Tuesday, October 8, 2024
होमलघुकथाहरदीप सबरवाल की लघुकथा - आस्था

हरदीप सबरवाल की लघुकथा – आस्था

शहर से करीब बारह किलोमीटर दूर स्थित स्कूल में एक साथ अध्यापिकाएं लगी हुई थी। वो पांचों एक ही शहर से थी तो बस के झंझट से बचने को एक कैब लगवा ली थी। सरकारी नौकरी, तनख़ाह अच्छी, तो कैब का बढ़ा हुआ खर्च चुभता नहीं था। साथ आने जाने की वजह से अच्छी दोस्ती भी हो गई थी उन सब में, खास कर गणित वाली नीरू और सामाजिक विज्ञान वाली गरिमा मैम में। उनके घर भी ज्यादा दूर नहीं थे,
आज रास्ते में बहुत ज्यादा भीड़ और ट्रैफिक देख सब ने ड्राइवर से पूछा, “ क्या बात इतनी भीड़ क्यों है आज?”
“वो फलां संत जी है ना,आज उनकी यात्रा है यहां से, सभी लोग उनके दर्शन करने के लिए खड़े, लीजिए यात्रा आ भी गई”, ड्राइवर ने चौराहे की तरफ इशारा करके कहा।
संत जी एक खुले वाहन में सबका अभिनंदन कर रहे थे, सभी उनकी तरफ देखने लगे। गरिमा मैम का सर श्रद्धा से झुक गया, वो आनंदित हो बोल उठी, “ कितना नूर है उनके चेहरे पर, कैसे चमक रहा है चेहरा!”
नीरू मैम जो तार्किक थी एक दम से बोल उठी, “ वो जैसी खुराक लेते है, और जैसा उनका रहन सहन है, वैसा किसी का भी हो तो वैसी चमक उसके चेहरे पर भी आ जाए।“
गरिमा एक दम से गुस्से से तिलमिला उठी, “ यह जूती देखी है मेरे पांव में, दोबारा ऐसा बोला तो सीधे मुंह पर मारूंगी”
नीरू इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से हतप्रभ और लगभग सुन्न रह गई। उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे, साथ बैठी अन्य अध्यापिकाएं भी इधर उधर झांकने लगी। अपमानित सी नीरू कैब से बाहर झांकने लगी।
 आस्था ने तर्क को पूरी तरह सुन्न और अपमानित कर दिया था…
RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest