समीक्षक – डॉ अन्नपूर्णा सिसोदिया
अपने नाम के अनुरूप हिंदी साहित्य के असीम फलक को अपनी सृजन रश्मियों से आलोकित करने वाली विलक्षण रचनाकार उषाकिरण खान वर्तमान समय में हिन्दी एवं मैथिली साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। प्रकृति की मनोरम क्रीडास्थली, सघन वन संपदा से आच्छादित सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक रूप से समर्द्ध  मिथिला प्रदेश से उनके आत्मीय साहचर्य के दर्शन उनकी रचनाओं में किए जा सकते हैं। संपूर्ण मिथिलांचल अपनी लोक संस्कृति, परंपराओं, बोली, लोकगीतों और लोक संस्कारों की गमक लिए ऊषा जी की रचनाओं में झांकता नजर आता है।
            अपनी संस्कृति और इतिहास के प्रति अनुराग और सहजता से जुड़े होने के यह संस्कार उषा जी को मिथिलांचल से प्राप्त हुए हैं।अपने परिवेश और समाज के प्रति सम्वेदनशील उषा जी की लेखनी में विद्वत्ता के साथ शोधपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, इतिहास के प्रति जिज्ञासा और उसे एक रचनाकार की दृष्टि से देखने- रचने का सामर्थ्य, तथा संवेदनशीलता का अद्भुत मिश्रण है। उनकी रचनाओं में रचनाकार का प्रश्न गौण हो जाता है, शब्द स्वयं अपना यथार्थ कहने लगते हैं और पाठक उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर उनके सम्मोहन में बंधा रहता हैं।
              वर्तमान समय में ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी हैं, क्योंकि ऐतिहासिक उपन्यास लिखना एक शोध पूर्ण दुष्कर कार्य है, ऐसे में उषाकिरण खान के ऐतिहासिक उपन्यास उनके लेखन के प्रति समर्पण और इतिहास के प्रति उनके रुझान को दर्शाते हैं। मैथिल कोकिल के नाम से विख्यात मैथिली के महाकवि विद्यापति का जीवन सदैव से साहित्य मर्मज्ञों के लिए जिज्ञासा का केंद्र रहा है। ‘सिरजनहार’ उषाकिरण खान जी का महाकवि विद्यापति के जीवन के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करने वाला ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक घटनाओं एवं परिस्थितियों को रचनाकार ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि और सर्जनात्मक कौशल से एक कालजयी कृति का रूप प्रदान किया है।
              महाकवि विद्यापति की जीवनी को शब्दबद्ध करता यह उपन्यास जब पाठक पढ़ना प्रारंभ करता है तो विद्यापति के साथ समूचे मिथिला प्रदेश के इतिहास की वह घटनाएं, जो कालचक्र के पहियों में दबकर कहीं खो गई थी, यकायक मानो जीवंत हो उठती हैं। उषा जी की कलम कभी गढ़ बिसफी में पंडित गणपति ठाकुर के आंगन में नट,नटनियों और पामरियों के साथ गीत गाती है,तो कभी विद्यापति के उनकी पत्नी द्वय के साथ प्रेम और रति पर रीझती है, कभी गजरथपुर के राजप्रासाद में राजा शिव सिंह,पट्टमहिषि लखिमा और राजपंडित विद्यापति के साथ मंत्रणा करती है,तो उसी भवन में उगना के नृत्य पर झूम उठती है, कभी बनारस के घाट पर गंगाजल आचमन करती है, तो कभी राजबनौली के प्राकृतिक सौंदर्य पर मोहित होती है और दूसरे ही पल राजा शिव सिंह के विरह में उसी सौंदर्य को अपनी करूणा से विगलित करती है, एक ओर जहाँ मिथिला के वैभवशाली दिनों की झांकी सजाती है वहीं दूसरी ओर मुस्लिम आक्रांताओं से त्रस्त उसके दुर्दिनों की साथी भी बनती है।
