आज शाम जल्दी घर जा कर नीरज अपनी पत्नी मेघा व दो साल के बेटे मयंक को सरप्राइज़ देना चाहता है  | काम में व्यस्त जिन्दगी में जब –जब वो यूँ अचानक से जल्दी पहुँचा है, मेघा की आँखों की चमक ने उसकी जिन्दगी के प्रति उत्साह को कई गुना बढ़ा दिया है | इसीलिए वो बीच –बीच में ऐसे सरप्राइज़  दे दिया करता है जो उन दोनों के लिए कई दिनों तक टॉनिक का काम करते हैं | साथ –साथ कुछ हसीं पल जी लेने की ख्वाइश में वो घर आते समय वो मेघा के लिए गजरे और मयंक के लिए चॉकलेट लाना नहीं भूला | उसको उम्मीद है  कि मेघा उसे जल्दी आया देखकर खुश सी चहक उठेगी और उसके सीने से लग जायेगी | फिर वो अपनी जेब से गजरा निकाल कर ,’मेरे गुलाब के ऊपर बेला’ कहते हुए उसके लम्बे खुले बालों में लपेटने की असफल कोशिश करेगा | “रहने दीजिये , आपसे नहीं होगा” कहकर खिलखिलाते हुए मेघा गजरा उसके हाथ से ले लेगी | 

पर तीन बार घंटी बजाने के बाद भी दरवाजा  मेघा ने नहीं आरती ने खोला | आरती को देख कर उसका चेहरा उतर गया | गजरे के लिए जेब में घुसाया हुआ हाथ धीरे से बाहर निकाल लिया | आरती उनके यहाँ सफाई –बर्तन करती हैं | उसको जल्दी आया देखकर वो भी ठिठकी, फिर उसकी प्रश्नवाचक निगाहों को भांपते हुए बेडरूम की और ईशारा करते हुए बोली ,” मेमसाहब उस कमरे में हैं |”

वो सीधे बेड रूम की ओर बढ़ गया | मेघा यू ट्यूब पर किसी आध्यात्मिक चैनल का प्रवचन सुन रही थी | वो प्रवचन में इतना डूबी हुई थी कि उसने उसको देखा ही नहीं | जबसे पड़ोस में त्रिपाठी जी रहने आयें है, तब से ही उनकी पत्नी ने उसे लोक –परलोक  सुनने की आदत लगा दी हैं | कितनी बार उसे भी बताती रही है ब्लैक बॉल ,वाइट बॉल के फलसफे को, ये जन्म, वो जन्म, पाप और पुन्य, पर उसकी अरुचि देखकर अब उसने बताना छोड़ दिया है | जानती है उसे, वो बदला लेकर न्याय करने में विश्वास करता है, क्षमा उसके शब्दकोष में नहीं | कितनी बार उसने समझाया भी है ये लोक –परलोक कुछ नहीं होता, अपराधी या गलत कहने, करने  वाले को दंड मिले तो अपराध कम होंगे , ना की क्षमा कर देने से | हम अपना कर्म ईमानदारी से करें इसके अतिरिक्त कोई कोई दर्शन उसके गले के नीचे नहीं उतरता था | शुरू –शरू में मेघा तर्क करती थी पर अब नहीं करती | उसका मन रखने के लिए कह भी देती है कि अब मैंने देखना ही छोड़ दिया | पर आज सच सामने था | 

उसको मेघा के झूठ  नाराज़ होना चाहिए था, पर वो आज की शाम बर्बाद नहीं करना चाहता था इसलिए हौले क़दमों से मेघा की तरफ बढ़ने लगा | उसके कानों में प्रवचन की आवाजें पड़ने लगी | वही क्षमा करने वाली | एक –एक कदम आगे बढाते हुए उसका मूड का मीटर पॉजिटिव से निगेटिव की ओर बढ़ने लगा | उस को खुद पर काबू करना मुश्किल लगने लगा और ना चाहते हुए भी उसका पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया | “मेघा”, वो जोर से चिल्लाया | 

