इस वर्ष राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान से तीन कहानियाँ सम्मानित की गईं, जिनमें से सम्मानित दो कहानियाँ यहाँ अपने पाठकों के लिए साझा कर चुके हैं। इसी क्रम में आज तीसरी सम्मानित कहानी, जो कि युवा लेखिका ट्विंकल रक्षिता की है, भी साझा कर रहे हैं। बीते दिनों हंस द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इन कहानियों को सम्मानित किया गया।

(कहानी की हर बात झूठ हो सकती है पर हर झूठ की डबल सच्चाई है…)
यहाँ भी बिखरी है एक कहानी…चट्टान की तरह| ताज्जुब होता है चट्टान को चादर में लिपटा देखकर…आँगन के बीचो-बीच…, क्या ये वही चट्टान है जो कभी नहीं पिघली और आज अचानक से लुढ़क गई… लेकिन ऐसा कैसे? मैंने कसम खाई थी कि इस चट्टान को हजार टुकड़ों में तोडूंगी,इसके हाथ पैर थे… आंखे थी, मैं जहां भी जाती वो उसी रास्ते पर खड़ी मिलती, कभी आंख दिखाती तो कभी दांत… कभी-कभी तो हद हो जाती जब कई रातें बिना सोए गुजारनी पड़ती… क्योंकि अक्सर ये हाथ मुंह वाली चट्टान कपार पर सवार रहती थी… आज भी याद करती हूं वो दोपहरी जब उस चट्टान के टूटने और ढहने पर मुझे कोई दुख नहीं हुआ, ना दर्द… हाँ,गुस्सा आया था और आज भी आता है कि बिना मेरे तोड़े वह कैसे टूट गई?मैं कोई देवी नहीं… और ना ही बनने का शौक है, हां मैं बदले में विश्वास रखती हूं… मैं जैसे को तैसा लौटाना चाहती हूं… मैं उस चुभन का एहसास उस चट्टान को कराना चाहती थी जो सोलह साल पहले मुझे मिली… मैं खुश थी उस दिन क्योंकि उसकी आवाज़ हमेशा के लिए बंद हो चुकी थी, याद आता है वो दिन… जिस दिन मैंने कसम खाई थी कि इसे बोलने लायक मैं नहीं छोड़ने वाली… पर मैंने सुना कि वो तथाकथित आदमी अंत समय में भी गालियों के साथ नए नए प्रयोग कर रहा था और धड़ल्ले से उसमें मुझे और अपनी बीबी को शामिल कर रहा था… वैसे लोग कह रहे थे कि मैं उसे गंगाजल पिला दूं , इकलौती बेटी हूं उसकी … वरना उसकी आत्मा भटकेगी, पर मैंने नहीं पिलाया गंगाजल… मैं चाहती थी वो भटके… बार-बार भटके … हजार-बार उसकी मौत हो, और फ़िर मर के भी वो मेरे आगे पीछे भटके… और ये देख कर एक बार और मरे कि उसके मरने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा।
ये वही आदमी था जिसने कभी मेरी हथेली पर दो रुपए का सिक्का नहीं रखा, वैसे एक रुपए भी नहीं… पर आज याद कर रही हूं कि एक बार उसने मुझसे सौ रुपए लिए थे, और पैसों की जगह उसने गालियां ही लौटाई थीं… लेकिन उसके मरने के सातवें दिन जब मुझसे कहा गया कि अब कोई नहीं घर संभालने वाला… और मुझे अब साफ-सफाई करनी होगी… उसकी बीवी के साज शृंगारों को फेंकना होगा… और इस बेशर्म आदमी की यादों को संजोना होगा जिसकी कोई याद संजोने लायक नहीं… उस दिन मैंने दम भर अपनी भड़ास निकाली… उसकी हर चीज़ को फेंक दिया… कपड़े, डायरी, चप्पल, सिगरेट का डब्बा, हीरोइन फूंकने वाले काग़ज़ के साथ थोड़ी-सी हीरोइन भी, और कुछ तस्वीरें… मगर अफसोस आलमारी में उसकी कुछ तस्वीरें पड़ी रह गई थी जिसको उसकी