Friday, October 11, 2024
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अलका सिन्हा की डायरी पुस्तक ‘रूहानी रात और उसके बाद’ का लोकार्पण और परिचर्चा

प्रस्तुति : डॉ. बरुण कुमार
अलका सिन्हा की डायरी कहानी का सा आनंद देती है
सुविख्यात चिंतक, समीक्षक एवं महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर गिरिश्वर मिश्र ने 31 अगस्त, 2024 की शाम, राजधानी स्थित साहित्य अकादेमी सभागार में अलका सिन्हा की डायरी पुस्तक ‘रूहानी रात और उसके बाद’ का लोकार्पण करते हुए अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि अलका सिन्हा की डायरी अनेक विधाओं को साथ लिए चलती है और समग्रता में यह डायरी कहानी का सा आनंद देती है। इसमें लंबी यात्राएं हैं तो कोविड जैसे जीवन के कठिन प्रसंग भी शामिल हैं। प्रो. मिश्र ने रचना और उसके माध्यम से लेखिका के व्यक्तित्व की विशेषताओं का उद्घाटन करते हुए कहा कि पुस्तक में व्यक्त अनुभवों से अलका सिन्हा का वह व्यक्तित्व दृष्टिगोचर होता है जो संवेदनशील है, विचारशील है और सबसे बड़ी बात, मानवीयता से परिपूर्ण है।
प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘कस्तूरी’ द्वारा उनकी महत्वपूर्ण श्रृंखला ‘किताबें बोलती हैं — सौ लेखक, सौ रचना’ के अंतर्गत प्रसिद्ध कवि-कथाकार अलका सिन्हा की, किताबघर से प्रकाशित डायरी पुस्तक ‘रूहानी रात और उसके बाद’ पर आयोजित परिचर्चा कार्यक्रम में प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव, प्रो. सत्यकेतु सांकृत और सहायक प्रोफेसर श्रीमती चैताली सिन्हा ने अपने विचार व्यक्त किए।

डायरी लेखन की परम्परा की महत्वपूर्ण कड़ी

समीक्षक एवं सहायक प्रोफेसर चैताली सिन्हा ने देश-विदेश में डायरी लेखन के आरंभिक सूत्रों का संधान करते हुए परिचर्चा का आरंभ किया और भारत के विभिन्न साहित्यकारों द्वारा लिखी गई डायरी का उल्लेख किया। उन्होंने ‘रूहानी रात और उसके बाद’ को डायरी लेखन की परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी बताया।

तन्मयता से व्यक्त हुआ है अंतरालाप 

मुख्य वक्ता के रूप में आलोचक प्रो० सत्यकेतु सांकृत ने डायरी लेखन की विधागत विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा कि मोबाइल-इंटरनेट के बाद पत्र लेखन समाप्त होता गया है और डायरी केन्द्र में आती गई है। संवाद के मशीनी साधन उपलब्ध हो जाने के बाद से संवाद की दिशा अंतर्मुखी हो गई है। डायरी लेखक का स्वयं से संवाद है।

डायरी में निजता की भाषा होती है और यह एक तरह का अंतरालाप है। अलका सिन्हा की विवेच्य पुस्तक में यह अंतरालाप तन्मयता से व्यक्त हुआ है। लेकिन यह सिर्फ निज तक सीमित नहीं रहता, उसमें दुनिया और समाज की चिंताएँ भी जगह पाती हैं। उन्होंने पुस्तक में यात्रा-आधारित संस्मरणों की ओर इंगित करते हुए उसके कुछ विचारोत्तेजक और मार्मिक प्रसंगों का उल्लेख किया।
जो सुंदर है उसे बचा लेने की जद्दोजहद
मुख्य अतिथि के रूप में कवि एवं आलोचक प्रो० जितेन्द्र श्रीवास्तव ने पुस्तक में वर्णित अनुभवों का गंभीरता से विश्लेषण करते हुए इस बात को रेखांकित किया कि इस पुस्तक में संश्लिष्ट जीवन का कोई रोना नहीं रोया गया है, बल्कि संश्लिष्टता के बीच जो सुंदर है उसे बचा लेने की जद्दोजहद है। उन्होंने इस डायरी की ईमानदारी की प्रशंसा करते हुए कहा कि इसमें भावुकता, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ स्त्री प्रतिरोध भी घटित हो रहा है। उनके अनुसार, यह पुस्तक उनके लिए नहीं है जो सिद्धावस्था को प्राप्त कर ज्ञानी बन चुके हैं, बल्कि यह पुस्तक उनके लिए है जिनमें अभी उत्सुकता और जिज्ञासा बची हुई है, जो जीवन और जगत को अभी और जानने-समझने के लिए यत्नशील हैं।
लेखिका अलका सिन्हा ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि उनके लेखन की शुरुआत चिट्ठियों से हुई थी, और डायरी के ये पन्ने उन्हीं अनुभवों का विस्तार हैं। लेखिका का अपनी डायरी से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रसंग साझा करते हुए आर्द्र हो जाना सभागार में उपस्थित श्रोताओं के मन को छू गया।

कार्यक्रम का आरंभ दिव्या जोशी के स्वागत वक्तव्य से हुआ। मनु पाण्डेय ने पुस्तक से एक अंश का बहुत ही सुंदर पाठ प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन साहित्य एवं कला अध्येता विशाल पाण्डेय एवं धन्यवाद ज्ञापन प्रियंका तिवारी द्वारा किया गया।

इस अवसर पर अनेक गणमान्य विद्वान, कवि, लेखक, शिक्षाविद एवं साहित्य अध्येता उपस्थित थे जिनमें साहित्य अकादेमी के सचिव डॉ. श्रीनिवास राव, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, ममता किरण, अनिल जोशी, सरोज शर्मा, नरेश शांडिल्य, अनिल मीत, शशिकांत, नलिन विकास, डॉ. बरुण कुमार, रूमा शर्मा, डॉ. विजय कुमार मिश्र, डॉ. महेंद्र प्रजापति, कल्पना मनोरमा, वंदना बाजपेयी, डॉ. नीलम वर्मा, डॉ. अनिता वर्मा, अर्पणा संत सिंह, सुनीता पाहूजा आदि शामिल थे।
 
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डॉ. बरुण कुमार
[email protected] 
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2 टिप्पणी

  1. वास्तव में डायरी ऐसी विधा है जो बहुत अंतरंग होती है। पूरी तरह से निजी। अपनी सोच ,अपने विचार, अपने द्वारा, अपने लिये। इसीलिए वह डायरी लेखक के व्यक्तित्व काआईना होती है।
    जब हम उसमें अपनी स्थितियों का, घटनाओं का, अपनी भाषा में लेखन करते हैं तो कहानी के निकट हो जाती है, इसीलिए रुचिकर भी लगती हैं। पाठक जानता है कि हम उसे पढ़ रहे हैं जिसे हम जानते हैं और उसे पढ़ते हुए और अधिक जानने की प्रक्रिया में रहते हैं।
    अच्छी परीचर्चा!अलका जी को बहुत-बहुत बधाई।

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