“कितनी बार कहा है मैं अपराधी को कठोर दंड देने में विश्वास करता हूँ, ये क्षमा वाले शब्द मेरे कानों में जहर की तरह चुभते हैं | तुम ऐसा इस लिए देख पाती हो क्योंकि तुमने मेरी तरह किसी की गलती के दंड को तिल –तिल  करके नहीं भोगा है | अपमान, निराशा और तकलीफ का जीवन क्या होता है ये मैं जानता हूँ | मेरे जीवन का उद्देश्य ही यही है कि एक बार, एक बार मैं उन सब का बदला ले सकूँ | एक बार उसे तिल –तिल करके मरते हुए देखूं, उसकी आँखों में याचना की भीख देखूँ  और वैसे ही हँसूँ जैसे वो हँसा था | चीख –चीख कर कहूँ देख, देख मैंने अपने अपमान का बदला ले लिया है |”

“खैर उसने तो रिश्ता ही नहीं रखा पर आश्चर्य ये है कि मेरी पत्नी होकर भी तुम मेरे दर्द को नहीं समझतीं |” कहते हुए नीरज के आक्रोश के शब्द दर्द की नमी से भीग गए |

“सॉरी, मुझे माफ़ कर दीजिये| मेरा इरादा आपका दिल दुखाने का नहीं था” मेघा ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा |

पर अब उसके खुले हुए रेशमी बाल, नीली साड़ी, बड़ी –बड़ी कजरारी आँखें उसे आकर्षित ना कर सकीं | “पापा, पापा” कह कर ताली बजाता हुआ नन्हा मयंक भी उसको 30 साल पुराने दर्द से खींच कर नहीं ला पाया | चॉकलेट और गजरे को बिस्तर पर पटकते हुए वो स्टडी रूम की ओर बढ़ गया | आज उसके घाव एक बार फिर छिल गए थे और उन पर मरहम पट्टी के लिए उसे एकांत की दरकार थी | 

मेघा सहमें हुए मयंक को गोद में उठा कर दुलारने लगी | वो जानती थी कि आज रात नीरज खाना भी नहीं खायेगा | अन्दर से लॉक हुए स्टडी रूम के दरवाजे के बाहर उसकी सिसकियाँ नीरज पर कोई असर नहीं करेंगी | सुबह तक खुद को संयत कर वो खुद ही बाहर निकलेगा | मेघा जानती है कि नीरज दिल का बहुत साफ़ है ,शादी के बाद उसने उसको किसी चीज के लिए नहीं रोका परन्तु  क्षमा शब्द से उसको नफरत है | इसीलिये वो उसको इन वीडियोज को देखने से मना करता है | उसके घाव कुरेद जाते हैं | उसका इतना प्यार भी नीरज की नफरत की आग को ठंडा नहीं कर पाया है| 

इधर नीरज स्टडी रूम में हमेशा की तरह माँ की तस्वीर हाथ में ले कर काउच पर लेट गया | स्टडी रूम में तरह –तरह की किताबें हैं जो नीरज कभी नहीं पढ़ता, वो डिपार्टमेंट मेघा के हवाले है, वो जब भी यहाँ आता है तो बस माँ की तस्वीर को पढ़ता है | ना जाने कितने अनुत्तरित सवालों से जूझता है, और इस इम्तिहान में खुद को अनुतीर्ण घोषित कर माँ से एक मौका और देने की बात कह फिर एक ख्वाब बुनने लगता है, जब वो अन्यायी को दंड देकर इस परीक्षा में पास होगा | आज माँ की तस्वीर फिर उसके हाथ में है |

झरते आंसुओं के साथ धुंधली होती तस्वीर के बीच एक बार फिर यादें साफ़ होती चली जा रहीं हैं | इसमें से बहुत कुछ उसने सुना है और बहुत कुछ स्वयं भी भोगा है | निम्न मध्यम वर्ग की उसकी माँ से उसके पिता ने प्रेम विवाह किया था | इंजीनियरिंग कॉलेज के ठीक सामने उसके नाना की छोटी सी दुकान थी, जिसमें घर के बने लड्डू, पेंडे, गाज़र का हलवा आदि बेचा करते थे | जो चार बेटों और एक बेटी के भरण पोषण के लिए बस गुज़ारा भर दे पाती थी | बगल की पिज़्ज़ा बर्गर, पेस्ट्री, चॉकलेट की दुकान पर जहाँ भीड़ भिनभिनाया करती, वहीँ इस देसी मिठास को चखने इक्का दुक्का लोग ही पहुँचते | ये वो दौर था जब विदेशी कम्पनियों के लिए दरवाजे खुले थे | तमाम छोटी बड़ी कम्पनियों के साथ विदेशी खानपान भी भारत आया और युवाओं के सर चढ़ कर बोलने लगा | पर नानाजी ने अपना देशीपन नहीं छोड़ा | नानी के बाद माँ ही ये सब बनाने लगी थीं और कभी –कभी अपने पिता की दुकान पर बैठ भी  जाती | वही उसके पिता से उनकी मुलाकात हुई थी | माँ भी पिताजी को कुछ –कुछ पसंद करने लगीं | प्यार के अंकुर फूटने शुरू ही हुए थे कि पिताजी ने शादी की जिद पकड ली | नाना जी सहर्ष राजी हो गए | मुश्किल थी हरिहर नाथ उर्फ़ दादाजी को समझाना | खानदानी रईस होते हुए भी बिना दान –दहेज़ के मामूली परिवार की लड़की पसंद नहीं थी | उन्होंने बहुत कोशिश की, कि ये शादी ना हो पर पिताजी के आगे उनकी एक ना चली | 

एक सादे समारोह में शादी के बाद माँ उस घर में बहु बन के चली तो गयीं पर बहु के रूप में स्वीकार नहीं की गयीं | घर की तीनों बड़ी बहुओं ने तो जैसे उन्हें अछूत ही घोषित कर दिया था | दादी और दादा जी हर वक्त दहेज़ और लड़के को फँसा लिया के ताने देते रहते | आये –गए के सामने  भी कहते रहते, पता नहीं हैदराबाद में शादी की भी है या नहीं, या हमारी छाती पर यूँही मूँग डालने के लिए उठा लाया है | आहत माँ के घावों पर पिताजी का प्रेम मलहम की तरह काम करता था | पर वक्त को कुछ और ही मंजूर था | विवाह के तीन महीने बाद एक एक्सीडेंट में पिताजी माँ को और माँ के गर्भ में आकर लेते तीन महीने के नीरज को  रोता कलपता छोड़ कर चले गए | 

माँ तो उस घर में वैसे भी स्वीकार्य नहीं थी | पिताजी की तेरहवीं के दिन दादाजी ने रिश्तेदारों के सामने माँ को चोटी  पकड़ कर “उनके बेटे को फांसने के अपराध में” घर से बाहर निकाल दिया | माँ ने गर्भ में पलते शिशु का वास्ता दिया तो अनजन्मा वो  भी अवैद्ध घोषित कर दिया गया | एक भी हाथ माँ की मदद को नहीं उठा | ‘समरथ को नहीं दोष गुसाई’ भीड़ की नज़र में भी माँ अपराधिनी थीं, गरीब होने की, उनके पिता को फांसने की और एक अवैद्ध बच्चे को उस परिवार पर मढ़ देने की कोशिश करने की | रोती कलपती माँ अकेले सफ़र कर नानाजी के पास हैदराबाद लौट आयीं | 

अपमान के दंश से जलती अर्द्धविक्षिप्त सी माँ, चारों मामियों का काम करतीं  और सारा दिन ताने सुनती | कई बार झगड़े में उसके ममेरे भाई बहन उसे, “अरे तेरे तो बाप का भी पता नहीं है, कह कर अपमानित करते |” उन्हीं में से किसी ने स्कूल में भी  यह बात कह दी और फिर जब जिस बच्चे से उसका झगडा होता वो उसको ‘नाजायज’ कहने से नहीं चूकता |” गुस्से और अपमान से उसका खून खौलने लगता, मुट्ठियाँ भिंच जाती, फिर माँ याद आ जातीं, बंधन ढीले पड़ जाते, भींची हुई मुट्ठियाँ खुद ब खुद खुल जातीं, सारा गुस्सा सारा दर्द पीकर वो घर लौट आता|  कभी –कभी माँ से कहता भी, तो माँ उसे ही चुप रहने और सब सहने की हिदायत देंती | वो सह तो जाता पर इस अपमान का बदला लेने की इच्छा उसके अंदर और तीव्र हो जाती | अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए उसके अंदर एक अभिमन्यु बड़ा हो रहा है इस बात से माँ भी अनभिज्ञ थीं | 

इतना अपमान सहने के बावजूद भी सर पर छत और दो जून रोटी भी तब तक चली जब तक नानाजी जिन्दा थे |  नानाजी के आँखें मूँदते ही मामा –मामियाँ उनसे वो सहारा भी छीन लिया | उस समय पांचवीं क्लास में पढता था वो | माँ को उसकी पढाई छूट जाने की चिंता हुई | सारे दर्द भूल कर उसकी खातिर माँ उसे ले कर एक बार फिर दादाजी की चौखट पर गयीं  | इस बार उन्होंने हाथ जोड़ कर गुहार लगाई कि वो उसे रख लें, पढ़ा –लिखा दें,ये इसी घर का अंश है, वो पलट कर कभी नहीं आएंगी भले ही भीख मांग कर अपनी जिन्दगी काट लें | 

उनके शब्द आज भी उसके कानों में बजते हैं जब उन्होंने चिल्लाकर माँ से कहा था, “चुप कर बदतमीज, मेरे बेटे को फंसा कर मार डाल , ना जाने कौन से गृह बैठे थे तेरी कुंडली में आते ही खा गयी | अभी भी चैन नहीं है | ये गन्दा खून मेरे सर पर थोपने आई है | ले जा इस पाप की औलाद को यहाँ से, ये मेरा पोता नहीं है |”

ना जाने कहाँ से उसकी नन्हीं मुट्ठियों में उस समय इतनी ताकत आ गयी थी कि उनका हाथ बाहों में पकड कर झकझोरते हुए जोर से चिल्लाया था वो, “हरिहर नाथ, तू मेरी माँ का इस तरह अपमान नहीं कर सकता | ना तू मेरा दादा ही हो सकता है, थूकता हूँ मैं ऐसे खानदान पर , जा रहा हूँ  अपनी माँ को लेकर | वो अपनी माँ को लेकर घर के बाहर निकलने लगा, पीछे उन की विद्रूप सी हँसी उसका पीछा करती रही | 

रास्ते भर वो अपनी माँ से कहता रहा, माँ मैं  लौटूंगा, लौटूंगा मैं एक दिन, जिस दिन ये हरिहर  अपने घावों से तड़प रहा होगा, इसकी आँखों में मृत्यु की याचना होगी उस दिन | उस दिन मैं छिडकने आऊँगा इसके  घावों पर नमक | तुम चिंता मत करो माँ, उस दिन …. उस दिन मैं भी ऐसे ही विद्रूप सी हँसी हंसुंगा | 

घर लौटने के बाद ईंट के भट्टे  पर काम करते हुए उसने अपना व् माँ का पेट भरा, दसवीं तक पढाई भी की | वो एक कर्मयोद्धा की तरह जीवन के सवालों को हल करना चाहता था, पर माँ ने साथ नहीं दिया | उनकी दोनों किडनियां ख़राब हो गयीं | महंगा इलाज वो करवा नहीं पाया | माँ भी उसे छोड़ कर चली गयीं | 

उस दिन के बाद से हरिहर नाथ  की विद्रूप सी हँसी उसका पीछा करने लगी | उसकी मुट्ठियाँ भिच जाती वो मन ही मन संकल्प लेता, उसे हरिहर नाथ  से भी ज्यादा पैसे वाला बनना है | फिर जाएगा वो एक दिन उनके पास ….. 

पढाई छूट गयी | उसने घर में मोमोज बना कर आस –पास के ढाबों में सप्लाई करना शुरू किया | पैसे बचे तो छोटा सा ढाबा, फिर छोटा सा होटल तक पहुंचा | यही वो समय था जब उसे एक न्यूट्रीशियन नताशा जी मिलीं | उन्होंने उसे अपने क्लायंट्स के लिए लो कैलोरी फ़ूड बना कर देने का कॉन्ट्रैक्ट किया | आइडिया  उसे जम गया अब वो शहर भर में लो कैलोरी फ़ूड सप्लायर बन गया | एक शहर से दूसरे शहर होते हुए पूरे प्रान्त में उसने अपना बिजनेस फैला लिया | रुपया, पैसा बड़ा मकान, बड़ी गाड़ी, मेघा जैसी पत्नी, मयंक जैसा बेटा सब कुछ उसकी जिन्दगी में आया | 

नहीं  आया तो उस घाव का मलहम जो हरिहर नाथ  ने उसे दिया था | ना ही खत्म हुई उसको तिल –तिल मरते देखने की इच्छा | ये अलग बात है की अब वो हर समय उस दर्द में नहीं रहता पर जब भी घाव कुरेद जाता है तो उसको संभालना मुश्किल होता है | गलत को सजा देना उसके जीवन का उद्देश्य है | अपने आस –पास मुहल्ले, शहर में कहीं भी अन्याय होते देखता है तो वो चुप नहीं बैठता | शोषित का जम कर साथ देता है, उसे बदला लेने को प्रेरित करता है | क्षमा  उसकी नज़र में अपराध है | ये उसकी इच्छा भी है और मजबूरी भी, क्योंकि हर बार किसी शोषित को देखकर उसको वो विद्रूप सी हँसी सुनाई देने लगती है और उसकी मुट्ठियाँ भिंचने लगती हैं | 

रात ख्यालों में कब बीत गयी पता ही नहीं चला | सुबह लगी हल्की सी झपकी को खिड़की से आती धूप  और चिड़ियों की प्रभातफेरी आकर हौले से खोलने लगीं | उसने आँख खोल कर देखा | सात बज गए हैं | उफ़, जल्दी करो काम पर जाना है सोचते हुए वो झटके के साथ काउच  से उठा | बाहर मेघा चाय की ट्रे लिए अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ सामने खड़ी दिखी | देर से नहाने वाली मेघा सुबह से ही सज –धज कर तैयार हो गयी | उसने हल्की गुलाबी रंग की साड़ी  पहन रखी थी, होंठों पर हल्की गुलाबी लिपस्टिक और आँखों में उसको देखकर पहली मुलाक़ात की ख़ुशी के सामान पड़े हुए गुलाबी डोरे | मेघा जानती है कौन सी चीजे उसे खुश करती हैं | उसको अतीत से बारबार वर्तमान में खींच लाने का माद्दा भी उसी के पास है | तभी तो मुस्कुराती हुई बोली, “जादू  की झप्पी चाहिए |” और प्रेम के गुबार ने दर्द के गुबार को पीछे धकेल दिया | 

वो जानता है कि मेघा सपने में भी उसका दिल दुखाने की बात नहीं सोच सकती, बस वो क्षमा में विश्वास करती है  | वो ही अपने अतीत के दर्द को गाहे –बगाहे उसके ऊपर लाद देता है | उसे कल उस पर जोर से बोलने का पछतावा भी है | उसने अपनी तरफ से खामियाजा पूरा करने के लिए सप्ताहांत में मुंबई घूमने का प्रोग्राम बना लिया | ख़ुशी से चहक उठी मेघा | छोटी –छोटी बातों पर बहुत खुश हो जाना उसकी आदत है | चार दिन मेघा और मयंक के साथ मुंबई में बहुत अच्छे बीते | तरोताजा हो कर घर वापस आया ही था कि दूसरे प्रदेशों से भी उसका फ्रेंचाइजी खोलने के आर्डर आने लगे | अब उसे कई शहरों का दौरा करना करना था | मेघा के चहरे पर ख़ुशी के साथ हल्की सी मायूसी देखकर उसने उसे अपने सीने से लगा कर कहा , “ तुम कहो तो नहीं जाऊँगा , तुम्हारी ख़ुशी से बढ़कर ये बिजनेस तो नहीं |” मेघा ने लाड में आँख दिखाते हुए कहा, न न न, ये तो मैं कह ही नहीं सकती, मैं आपके सपने को जानती हूँ | सात –आठ दिनों की बात है, मैं पिताजी के पास चली जाउंगी |” 

१० दिन का दौरा पूरा करके कल उसे लौटना ही था कि कानपुर  से भी फेंचाइजी खोलने का फोन आया | कानपुर यानि हरिहर नाथ  का शहर | एक शहर जो उसका हो कर भी उसका नहीं है | एक शहर जहाँ  से अपमानित हो कर वो निकाला गया था, वहाँ उसे सम्मान के साथ बुलाया जा रहा है| मन में एक दबी हुई सी इच्छा हुई कि जाये,  हरिहर शुक्ला को दिखाए कि देखो जिसको तुमने पढने तक का सहारा नहीं दिया था, आज उसका कद तुम्हारे कद से ऊँचा है | जिसको तुमने अपना खून मानने से इनकार किया था आज वो अपनी माँ का नाम रोशन कर रहा है | जिसको तुमने घर के अंदर घुसने नहीं दिया था, आज वो तुम्हारे शहर के सबसे रईस आदमी का मेह्मान  है | 

उसने आमंत्रण  स्वीकार कर लिया | 

एक बार फिर सारी रात माँ उसके साथ रहीं  | मेघा भी नहीं थी उसे अतीत से निकालने के लिए | क्रोध बढ़ता ही गया | मुट्ठियाँ भींचने लगी | खूब खरी- खोटी सुनाने की भावना उसके कदम पुराने कानपुर के  बड़े –बड़े अहातों की ओर ले जाने लगी | 

हर बढ़ते कदम के साथ वो एक वाक्य गढ़ रहा है, जो उसे हरिहर नाथ  को सुनाना है | आज उसकी आग शांत होगी | आज के बाद अपने अतीत को यहीं छोड़ कर पूरी तरह अपने वर्तमान , अपनी मेघा और अपने मयंक के पास लौट जाएगा|

पर ये वो कानपुर  नहीं था जिसे वो वर्षों पहले छोड़ कर आया था | हातेनुमा मकान रिहायशी अपार्टमेंट बन चुके है | छोटी-बड़ी दुकानें शॉपिंग माल्स में बदल चुकी हैं | बड़े –बड़े आम , शहतूत  के पेड़ों की जगह हर घर के आगे छोटी –छोटी क्यारियाँ रोप दी गयी हैं | विदेशी घास से सजी जमीन पर क्रोटन के पौधे तुलसी से आगे खड़े इठला रहे हैं | एक पल को उसके कदम लड़खड़ा गए | क्या पता हरिहर नाथ जी का घर और पैसा उससे भी कहीं अधिक बढ़ गया हो , आखिर तीन बेटे और उनका परिवार भी तो कुछ कमा रहा होगा | हो सकता है उनके पास उससे भी कहीं ज्यादा पैसा हो और वो उसे एक बार फिर अपमानित कर दें | हो सकता है हरिहर नाथ  ही ना रहे हों | 

“लौट जाओ नीरज, लौट जाओ, अबकी टूटे तो तुम्हें कौन संभालेगा ? आखिर मेघा और मयंक का क्या कसूर है जो तुम उन्हें फिर से दर्द में डाल दोगे | बड़ी मुश्किल से जिन्दगी सुधरी है,  खुद ही उसमें आग ना लगाओ |” हर बढ़ते कदम पर मन उसे संभावित खतरे की तरफ आगाह करते हुए बार –बार पीछे खींच रहा था और चेतना बिना प्रयास उसे आगे धकेल रही थी | आखिरकार उसने अपने को ठीक उस घर के सामने पाया जिस पर लिखा था A -227/37 | पर यहाँ विशाल हवेली की जगह एक आलिशान अपार्टमेंट खड़ा है | चमचमाते  फ्लैट्स , बड़ी –बड़ी गाड़ियाँ और दरवाजे पर हर आगंतुक से जानेवाले घर का नंबर लिखवा कर जाने की अनुमति देते संतरी | 

ये वैभव देखकर वो लौटने को हुआ , तभी संतरी ने पूंछा , “ किसके घर जाना है ?”

“हरिहर नाथ” उसके मुँह से अनायास ही निकल पड़ा |

संतरी  ने उसे आश्चर्य से ऐसे देखा जैसे कोई कानपुर  में कुतुबमीनार ढूंढ रहा हो | फिर उसने पार्किंग एरिया  बने सर्वेंट क्वाटर की ओर इशारा कर के कहा , “दूसरा नंबर” |

“वहाँ” उसने आश्चर्य से देखकर पूछा  , लेकिन ये तो हरिहर नाथ की ही जमीन है ?

