एक
रिश्तों  की  टूटन को कितना कम कर देता है
कुछ तो है जो मैं और तुम को हम कर देता है
मिलता  हूँ  तो  हर पल उससे आँख चुराता हूँ
और  तसव्वुर  उसका  आँखें नम कर देता है
पहले ज़ख्मी करता है कुछ अश्क बहाकर वो
अगले ही  पल  अश्कों को मरहम कर देता है
ग़म  को  दिल  में पालो लेकिन इतना याद रहे
बीमारी   से   ज़्यादा  बेबस  ग़म  कर  देता  है
धीरज  रख  सब  देख  रहा  है  वह ऊपर वाला
मेहनतकश को मेहनत का फल जमकर देता है
दो
न जीवन का वो फ़लसफ़ा ढूँढता है
जो  रिश्तों  में केवल नफ़ा ढूँढता है
ज़माने  ने  उसमें  जफ़ाओं  को  ढूँढा
जो  दिल  पत्थरों  मे वफ़ा  ढूँढता  है
तुम्हारी  सज़ा  को  है तन  ने कबूला
ये  मन तो सज़ा की “दफ़ा” ढूँढता है
ख़ुदा उस बशर को न मिल पाएगा जो
ख़ुदा  को  भी  हो कर ख़फ़ा ढूँढता है
हकीकत  में  वो ना मिलेगा मगर दिल
उसे   ख़्वाब   में  हर  दफ़ा  ढूँढता  है
तीन
आँसुओं  से  लिख  रहा  हूँ  हसरतें  पानी  पे  मैं
नाम  तेरा  लिख   रहा  हूँ  अपनी  पेशानी  पे  मैं
हाल-ए-दिल  ग़र  पूछती  हो  तो  ये कहना है मुझे
चंद  नज़्में  लिख  रहा  हूँ  दिल  की  वीरानी  पे मैं
ज़िंदगानी  की  ग़ज़ल  में  भी  तो  हम  तुम दूर हैं
ज़िक्र  तेरा  कर  चुका  हूँ  मतला-ए-सानी  पे  मैं
दौर-ए-हाज़िर   के  जुनून-ए-इश्क  पे  हैराँ  है  तू
और   हैराँ    हो   रहा   हूँ   तेरी   हैरानी   पे   मैं
जिस्म-ए-फ़ानी पर ही लिखकर थक चुकी मेरी क़लम
पूछती   है    कब   लिखूँगा   इश्क-ए-रूहानी   पे   मैं
चार
लगता  है  पतवारों  से मिलवाता है
जब ईश्वर कुछ यारों से मिलवाता है
मस्त  हवा के झौंकों का आवारापन
ज़ुल्फों को रुख़सारों से मिलवाता है
इंसानों  को  सिर्फ़  डराना ठीक नहीं
डर अक्सर हथियारों से मिलवाता है
पहले प्रेम मिलाता था पर इस युग में
लालच   रिश्तेदारों  से  मिलवाता  है
अफ़वाहों  का दौर किसी भी मौसम में
तीली   को   अंगारों   से  मिलवाता  है
पाँच
उनके आगे  हम भला उतने ज़ियादा कब खुले
बोलने को आँख से बढ़कर हैं जिनके लब खुले
तेज दोपहरी हो चाहे  सुब्ह हो या शाम हो
रात होना तय है  तेरी ज़ुल्फ चाहे जब खुले
कश्मकश में हूँ कि मैं किस रंग का तोहफ़ा चुनूँ
रंग  जितने  हैं  जहाँ  में तुझ पे सब के सब खुले
वस्ल  की  रातें मिलें या  हिज्र  की रातें सही
राज़ उनके दिल का  मेरे सामने या-रब खुले
दिल के दरवाज़े पे दस्तक हो गई  वह खुल गया
ये नहीं वो शय कि जब तुम चाह लो बस तब खुले
पत्थरों  की  चोट  से  तब  तब  हमें तोड़ा गया
आईना बन कर किसी के सामने जब जब खुले
छः
हवा  के  साथ मिलकर पंछियों के पर को ले डूबा
तरक्की का धुँआ धरती तो क्या अंबर को ले डूबा
सभी  को छोड़कर पीछे हमें आगे निकलना था
जुनूँ  आगे निकलने का ज़माने भर को ले डूबा
तभी   से  ही  न  कोई  सूर  मीराँ  जायसी  जन्मा
बदलता  दौर  जबसे  प्रेम  के आखर  को ले डूबा
जिसे  खुद  को  मिटाकर  भी बुजुर्गों ने सहेजा था
कि  बँटवारा  हमारे  गाँव  के  उस  घर  को ले डूबा
ज़माने  हो  गए  बदली नहीं अख़बार की फ़ितरत
किसी का डर बढाता है किसी के डर को ले डूबा

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.