नासिरा शर्मा हिन्दी की महत्वपूर्ण कथाकार हैं। मगर वे कवि-ह्रदय भी रखती हैं। यहां प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएं। पहली कविता ‘प्रकृति का गीत’ वर्तमान कोविद-19 के हालात के मद्देनज़र लिखी गयी है। यह कविता इस मामले में भी उल्लेखनीय है कि यह कहीं कोरोना और महामारी जैसे नारेबाज़ी वाले वाक्य इस्तेमाल नहीं करती है। हमारे युवा कवियों के लिये एक उदाहरण तय करती है यह कविता कि बिना कहे क्या कुछ कहा जा सकता है। स्थूल और सूक्ष्म का अंतर करती है यह कविता। – (संपादक)

1- प्रकृति का गीत
जब सब परेशान और बेहाल हैं ।
उस समय यह क़तारों में खड़े चुपचाप दरख़्त !
राहत की लम्बी साँसें खींच,
मुद्दतों के बाद आज वह सब के सब।
फैला कर अपनी हरी शाखाओं के डुपट्टे,
लहरा रहे हैं नीले आसमान की तरफ़।
हवा के न्योते पर आईं चिड़ियाएँ,
डाल-डाल पर फुदकती चहचहाती हुई।
उतरतीं हैं सब एक  ख़ास अदा के साथ,
घाँस के मख़मली मैदानों पर ।
चुगती हैं जाने क्या-क्या,
फिर सब्ज़ टहनी पकड़ झूलती हुई।
लेती हैं पेंगे बादलों के घेरों की तरफ,
बतियाती हैं जाने कहाँ कहाँ के क़िस्से ।
कैसा बदला है यह ज़माने का चरखा ?
जब सब बंद हैं, घरों में उदास और फ़िक्रमंद।
मौसम भी हो उठा है अनमना सा,
कभी बारिश, कभी गर्मी , कभी आँधी-धक्कड।
देख कर बेवक़्त की तड़ातड़ गिरती ,
मेंह की बूँदों को।
दरख़्तों ने फुनगी से लेकर जड़ तक,
धो डाली सारी धूल और मिट्टी अपनी।
खिली धूप की पिलाहट में,
झूमते पेड़ों ने झटक कर अपनी,
आकाश की नीली अलगनी पर,
फैला दी अपनी शोख़ पत्तियाँ सारी।
जब अपने -अपने घरों से दूर,
फँसें हैं जहाँ -तहाँ सब लोग ।
भूखे हैं,बीमार हैंऔर निराश ।
तो उड़ती हैं चिड़ियाएँयह कहती हुई,
कैसी ताज़ा हवा ,न बू न धुआँ,न हार्न का शोर!
मज़ा है अब अपने घोंसले बनाने का,
जब आसमाँ भी अपना और ज़मीन भीअपनी।
दरख़्तों ने सुना ,और  झूम कर यह कहा,
‘खड़ा हूँ मैं ,अरसे से यहाँ ।
न समझो ! यह दुनिया अकेली हमारी रहेगी ,
जो देखा है वह सब,कल कहानी बनेगी।
2- ज़ुलैख़ा…
न जाने क्यों में उसकी तस्वीरें, नेट पर देख कर
महसूस करती हूं, जैसे वह मिस कर रहा है मुझे, बुरी तरह
तन्हा पहाड़ों, मैदानों और वादियों में खड़ा अकेला
लगता है जैसे भेज रहा है सन्देसा मुझे
जगह ख़ाली है तुम्हारी इन फ़िज़ाओं में
चली आओ धड़कनों के सहारे तुम यहां।
जब भी कभी हम मिलते थे आमने सामने
उस में तब न प्यार की आहट थी न कोई तहरीर
न वायदा, न बातें, न थी आँखों से पैग़ाम रसाई
चला गया जब वह मुझ से दूर, तो अंकुरित हुआ यह प्यार
धड़कता है दिल अक्सर, जब तैरती हैं तस्वीरें उसकी
मेरी आँखों के दरीचों में, अहसास की चिलमन बन कर।
क्या हो गया है मुझे, पूछती हूं ख़ुद अपने से
क्या अचानक सितारों ने बदली है जगहें अपनी
या फिर यह है फ़ितूर मेरे ख़ाली दिमाग़ का
या जी उठी है ज़ुलैखा. शताब्दियों बाद मेरे अन्दर
यह कैसे हुआ जादू और मैं जान गयी सब कुछ जैसे
कि वह क़ुदरत की तनहाई में खड़ा कर रहा है मरे इन्तज़ार। 

2 टिप्पणी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.