“ है नहीं, थी, बेटे जमीन बेंच कर मुंबई चले गए, वही कारोबार करते हैं |  वृद्ध और अशक्त पिता जब जमीन बेचने को राजी नहीं हुए तो उनको यहीं छोड़ गए | बरसों हो गए कोई नहीं आया | अब तो आखिरी ही समय समझो | आप कैसे आये ?” संतरी ने उसकी  जिज्ञासा शांत करते हुए प्रश्न पूछा |

“कुछ खास नहीं, पुरानी  जान –पहचान थी, कानपुर आया तो सोचा मिल लूँ” कहते हुए वो  आगे बढ़ गया | 

तो यहाँ रहते हैं हरिहर नाथ जी, उनके बेटे उन्हें बुढापे में यहाँ मरने के लिए अकेले छोड़ गए | उसे  महसूस हो रहा है आज का दिन उसकी जिंदगी का सबसे खास दिन बनने वाला है | बेटों द्वारा छोड़े गए हरिहर नाथ को वो जी भर के सुनाएगा | अपने व् अपनी माँ के हर अपमान का बदला लेगा  और चलते समय वही विद्रूप सी हँसी हंसेगा जो उसके जाने के बाद उसकी मृत्यु तक उसके कानों में बजती रहेगी | 

उसने  कमरे का दरवाजा खटखटाया | 

बस भिड़ा है, तनिक  खोल के घुस जाओ, बगल के कमरे से किसी स्त्री की  आवाज़ आई | 

उसने  दरवाजा खोला | तेज सडांध  उसकी साँसों में घुस गयी | सामने एक दींन  –हीन , लकवाग्रस्त वृद्ध अपने बिस्तर से जकड़ा पड़ा  दिखा | शरीर कंकालमात्र , आँखे धंसी हुई एकटक छत की ओर देखती हुई जैसे मृत्यु की याचना  कर रही हों , चेहरा पीला पडा हुआ , ऊपर की तरफ एक मटमैली बनियान जो जगह –जगह उधड़ी हुई व् पीछे से सिर्फ ऊपर गले तक सरकाई हुई,  शरीर के नीचे के भाग में कोई वस्त्र नहीं, बस एक डायपर, मल –मूत्र को रोकने के लिए बंधा हुआ, लेकिन शायद उसे कई दिन से साफ़ नहीं किया गया था | बिस्तर गीला और मल कुछ सूखा, कुछ गीला उसके चारों  ओर सना हुआ, पीठ पर बड़े –बड़े बेड सोर, जिनके घावों से मवाद रिसता हुआ | उफ़ ! उसने वृद्ध से हटा कर कमरे पर नज़र डाली, कमरे में एक बिस्तर एक अलमारी और एक छोटी टेबल, टेबल पर कुछ अधखाया दाल –चावल, जिस पर भिनभिनाती हुई मक्खियाँ | 

उसे अपने कहे शब्द याद आ गए | माँ मैं  लौटूंगा, मैं लौटूंगा एक दिन, जिस दिन ये हरिहर  अपने घावों से तड़प रहा होगा, इसकी आँखों में मृत्यु की याचना होगी उस दिन | उस दिन मैं छिडकने आऊँगा इसके  घावों पर नमक | तुम चिंता मत करो माँ, उस दिन …. उस दिन मैं भी ऐसे ही विद्रूप सी हँसी हंसूंगा | 

वो बिना किसी भाव के  निर्विकार सा देखता रहा | उसने जो चाहा  था, वो प्रत्यक्ष उसके सामने है , उसे तो खुश होना चाहिए, उसकी वर्षों की तपस्या फलीभूत हुई | आज उसका  आक्रोश पूरी तरह जल कर भस्म हो जाना चाहिए | आगे की जिन्दगी उसके दर्दनाक अतीत से पूरी तरह मुक्त होने की ख़ुशी होनी चाहिए,  उसे तो उसी विद्रूप सी हँसी में हंसना चाहिए, पर …. पर, ये उसकी आँखे नम क्यों हो रही हैं, उसका दिल जोर –जोर से क्यों धडक रहा है, उसे  उबकाई सी क्यों आ रही है ?