बीवी ने बड़े से फ्रेम में कुछ देवी देवताओं के साथ शामिल कर लिया था… वैसे उसकी बीवी मेरी मां है पर जब-जब वो उस आदमी की बात करती है तो मेरी मां बहुत कम लगती है… उसकी बीवी अधिक। उस दिन उसके शर्ट के पैकेट से सौ रुपए का नोट भी मुझे मिला था… तब मेरे भीतर और चिढ़ मच गई लेकिन मैं उस नोट को न फेंक सकी और उसी दिन उसी नोट से चाट और आइसक्रीम खा लिया … मुझे खुशी थी न्याय नाम की चीज़ जिंदा है और ये आदमी मेरे सौ रुपए न पचा सका… सुनने में आया कि वो आख़िरी समय मुझसे मिलना चाहता था और जब मैं नहीं गई तो गालियां पढ़ने लगा… वैसे अगर मुझे पता भी होता कि वो मरनेवाला है और मुझसे मिलना उसकी आख़िरी इच्छा है, मैं तब भी नहीं जाती। उस रात की कहानी उसे और उसकी बीवी दोनों को मालूम थी, दोनों को उस लड़के के बारे में पता था, पर क्या किया उसने… पंद्रह दिनों तक खून रिसता रहा था मेरी जांघों के बीच, क्या वो आदमी जो तब तक मेरा बाप था और जिसे मैं पप्पा कहती थी, उस लड़के के सर से खून न निकाल सकता था… क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि उसको मेरे सामने बिठा दिया जाता और मुझसे पूछा जाता कि बोलो क्या करूं इसका… और शायद उस उम्र में एक छोटा सा बदला लेकर मैं सब कुछ भूल जाती|उस समय वह लड़का मुझसे बीस पंद्रह साल बड़ा था, जिसका चेहरा मैं बार-बार याद करने की कोशिश करती हूं पर नहीं कर पाती, लेकिन अगर कुछ नहीं भूल पाई तो वो ये कि अपनी दोनों जांघों के बीच उसकी जबर्दस्ती घुसड़ती हुई अंगुलियां, आज भी वो चुभन कम नहीं हुई, आज भी वो सब याद आते ही मन ऊपर-नीचे होने लगता है और जी मितलाने लगता है, आंखों के सामने सब धुंधला पड़ने लगता है…तब लगता है अपना सर फोड़ डालूं…
हंस कथा सम्मान से सम्मानित होतीं ट्विंकल रक्षिता
गई थी मैं उसके मरने के एक घंटे के बाद उस दिन… शायद मैं पूरी तरह कन्फर्म होना चाहती थी कि वो वाकई में मर चुका है … इससे पहले भी ऐसा कई बार हुआ था जब मैं सुन चुकी थी वो नहीं बचेगा लेकिन हर बार बच जाता था…
वहां लोग मुझे ऐसे देख रहे थे मानो मैंने ही उसे मार डाला… हां, मैं मार डालती… जरूर मार डालती लेकिन मुझे मेरी मां सजी धजी बहुत अच्छी लगती थी… उसके मरने पर इस बात का जरा-सा अफसोस मुझे भी हुआ था… लेकिन फ़िर लगा कौन किसके बिना मरता है… और मेरी मां आज मुझे उन थोपे गए शृंगारों के बिना ही बड़ी खूबसूरत लगती है, क्योंकि अब वो उसकी बीवी नहीं ओर मेरी मां लगती है। सच कहूं तो मैंने उस आदमी की शक्ल उस दिन भी नहीं देखी… फुफू कह रही थी कि देख ले पप्पा को वरना बाद में पछताएगी… पर जब तक वो चट्टान-सा आंगन में पड़ा रहा तब तक मैं घर के भीतर गई ही नहीं… मेरी आंखों में तो एक बूंद भी आसूं नहीं थेकई बार मैंने जबर्दस्ती लोगों को रोता हुआ देख कर लोकाचार में रोने की कोशिश भी की… पर सब बेकार।
हाँ मां बेशक रोए जा रही थी पर क्यों ये वही जाने… शायद अपने पति की मार, गाली और जबरदस्ती किए गए सेक्स को बहुत मिस करनेवाली थी आगे के दिनों में… लेकिन मुझे क्या… रोते रहो सब, मैं क्यों रोऊं?? मैं तो निश्चिंत हो गई थी कि अब मां बुरी तरह पिटने से बचेगी… स्टील वाली बाल्टी, छोलनी या डब्बू फेंक कर मारने से जो निशान थे उसके शरीर पर वो धीरे-धीरे मिट जायेंगे… मुझे सुकून था कि अब उसके बाल पकड़ कर घसीटा नहीं जायेगा… या मुझे रण्डी की औलाद कहके कोई नहीं पुकारेगा, लेकिन सच कहूं तो अभी भी लग रहा था कि ये इतनी जल्दी कैसे मर गया… कहीं ढोंग तो नहीं कर रहा है , कई बार मैंने सुना था कि फलां आदमी को जैसे ही चिता पर लिटाया गया वो उठ बैठा, उसकी सांसे चलने लगी …चमत्कार हो गया… यही डर कुछ समय के लिए मेरे मन में भी उठा कि कहीं वो फिर से जिंदा न हो जाए। मैं नहीं चाहती थी उसका फिर से जिन्दा होना… आज भी अक्सर सपने में देखती हूं… उसे बुरी तरह गरजते, सीढ़ियों से मुझे धकेलते, माय को पीटते… तो बुरी तरह डर जाती हूं।
हालांकि ये मेरा कोरा वहम था… वो सच में मर चुका था। लोग जला आए थे और मां रोए जा रही थी… उस दिन सच में अजीब लगा जब पहली बार मां को बिना चूड़ियों के देख रही थी…
ठीक उसी जगह मैं उस दिन खड़ी थी जिस जगह सोलह साल पहले खड़ी थी और आंखें नीचे किए-किए रोए जा रही थी… लगता है सारे आंसू उसी दिन खतम हो गए होंगे और इतने भी न बचे कि उसके मरने पर दो बूंद भी बहा सकूं, और वो सीढ़ियों पर बैठा चिल्लाए जा रहा था..अरे रण्डी की औलाद तू क्यों गला फाड़ रही है, तेरा बाप मैं नहीं हूं…. पूछ भोंसड़ी वाली से, किसकी है तू… कब से मादरजात चिल्लाए जा रही है! चल हट यहां से….| दरअसल इसी चालीसा का पाठ वो अकसर किया करता था। ऐसा लग रहा था कि वर्षों बाद आज मुझे ऐसी नींद आएगी जिसके लिए न दवाओं कि जरुरत पड़ेगी न किसी के जगाने की…इन्हीं सीढ़ियों से धक्का दिया था उसने… और मैं नीचे।
कोई रोते पीटते रहे पर मैं मजे में नहा धो के बिछावन पर… आज मैं आज़ाद हूं… वास्तविक अर्थों में… उस चट्टान का कहीं कोई प्रतिबिंब नहीं… पर यादों पर किसका वश… याद आ रहा है सोलह साल पहले का दिन… जब मैं छः वर्ष की थी और तब तक वो मेरा बाप था क्योंकि मैं उसे पप्पा बोलती थी। तब अक्सर दूसरे पप्पा प्रजाति के लोगों से मैं अपने पप्पा की तुलना किया करती थी कि पप्पा ऐसे होते हैं क्या? धक्का देने वाले?? उसकी बीवी मुझे अपने साथ चुपचाप रसोई में लेके चली गई।
मां, मुझे नानी के पास भेज दो ना..
मैं साफ-साफ नहीं बोल पा रही थी मुझे खूब हिचकी आ रही थी, नानी बोलने में तीन बार हिचकी बंधी। मां चुप-चाप मुझे पानी पिला के अपने सीने से लगा लेती है।
नहीं बेटा.. ऐसे नहीं बोलते।
परसों दशहरा है, तुम घूमने जाओगी न पापा के साथ, वो तुम्हें चाट, आइसक्रीम सब खिलाएंगे। वो आंख मारने वाली गुड़िया भी ले देंगे। चुप हो जाओ, पर मुझे नहीं चाहिए कुछ, मेरी हिचकी नहीं रुक रही थी।
चलो करुणा अब सो जाओ।
मेरी आंख लगी ही थी कि मैंने मां के रोने की आवाज सुनी, अरे पप्पा मां को दूसरे कमरे में क्यों लिए जा रहे हैं, मार भी रहे हैं, बाल क्यों खींच रहे हैं पप्पा??
मुझ में चिल्लाने की हिम्मत नहीं थी, पप्पा मुझे भी मारेंगे।
बाबू भी जाग गया, सो जाओ बाबू, मत रोओ, मैं पागलों की तरह भाई को चुप करने में लगी थी पर वो चुप नहीं होता था मैं रो रही थी पर जोर से नहीं, मुझे खुद से ज्यादा भाई की चिंता हो रही थी ..कहीं वो आदमी उसे भी न मार डाले …
मैं दूध की बोतल भाई के मुंह में लगा देती हूँ पर वो चुप होने का नाम नहीं लेता। मैं रो-रो के उससे बोलती हूं मानो भगवान से विनती कर रही हूं, बीच-बीच में हाथ भी जोड़ती हूं, चुप हो जाओ बाबू। पापा मारेंगे। बाबू को डर नहीं लगता है पापा से?… वो नहीं चुप होगा। वो जितना चिल्लाता था मैं उतनी ही नम्र होके उससे निवेदन किए जा रही थी, चुप होने का। मां आ गई, ये क्या मां की साड़ी कहां गई, किसने खोली??
पापा ने?? नहीं नहीं पापा क्यों खोलेंगे? पर नहीं पूछ सकती थी।
अभी मां उसकी बीवी थी और अपने बेटे को दूध पिलाने में लगी थी, अरे ये क्या मां के मुंह खून आ रहा है। मां मुझे भी एक तरफ सुला लेती है, और मेरे बाल सहलाने लगती है, मां रो रही थी, बहुत धीरे-धीरे पर मैं सुन रही थी।
करुणा, सो जाओ बेटा, कल मेला देखते जाना है न…
मैं आंखे मूंद लेती हूँ, पर नींद नहीं आती।
आंख बंद करते ही पापा फिर धक्का देने के लिए दौड़ते हैं ।
पर नींद की एक खासियत है कि वो आती जरूर है, भले देर से आए।
मुझे नींद आने लगी।
मां बीच-बीच खूब रोती है… अंधेरे में उसका रोना बड़ा डरावना लगता है और नींद भी नहीं आती… पर कहानी जरूर याद आती है…
दशहरा, बच्चों का मनपसंद त्योहार! सुबह से ही चाट, आइसक्रीम खाने की तलब! मां ने सुबह ही नहला धुला के नई फ्रॉक पहना दी मुझे, बालों में मैचिंग मैचिंग क्लिप। नए कपड़े पहनने से मन कितना कितना खुश होता है न, आज तक मेरी आदत वही है… नए कपड़े पहन कर आज भी मैं उतनी ही खुश होती हूं।कपड़े की खुशी के कारण ही तो पिछली काली रात के अंधेरे साए ने मेरा पीछा छोड़ा था पर कब तक, परछाई भी कभी पीछा छोड़ सकती है, हां ये बात अलग है कि दोपहर को कुछ समय के लिए थोड़ी छोटी पड़ जाए , पर पुनः उसका आकार बढ़ता ही जाता है और अंधेरा होने पर खतम होने के बजाए वो हमारे भीतर समा जाता है, समाप्त तब भी नहीं होता , बल्कि अंधेरे में उसके साथ कई और परछाइयां गला घोंटने को दौड़ती हैं।
उस दिन जो मेरे पप्पा थे वो नहा धो के लाल कुमकुम लगा चुके थे, जो उनके सांवले चेहरे पर या जो गुस्से में काली हो जाती है उसपर बिलकुल खून के धब्बे जैसा लगता थाकोई इतना भी भयानक लग सकता है!! मैं सोचती थी पर जल्द ही उस आदमी से जुड़ी बातों को भूल के आगे निकलना चाहती थी। मुझे बहुत अच्छा लगता था जब घर में सभी लोग होते थे सिर्फ उस चट्टान को छोड़ के।
नानी के यहां जगनी दाई बोलती थी कि घर के पीछे वाले बैर के पेड़ पर भूत रहता है जो दूध नहीं पीनेवाले बच्चों का खून चूसता है और जब-जब मैं उस पप्पा प्रजाति के जानवर को आते देखती थी तो मुझे लगता था कि वो सारे भूत उसके पीछे-पीछे दौड़े आ रहे हैं। मैं तब भी कई बार सोचती थी कि
कितना अच्छा होता न कि पप्पा कभी नहीं आते, कभी नहीं…
मां के कमरे की पीछेवाली खिड़की नदी की तरफ खुलती थी मुझे उस खिड़की पर चढ़ के बैठना बहुत पसंद था, हालांकि बैठने की जगह काफी पतली होने के कारण मैं खिड़की में लगे लोहे की छड़ों को कस के पकड़े रहती थी जिससे मेरी नाक खिड़की के बाहर निकली रहती थी। नदी के उस छोर से जब कोई आते हुए मुझे दिखता तब मैं और ध्यान से झांकना शुरू कर देती थी और तब तक देखती थी जब तक कि किनारे आनेवाले इंसान की सूरत साफ न दिखने लगे। मुझे एक खुशी मिलती थी इस तरह दिनभर उस पार से इस पार तक आने वाले लोगों की गिनती करने में… और मेरा समय भी कट जाता था।
करूणा… आ तेरे बाल बना दूं, ओह पता नहीं ये कैसे बाल हैं तेरे, कभी सुलझते ही नहीं, कितना भी संवार दो उलझे ही रहते हैं |ये तो कहने की बात थी वैसे, जिंदगी भी कौन-सी सुलझी थी, सब तो घौंच-पौंच ही था, जितना सुलझाओ उतनी उलझती जाती थी, मेरे बालों की तरह। मां मेरे बाल बनाने के समय हर दिन ये बात बोलती थी … दरअसल मुझे दो चोटी नहीं पसंद थी, मुझे खुले बाल पसंद थे,क्योंकि जब मैं अकेली होती थी तो अपने आगे के बालों को घुमा-घुमा देखती थी कभी फूंक मारती , मुझे अच्छा लगता था और आज तक मेरी आदत वही है, मैं सात आठ दिन बालों में बिना कंघी किए, या बिना तेल के रह लेती हूं बड़े आराम से।
पप्पा आ गए हैं, मुझे वही ले जायेंगे, मां नहीं जाएगी पर क्यों??
अच्छा बाबू के पास रहेगी। बाबू के पास क्यों रहेगी? बाबू को भी ले चले। खैर पप्पा सामने खड़े हैं, मुझे हिम्मत नहीं है कि मैं मां को बोलूं कि मां तुम भी चलो। पप्पा ने मेरा हाथ पकड़ा, मैं डर गई , आज के पहले कभी पप्पा ने ऐसे हाथ नहीं पकड़ा, मैं सहमी जा रही थी, ये क्या पप्पा हाथ छोड़ रहे हैं, नहीं-नहीं वो अपनी एक अंगुली मुझे पकड़ने के लिए बोल रहे हैं, मुझे उस आदमी की अंगुली पकड़ते ही लगा मानो कुछ अंदर ही अंदर हिल रहा हो, मुझे अगल-बगल आगे-पीछे कुछ नहीं दिख रहा था, बस मैं चली जा रही थी, मुझे डर था कि कहीं पप्पा से पीछे न रह जाऊं।
कौन घंटी बजा रहा है, अच्छा कुल्फी वाला, उसने उसे रुकवाया और दोनों के लिए कुल्फी ली, मैं तब यही सोच रही थी कि ये आदमी कुल्फी कैसे खायेगा? मुझे उसकी थू-थू वाली आदत से बड़ी घिन आती थी… घर में, आंगन में कहीं भी थू- थू… पर उसकी बीवी बड़ी शिद्दत से पूरा घर पोंछती और गलती से टोक दे तो दो चार लप्पड़ की रजिस्ट्री कन्फर्म। उसने किनारे जाके जी भर थूका और कुल्फी खाने लगा, मुझे ये लंबी बांस की टेकन वाली कुल्फी नहीं पसंद, वो इतनी लंबी होती है कि कभी-कभी गले में जाकर लगती है। उसकी कुल्फी खतम हो गई, मेरी हड़बड़ाहट बढ़ गई, खतम करने की, मैने जल्दी-जल्दी खाना शुरू किया लेकिन हड़बड़ाहट में कुल्फी छूट गई हाथ से, वो आंख फाड़ के देख रहा होगा लेकिन मैं नहीं देखती उधर.. मैंने चुप-चाप अपनी फ्रॉक में हाथ पोंछ लिया।
और कुल्फी लोगी करुणा…?
