो भारत में पत्रकारों का सम्मान और सुरक्षा हमेशा ही सर्वोपरि रही है। परमबीर सिंह को अवश्य ही या तो महारष्ट्र सरकार की शह मिली हुई है या फिर सरकार के आदेश पर ही वे ऐसा कर रहे हैं।
टी.आर.पी. का मामला मुझ जैसे सरल दिमाग़ वाले व्यक्ति को समझ ही नहीं आया। इस प्राइवेट मामले को लेकर मुंबई का पुलिस कमिश्नर यदि एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस करता है और झूठ का सहारा लेकर दर्ज की गयी एफ़.आई.आर. में से इंडिया टुडे का नाम हटा कर रिपब्लिक टीवी पर आरोप लगाता है तो सवाल तो उठेगा ही कि भाई इतनी जल्दबाज़ी किसके लिये। 
6 अक्तूबर को एफ़.आई.आर. दर्ज हुई। और आठ अक्तूबर तक इंडिया टीवी को क्लीन चिट दे कर आऱोप रिपब्लिक टीवी पर मढ़ भी दिया। हमारे पाठक यह जानना चाहेंगे कि टी.आर.पी. के मामले में रिपब्लिक टीवी ने कौन कौन से भारतीय कानून तोड़े हैं और किन किन धाराओं का उलंघन किया है। क्योंकि टी.आर.पी. का मामला पूरी तरह से प्राइवेट एजेंसियां चलाती हैं। 
परमबीर सिंह की मनमानी की पराकाष्ठा तो तब हो गयी जब उसने रिपब्लिक टीवी के एक हज़ार कर्मचारियों के विरुद्ध इकट्ठे एफ़.आई.आर. दर्ज कर दी। और उनसे सवाल पूछे जा रहे हैं कि कितने टॉयलट रोल कितने रुपये में आए;  सैनिटाइज़र, ए-4 पेपर, कॉफ़ी बोतल आदि के दाम पूछे जा रहे हैं। किसी भी सामान्य बुद्धि वाले इन्सान को भी समझ आ जाएगा कि परमबीर सिंह बदले की आग में सुलगते जा रहे हैं।  
पहले दिशा के केस में उनके किरदार पर सवाल उठे, फिर सुशांत सिंह राजपूत के मामले में उन पर उंगली उठी और अब तो हद ही हो गयी जिस तरह का व्यवहार वे रिपब्लिक टीवी और अर्णव गोस्वामी के विरुद्ध कर रहे हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वे अपनी और मुंबई पुलिस की भद्द पिटवाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर रहे हैं। मगर अब जनता समझ रही है और जान रही है कि परमबीर सिंह का अर्थ मुंबई पुलिस नहीं है। मुंबई पुलिस एक सम्माननीय संस्था है और फ़रीदाबाद में जन्में परमबीर सिंह एक खुन्नस से भरे पुलिस कमिश्नर। 
मज़ेदार बात यह है कि इंडिया टुडे, आजतक, इंडिया टीवी , एन.डी.टी.वी. जैसे महत्वपूर्ण चैनल भी परमबीर के साथ मिल कर अर्णव गोस्वामी के विरुद्ध चल रहे अभियान पर या तो चुप्पी साधे हैं, या फिर परोक्ष रूप से उसका समर्थन कर रहे हैं। अर्णव की बढ़ती लोकप्रियता से तमाम दूसरे चैनल भयभीत से लगते हैं। इसलिये उन्हें परमबीर सिंह के रूप में एक ऐसा मसीहा दिखाई दे रहा है जो शायद अर्णव को उनके रास्ते से हटा सके।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

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