वो घबरा कर बाहर निकल आया | 

सामने से आती  घरों में काम करने वाली एक औरत उससे कहने लग, “ आप काहे को मिलने  आये हो बाबूजी ,आपको तो चीन्हे ही ना हुइए ? ई तो नरक मा हैं, गू –मूत मा लोट रहे हैं | जाने कौन पाप किये हैं कि भुगत रहे हैं | बेटे मेहतर लगा गए हैं वही सफाई कर देत है और खाना भी खिला देत है | पर है बड़ा आलसी,  रोज आवत ही नाहीं | हमसे भी कहे थे करने को , पर ये गू गलीच हमसे होत नाहीं | आप आये हो तो कहे दे रहीं हैं की लड़का लोगों को फोन करो इन्हें यहाँ से ले जाए | ई बदबू मा हम लोगन की और मट्टी ख़राब हो रही है | पर ऊ लोग आएंये नाहीं,बुढ़ापा मा पैसा कौड़ी पास ना हो, शरीर साथ ना देवे तो खून भी अपना रंग दिखाई ही देत है |” 

कह कर वो चली गयी | उसको उसकी छटपटाहट के साथ अनुत्तरित छोड़ के | 

वह  भी लौट रहा है | मन में कुछ खौल  सा रहा है | उसके कदम भारी हो रहे हैं | वो हँसना  चाहता है …. वही विद्रूप सी हँसी , पर उसकी आँखें छलक रही हैं | वो अपने अतीत से मुक्त होकर एक बार फिर सपने बुनना चाहता है पर असहाय हरिहर नाथ  उसकी आँखों के आगे से हट नहीं रहे हैं | वो विजय के गीत सुनना चाहता है पर उसे लकवा ग्रस्त मुख की गें , गें की आवाजे सुनाई दे रही हैं | 

उसका अपना ही मन दो भागों में बंट रहा है |

“वो … वो उसके दादाजी हैं |”

“हुंह ! उन्होंने उसे  कभी अपना पोता तो माना ही नहीं ,इस दुनिया में उसका कोई अपना है तो सिर्फ मेघा और मयंक |”

 “आज उन्हें मदद की जरूरत है |”

“मदद , हा , हा , हरिहर नाथ  अपने कर्मों की सजा भुगत रहा है | बड़ा खून –खून करता था , अभी तो उसे भी और बहुत कुछ सुनाना चाहिए |”

“वो एक इंसान हैं |”

“वही इंसान ना,  जिनकी वजह से उसका और उसकी माँ का जीवन बर्बाद हुआ |”

“आज वो असहाय हैं |”

“तो ?”

उसे  चक्कर आने लगा  | खुद को संभालने के लिए वो वहीँ पिलर पकड कर खड़ा हो जाता है | उसे  मेघा दिखाई दे रही है ठीक उसके सामने खड़ी हुई | उसके दिमाग का ये सब अंतर्द्वंद जरूर मेघा की ही संगति का ही असर है | वो  उससे नाराज होना चाहता है पर वो तो मुस्कुरा रही है, कुछ कहने के लिए खुले होंठ जड़ से हो जाते हैं | मेघा अभी भी मुस्कुरा रही है, मौन होकर भी उसकी आँखें जैसे बहुत कुछ कह  रही है …. शायद वही व्हाइट बॉल, ब्लैक बॉल का फलसफा, शायद वही जो सौ बार कहा है कि बद्दुआ देना भी सबके बस की बात नहीं, कई बार उस इंसान को उस रूप में देखने में भी हमारा दिल दुखता, जिसकी वर्षों बद्दुआ दी होती है,यही तो अपने –अपने संस्कार हैं | वो  फिर से तर्कों से उसे चुप कराना चाहता है पर …नहीं,उसके तर्क ध्वस्त हो रहे हैं | मेघा अभी भी मुस्कुरा रही है | वो उसकी खुली हुई बाहों में किसी शिशु की भांति सिमट जाना चाहता है |सारे तर्कों से दूर, निश्चिन्त | 

वो मेघा की तरफ  अर्धचेतना के साथ  आगे बढ़ रहा है | तभी एक  गें … गें … कुछ अस्पष्ट  सी आवाजे सर्वेंट क्वाटर के रूम नंबर दो से उसके  कानों में पड़तीं हैं, साथ ही पास से गुज़रती कुछ कामवालियों की आवाजें भी , “बुड्ढा मरे तब जान छूटे, जब देखो तब गें , गें | 

एक पल को उसके  कदम ठिठक जाते हैं, और पलट कर सर्वेंट क्वाटर के कमरा नंबर दो की ओर चल पड़ते हैं | वो  अपनी जेब से मोबाइल निकालता है और मेघा को फोन लगाता है | 

हेलो, हेलो , …..मेघा, दादाजी की तबियत बहुत खराब है, मैं उन्हें अपने साथ ला रहा हूँ, उन्हें सेवा की बहुत जरूरत है |”

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