मैं क्या बोलती… न हां निकलते बन रहा था न नहीं। उसने जोर से पूछा और लोगी… मैं नहीं बोलती कुछ, उसने गुर्राते हुए हाथ पकड़ा और आगे बढ़ गया, मां क्यों नहीं आई साथ, क्यों अकेले भेज दिया… मुझे मां पर बहुत गुस्सा आ रहा था। मैं उस आदमी को कैसे बोलती कि मुझे गुड़िया लेनी है|
मैं बिना कुछ बोले चुप चाप चली जा रही थी पर पप्पा कहां ले जा रहे हैं, भीड़ तो पीछे रह गई इधर कोई भी नहीं है एकदम सुनसान गली, दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे मकान…मुझे हर घर से अंधेरे में एक भूत निकलता दिख रहा थामैं आंखे बन्द कर लेती हूँ। आह !! ठेस लगी।
अरे देख के चलो, सत बल नहीं है? वो गुर्रा रहां था… जैसे मरते समय तक भी गुर्राया होगा….
मुझे जितनी देर गिरते न लगी उससे जल्दी उठ खड़ी हुई। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और तेजी से आगे बढ़ने लगा…मुझे भटकते हुए कभी-कभी दौड़ना पड़ता, मुझे लग रहा था पीछे से ढेरों भूत दौड़े आ रहे हैं, अगर मैं पीछे मुड़ी तो झपट लेंगे मुझे। आखिरकार वो एक घर के आगे रुका … उसने घंटी बजाई… दरवाजा खुला। ‘नमस्ते अंकल’
कैसे हो नीरज? नीलम कहाँ है?
मां उपर सो रही है.. उसकी तबियत थोड़ी ठीक नहीं..
अरे क्या हुआ? अच्छा तुम बैठो करुणा के साथ.. मैं देख आता हूँ
उसने मुझसे अपना हाथ छुडा के नीरज के हाथ में दे दिया…नीरज टीवी ऑन कर देखने लगा.. मैं भी बैठ गई| आराम से बैठने पर अंगूठे की तरफ ध्यान गया.. थोडा सा खून निकल आया था.. मुझे भूख भी लगी थी… उस आदमी ने ऐसे ही पूरा बाजार दौड़ा दिया था और कुछ खाने के लिए भी ना पूछा.. थोड़ी देर बाद नीरज मुझे अपने कमरे में ले गया.. बड़ा अजीब दिखता था वो.. बड़े-बड़े बाल… गंदे-गंदे नाखून.. चप्पल भी बहुत गन्दी पहने था…वो मुझसे मेरा नाम पूछ रहा था…मेरी मां का नाम…पप्पा का नाम….मैं एक-एक कर सबकुछ बताए जा रही थी … वो और पास आ गया और मेरे गालों को अजीब ढंग से चूमने लगा ….मुझे उससे घिन आने लगी क्योकि मेरे गालों पर उसके थूक लगे हुए थे….
…..नीरज मेरा मुंह दबा रहा था, मुझे बुरी तरह केंच रहा था मैं चिल्लाना चाहती थी , जोर जोर से चीखना चाहती थी, उसके सर के बाल नोच लेना चाहती थी पर आवाज न निकलती, मैं भागना चाहती थी पर कहां?? मैं पप्पा को ढूँढ़ रही थी..अंदर ही अंदर कुछ टूट रहा था दर्द हो रहा है उसे, वो रोती क्यों नहीं, करुणा…चिल्लाओ , वो तुम्हें ऐसे नहीं छोड़ेगा, जोर लगाओ…. आवाज दो…. पर आवाज गुम… पूरे शरीर में बस एक टीस उठ रही थी लग रहा था मैं किसी बड़े-से ब्लॉक होल में जा रही हूं… कभी तेजी से अन्दर जाती हूं… तो कभी बाहर आती हूं… जब-जब लगता था कि बाहर आ रही हूं तो सांसे धीमी हो जाती लेकिन जब-जब लगता नीचे जा रही हूं तब तब सब कुछ घूमने लगता। किसे दूं आवाज, वो मेरे दोनों पैरों के बीच अपनी अंगुलियां घुसा रहा था, भीतर ही भीतर लगता था मानों ऊंची-ऊंची लहरें उठ रही हों … आंखों के सामने सिर्फ़ अंधेरा… लगता था किसी ने नशे की दवाई दे दी और मेरे पूरे शरीर को सुन्न कर दिया । मैं आंखें खोलती और बन्द करती … मेरा बाप जो अब मेरा बाप बिल्कुल नहीं लगता था वो आ रहा था मेरे दोनों पैर काठ के हो चूके थे हिलना डुलना मुश्किल हो गया था पर अगले ही क्षण लगता कि सब सुन्न हो गया है और कानों में बस सायं-सायं की आवाज गूंजती थी। बेहूदा से चट्टान के हाथ में अब कप था और वो मजे से चाय पी रहा था… नीरज कहीं नहीं था… पर मेरी आंखें उसे ही ढूंढ रही थी, मैं अपने बाप से उसकी शिकायत करना चाहती थी… पर सब सुन्न…
करुणा चलो, मेला देखना है ना??
