इस वर्ष राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान से तीन कहानियाँ सम्मानित की गईं, जिनमें से सम्मानित दो कहानियाँ यहाँ अपने पाठकों के लिए साझा कर चुके हैं। इसी क्रम में आज तीसरी सम्मानित कहानी, जो कि युवा लेखिका ट्विंकल रक्षिता की है, भी साझा कर रहे हैं। बीते दिनों हंस द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इन कहानियों को सम्मानित किया गया।
(कहानी की हर बात झूठ हो सकती है पर हर झूठ की डबल सच्चाई है…)
यहाँ भी बिखरी है एक कहानी…चट्टान की तरह| ताज्जुब होता है चट्टान को चादर में लिपटा देखकर…आँगन के बीचो-बीच…, क्या ये वही चट्टान है जो कभी नहीं पिघली और आज अचानक से लुढ़क गई… लेकिन ऐसा कैसे? मैंने कसम खाई थी कि इस चट्टान को हजार टुकड़ों में तोडूंगी,इसके हाथ पैर थे… आंखे थी, मैं जहां भी जाती वो उसी रास्ते पर खड़ी मिलती, कभी आंख दिखाती तो कभी दांत… कभी-कभी तो हद हो जाती जब कई रातें बिना सोए गुजारनी पड़ती… क्योंकि अक्सर ये हाथ मुंह वाली चट्टान कपार पर सवार रहती थी… आज भी याद करती हूं वो दोपहरी जब उस चट्टान के टूटने और ढहने पर मुझे कोई दुख नहीं हुआ, ना दर्द… हाँ,गुस्सा आया था और आज भी आता है कि बिना मेरे तोड़े वह कैसे टूट गई?मैं कोई देवी नहीं… और ना ही बनने का शौक है, हां मैं बदले में विश्वास रखती हूं… मैं जैसे को तैसा लौटाना चाहती हूं… मैं उस चुभन का एहसास उस चट्टान को कराना चाहती थी जो सोलह साल पहले मुझे मिली… मैं खुश थी उस दिन क्योंकि उसकी आवाज़ हमेशा के लिए बंद हो चुकी थी, याद आता है वो दिन… जिस दिन मैंने कसम खाई थी कि इसे बोलने लायक मैं नहीं छोड़ने वाली… पर मैंने सुना कि वो तथाकथित आदमी अंत समय में भी गालियों के साथ नए नए प्रयोग कर रहा था और धड़ल्ले से उसमें मुझे और अपनी बीबी को शामिल कर रहा था… वैसे लोग कह रहे थे कि मैं उसे गंगाजल पिला दूं , इकलौती बेटी हूं उसकी … वरना उसकी आत्मा भटकेगी, पर मैंने नहीं पिलाया गंगाजल… मैं चाहती थी वो भटके… बार-बार भटके … हजार-बार उसकी मौत हो, और फ़िर मर के भी वो मेरे आगे पीछे भटके… और ये देख कर एक बार और मरे कि उसके मरने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा।
ये वही आदमी था जिसने कभी मेरी हथेली पर दो रुपए का सिक्का नहीं रखा, वैसे एक रुपए भी नहीं… पर आज याद कर रही हूं कि एक बार उसने मुझसे सौ रुपए लिए थे, और पैसों की जगह उसने गालियां ही लौटाई थीं… लेकिन उसके मरने के सातवें दिन जब मुझसे कहा गया कि अब कोई नहीं घर संभालने वाला… और मुझे अब साफ-सफाई करनी होगी… उसकी बीवी के साज शृंगारों को फेंकना होगा… और इस बेशर्म आदमी की यादों को संजोना होगा जिसकी कोई याद संजोने लायक नहीं… उस दिन मैंने दम भर अपनी भड़ास निकाली… उसकी हर चीज़ को फेंक दिया… कपड़े, डायरी, चप्पल, सिगरेट का डब्बा, हीरोइन फूंकने वाले काग़ज़ के साथ थोड़ी-सी हीरोइन भी, और कुछ तस्वीरें… मगर अफसोस आलमारी में उसकी कुछ तस्वीरें पड़ी रह गई थी जिसको उसकी बीवी ने बड़े से फ्रेम में कुछ देवी देवताओं के साथ शामिल कर लिया था… वैसे उसकी बीवी मेरी मां है पर जब-जब वो उस आदमी की बात करती है तो मेरी मां बहुत कम लगती है… उसकी बीवी अधिक। उस दिन उसके शर्ट के पैकेट से सौ रुपए का नोट भी मुझे मिला था… तब मेरे भीतर और चिढ़ मच गई लेकिन मैं उस नोट को न फेंक सकी और उसी दिन उसी नोट से चाट और आइसक्रीम खा लिया … मुझे खुशी थी न्याय नाम की चीज़ जिंदा है और ये आदमी मेरे सौ रुपए न पचा सका… सुनने में आया कि वो आख़िरी समय मुझसे मिलना चाहता था और जब मैं नहीं गई तो गालियां पढ़ने लगा… वैसे अगर मुझे पता भी होता कि वो मरनेवाला है और मुझसे मिलना उसकी आख़िरी इच्छा है, मैं तब भी नहीं जाती। उस रात की कहानी उसे और उसकी बीवी दोनों को मालूम थी, दोनों को उस लड़के के बारे में पता था, पर क्या किया उसने… पंद्रह दिनों तक खून रिसता रहा था मेरी जांघों के बीच, क्या वो आदमी जो तब तक मेरा बाप था और जिसे मैं पप्पा कहती थी, उस लड़के के सर से खून न निकाल सकता था… क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि उसको मेरे सामने बिठा दिया जाता और मुझसे पूछा जाता कि बोलो क्या करूं इसका… और शायद उस उम्र में एक छोटा सा बदला लेकर मैं सब कुछ भूल जाती|उस समय वह लड़का मुझसे बीस पंद्रह साल बड़ा था, जिसका चेहरा मैं बार-बार याद करने की कोशिश करती हूं पर नहीं कर पाती, लेकिन अगर कुछ नहीं भूल पाई तो वो ये कि अपनी दोनों जांघों के बीच उसकी जबर्दस्ती घुसड़ती हुई अंगुलियां, आज भी वो चुभन कम नहीं हुई, आज भी वो सब याद आते ही मन ऊपर-नीचे होने लगता है और जी मितलाने लगता है, आंखों के सामने सब धुंधला पड़ने लगता है…तब लगता है अपना सर फोड़ डालूं…
