मैं समुन्दर से उछाली इक लहर सी

डूबती,उतराई सी चलती रही हूँ

मोह पाले, राग पाले, द्वेष पाले

और भ्रम के जाल में पलती रही हूँ

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कामनाओं के शहर में बीज बोए

और सींचा है उन्हें झूठे अहं से

फिर उठाकर पोटली सिर पर धरी ज्यों

आत्म रस में भीगकर संबंध खोए

जलजलों की बाढ़ देखी

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मोतियों को चली चुनने

कुछ सफ़र अनजान पाकर

मैं चली कुछ गीत बुनने

बहुत खारा था समुन्दर

आँख में वो आ भरा था

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और ठिठुरी कोशिशों में

अहं पाले वो ठरा था

था समुन्दर बहुत खारा

पर कहीं कुछ कह रहा था

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सीख देता था सभी को

फिर भी मन रीता हुआ था

भाव की अमराइयों में

गीत की तन्हाईयों में

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कुछ विगत परछाइयों में

और मन की खाइयों में

यूँ सदा दर्पण बजाता सांकलें था

हमने रूई कान में ठूंसी हुई थी

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बस यही कुछ आदतें पलती थीं दिल मे

और मन के द्वार पर कुछ सनसनी थी

समय तो देता रहा चेतावनी फिर

आँख हम ही मूंदकर चलते रहे हैं

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और जब हम खुद किनारे आ गए तो

बहम के सारे झरोखे खुल गए हैं

आस के सिक्के भरे थे झोलियों में

दाल चूल्हे पर चढ़ी पर अधगली थी

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बुदबुदाती, खदबदाती भावना में

साँस सिरहाने पे जाकर के खड़ी थी

कितने सिक्के हैं बटोरे आरज़ू के

फिर भी रीते हाथ रह जाते सभी के

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अब मुसाफ़िर ठहर जा गर तेरे बस में

मौन मुखरित हो गए हैं अब रवि के

पूरे जीवन यातना को है पछाड़ा

खिलखिलाते प्राण डूबे बंदगी में

फिर भी रीति ही रही हैं झोलियां सब

और हम बेबस हैं जाने किस गली में—-||

हिंदी में एम.ए ,पी. एचडी. बारह वर्ष की उम्र से ही पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. अबतक कई उपन्यास. कहानी और कविता विधा की पुस्तकें प्रकाशित. अहमदाबाद में निवास. संपर्क - pranavabharti@gmail.com

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