मैं नहीं सुनती कुछ।
वो मुझे अपनी अंगुली पकड़ने के लिए बोल रहा था ता पर नहीं ताकत बची थी मेरे अंदर, उंगली पकड़ने की भी। वो मेरा हाथ पकड़ के चलने लगता है… मैं नहीं चल पा रही थी, नहीं चला जाता था मुझसे और फ़िर से लगने लगा कि मैं किसी बड़े से छेद में फिसलती जा रही हूं और अचानक से सब शांत… मैं बेहोश हो गई थी । मुझे नहीं पता कौन लाया? आंख खुली बिस्तर पर, मेरी फ्रॉक सफेद से लाल हो चुकी थी… मां रोए जा रही थी और उसका पति गालियों की बौछार किए जा रहा था। मैं सुनने की कोशिश करती हूं कि वो गालियां किसे दे रहा है? कहीं नीरज को तो नहीं? पर नहीं, वो गालियां भी अपनी बीवी और मुझे दिए जा रहा था।
अरे मादरचोद … क्यों चिल्ला रही हो? जरा सी बात का बतंगड़ बना रही है… अरे तुम्हारी बेटी छूने भर से बच्चा नहीं जनेगी… भोंसड़ी के सब किए धरे पर पानी फेरेगी… आंख जब-जब खुलती तब ऐसा महसूस होता था मानों दोनों जांघो के बीच एक बड़ा सा घाव हो गया है जिसमें पीभ हीं पीभ भरा हो… न जाने फिर कब आंख लगी थी लेकिन वो घाव आज भी है… वो टीस आज भी उठती है …. और ये सोच कर दर्द और बढ़ जाता है कि मैं किसपर भरोसा करूं? वो मेरा बाप था, जो मुझे इंसाफ दिलाना तो दूर…उसने एक छोटी-सी कोशिश भी नहीं की… मैंने कई बार उसके सामने नीरज का नाम लिया पर उसने कुछ नहीं किया, उसकी बीवी भी पति मोह में पड़कर कुछ नहीं कर पाई जिसके कारण मैं आज भी उस दर्द और टीस को साथ लिए घूम रही हूं। मुझे शिकायत रहेगी उस आदमी से हमेशा… क्योंकि बाप कहने से नहीं बनता… बाप बनना पड़ता है… जो कि वो कभी नहीं बन सका, फिर किस हक से उसने मुझे पैदा किया?
मेरे लिए आज भी कुछ नहीं बदला है, सिवाय इसके कि अब उसकी गालियों के बदले मां के रोने की आवाज़ सुनाई पड़ती है… लेकिन सच कहूं तो उसकी गालियों से बेहतर मुझे मां का रोना लगता है… वो आज भी रो रही है, मैं सुन रही हूं… लेकिन आज नींद मुझपर हावी है, और मैं भी गिर रही हूं ख़ामोशी की नींद में…क्योंकि वह चट्टान सा आदमी पहले ही खामोश हो चुका है….
ट्विंकल रक्षिता, गया जिले के नेयाजीपुर गाँव से आती हैं और हिन्दी विभाग के स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्र हैं| लोक नृत्य एवं अभिनय में गहरी रूचि| हंस, जानकीपुल आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित और चर्चित| हिन्दी विभाग में छात्रों के बीच एक सेतु का काम करती हैं| उन्हें 2022 का राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान प्राप्त हो चुका है|
हंस से साभार ** यह कहानी हंस पत्रिका के मई 2022 अंक में प्रकाशित हुई है और इसे राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान 2022 के लिए चुना गया है ..

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