             उषाकिरण खान का उपन्यास ‘सिरजनहार’ महाकवि विद्यापति के संपूर्ण जीवन का चित्र प्रस्तुत करता है। महाकवि विद्यापति एक महान शिव भक्त थे, उनका जीवन उतार-चढ़ाव, द्वंद और संघर्षों से परिपूर्ण रहा। उपन्यास में विद्यापति एक भक्त होने के साथ, एक रसिक प्रेमी के रूप में भी दिखाई देते हैं। एक ओर जहाँ वे उगना के वियोग में अपनी सुध बुध खोकर जंगल-जंगल भटकते हैं, वहीं दूसरी ओर राज पंडित के रूप में अपने राजा को विषम राजनीतिक परिस्थितियों में अपनी सूझबूझ से उबारते हुए भी दिखाई देते हैं। एक योद्धा के रूप में वे युद्धरत होते हैं और अगले ही पल एक संवेदनशील कवि के रूप में पद रचना करते हैं। कभी बैरागी, कभी फक्कड़ घुमंतु किंतु इन सबसे बढ़कर एक श्रेष्ठ संवेदनशील मनुष्य के रूप में सिरजनहार के नायक के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करने में उषा जी पूर्णतः सफल रही हैं।
            समाज में व्याप्त विसंगतियों के विरुद्ध समाज परिवर्तन हेतु नवीन संदर्भों की तलाश एक सच्चे रचनाकार का धर्म है, उषा जी की सर्जना भी नवीन चेतना की वाहक बन सिरजनहार के नायक के माध्यम से अपना विरोध दर्ज कराती है। तत्कालीन समाज में बाल विवाह और विधवाओं की दयनीय दशा को बेला और यामिनी के माध्यम से दर्शाया गया है,जो दुष्कर्म के पश्चात वैश्या का जीवन जीने को अभिशप्त हैं। विधवा कामिनी से शहजादे आदिल के विवाह का विरोध होने पर विद्यापति, पंडितों के समक्ष समाज में स्त्रियों के प्रति होने वाली अमानवीयता पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहते हैं-“आपको ज्ञात है की काशी, अयोध्या, वृंदावन जाने वाली हमारी बाल-विधवा कन्याएं मात्र दासिन बनकर नकली पंडों की यौनक्षुधा की भोग नहीं बनती, वह कोठे पर नाचने वाली भी बन जाती हैं। कई नवाबों तथा अमीर-उमराओं की रखैल भी बनती हैं तब हमारा धर्म क्या कहता है?”।                                                                                                                          “नहीं,
परंतु अपने धर्म की रक्षक इन बाल विधवाओं के संबंध में विचार करें। क्या इतने प्राचीन, गूढ़ धर्म का भार इनके कमजोर कंधे पर लादना उचित है?”(पृ.सं.१९५)
           समाज में स्त्रियों की दशा से व्यथित विद्यापति की पीड़ा और रूढ़ियों को न तोड़ पाने की विवशता इन शब्दों में प्रकट होती है-“देवी दुर्गा की स्थापना कर पूजा-अर्चना करते हैं, स्त्री की शिक्षा तथा सुख की ओर से आंखें बंद कर लीं।”                                                                                     
“यही तो मैं कह रहा हूं कि रूढ़ियों को विवेक से तोड़ नहीं पा रहा हूं।”।                                
“क्या हम अपनी रूढ़ियों को तोड़कर इस पर विराम नहीं लगा सकते? यह हमारी कन्याएं हैं, हमारी रक्त-मांस-मज्जा।”(पृ.सं.२१७)
              महारानी विश्वास देवी अपने पति महाराज पद्म सिंह के साथ सती होने के लिए चिता पर बैठी हैं, विद्यापति समय पर पहुंच कर उन्हें सती होने से रोक लेते हैं, वे रानी को कर्तव्यबोध कराते हुए कहते हैं -“शिक्षिता नारी हैं, आप स्वयं समझती हैं सती होना वेद विहित नहीं है। इसे जिस किसी समुदाय ने महिमामंडित किया, उनका कोई स्वार्थ होगा। महारानी मैंने मैथिल समाज में यह देखा न सुना। आप कर्तव्यच्युत न हों। प्रजा आपकी ओर देख रही है। राजमुकुट स्वतः आपका है, जिसका मान रखना है आपको।” (पृ.सं.३५०) और महारानी चिता से उतर आईं।
            वह रचनाकार ही क्या जो बंधी हुई लीक का अनुगामी बने, वह तो स्वच्छंद निर्झर की भांति सदैव बहता है, विद्यापति की इसी विद्रोही प्रवृत्ति से चिंतित कालिंदी विचारती है-“बनी हुई लेख पर चलते हुए भी इन्हें घुटन अनुभव होती। इनके मुंह से सदा कन्याओं की दुर्गति की चर्चा सुनती, वे कन्याओं की दुरवस्था का कारण पुरुषों की पुराणपंथी मानसिकता को मानते।वे सतत प्रयत्नशील रहते कि वेद की व्याख्या करें, वेदकाल के अनुसार समाज का पुनर्निर्माण करें।”(पृ.सं.३५८)उषा जी ने सिर्फ समस्याओं का वर्णन ही नहीं किया वरन् उनके समाधान का प्रयास भी किया है।
             मिथिला के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश पर मुस्लिम आक्रांताओं के प्रभाव को दर्शाते हुए लेखिका ने बलात् धर्म परिवर्तन, हिन्दू समाज और राज्यों पर उनके अत्याचारों का चित्रण किया है। एक काष्ठकार युवक का स्वर्णकार युवती से अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा, सती प्रथा का विरोध, पितृसत्तात्मक पुरातनपंथी परम्पराओं का विरोध आदि समस्त प्रसंग लेखिका की प्रगतिशील दृष्टि एवं एक स्वस्थ समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के परिचायक हैं लेकिन लेखिका की यह प्रगतिशीलता पंरपरा विहीन नहीं है।
             मिथिलांचल के लोकजीवन की गहन समझ और साहचर्यजन्य अनुभव उषा जी के रचे लोकांचल से पाठकों को सहजता से जोड़ती है। चावल के पीठे के बने अरिपन,चावल,हल्दी और दूब से खोइचा भरना,जन्मादि,शौच आदि संस्कार, वर्षा के लिए मेढ़क-मेढ़की का विवाह,सामा-चकवा, बटगवनी, कोहबर और लोकगीत आदि उपन्यास के पृष्ठों से निकल कर कब पाठक के मन-मस्तिष्क पर आरोपित हो जाते हैं,पता ही नहीं चलता।
            लोकभाषा मैथिली के प्रति अनुराग ने ही विद्यापति को एक जनप्रिय महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित किया, राजपंडित परिवार के उत्तराधिकारी, संस्कृत के प्रकांड विद्वान विद्यापति ने अपने गुरु,पितामह और तत्कालीन कुलीन ब्राह्मणों का विरोध सहकर भी जनसामान्य द्वारा बोली जाने वाली मैथिली में काव्य रचना की और सिर्फ मिथिलांचल ही नहीं वरन् सम्पूर्ण भारतवर्ष के हृदय में अपनी रचनाओं के माध्यम से सदा के लिए अमर हो गए।
              सिरजनहार में मैथिली और लोकभाषा के देशज शब्दों के साथ, संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली भी सहज रूप से प्रभावित करती है,वह कहीं से थोपी गई नहीं लगती,पात्रानुसार भाषा एवं संवाद रचना कथ्य को प्रभावी बनाती है। हाँ, इतना अवश्य है कि कथानक का अत्यधिक विस्तार कहीं-कहीं संप्रेषणियता और रोचकता में बाधक प्रतीत होता है, साथ ही महाराज शिव सिंह और विद्यापति जैसे महाज्ञानी का किसी अनजान रमणी के प्रथम स्पर्श मात्र से ही संयम खो देने के प्रसंग थोड़ा असहज अवश्य करते हैं किन्तु लेखिका अपने लेखकीय कौशल से पाठकों के मानस पर गहरी छाप अंकित करने में सफल होती हैं। 
         ‘सिरजनहार’ महाकवि विद्यापति का जीवनीपरक ऐतिहासिक उपन्यास मात्र नहीं है, यह उपन्यास तत्कालीन परिस्थितियों से साक्षात्कार तो करवाता ही है, साथ ही रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए एक स्वस्थ और सर्वजनहिताय  समाज की स्थापना की आकांक्षा भी करता है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित उषा जी के इस प्रसिद्ध उपन्यास ‘सिरजनहार’ को  कुसुमांजलि पुरस्कार- 2012 (कुसुमाजलि फाउंडेशन दिल्ली), पं. विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार-2014, विद्याश्रीनिवास, वाराणसी (उत्तर प्रदेश), ब्रजकिशोर प्रसाद पुरस्कार, 2015 में प्रदान किया गया। मैथिली के माधुर्य से परिपूर्ण यह उपन्यास अपनी उपस्थिति से हिन्दी और मैथिली साहित्य को समृद्ध तो बनाता ही है पाठकों को भी सदा अपने मोहपाश में बांधने में सक्षम है।

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