हमें आश्चर्य होगा हुसैनी शब्द के साथ ब्राह्मण शब्द पढ़ कर | क्या यह संभव है ? हाँ  यह संभव ही नहीं यथार्थ भी है और मौजूद भी | संचार क्रांति के दौर में  हमारे सामने इतिहास के कई तथ्य जो आमतौर पर छुपे रहते थे वे सारे धीरे धीरे सामने आने लगे हैं , क्योकि उन्हें खोजना और प्रस्तुत करना बहुत सरल होता जा रहा है | ऐसे ही हुसैनी ब्राह्मण शब्द भी हमें यदा कदा  सुनने पढ़ने को मिलता रहता है | यह भी कहीं सुनने  पढ़ने को मिलता है कि भारत में कुछ लोग जो हुसैनी ब्राह्मण कहलाते हैं वह मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अहले वसल्लम की सहायता के लिए कर्बला के मैदान पर लड़ने भी गए थे | जहाँ  पर मुस्लिम  शासक यजीद की लाखों की सेना  मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन को घेर कर उन्हें मारने के लिए आई थी |
जिस तरह हुसैनी ब्राह्मण होने का सत्य हमें आश्चर्य में डालता है ,लेकिन सत्य है | इस तरह यह कहना कि इमाम हुसैन भी सरहद पार हिंदुस्तान आना चाहते थे यह भी एक अविश्वसनीय आश्चर्यजनक सत्य है |
तो हम हुसैनी ब्राह्मण के बारे में कुछ तथ्य देखते हैं | शुरुआती तथ्य यह है कि लाहौर क्षेत्र में रहने वाले एक धनवान व्यापारी राहीब दत्त  जिसका व्यापार हिंद से लेकर अरब देशों में फैला हुआ था | जिसका आना-जाना मक्का तक भी होता था | क्योंकि मक्का उन दोनों एक व्यापारिक स्थान था | राहीब दत्त  एक समृद्ध व्यापारी जरूर था किंतु इसकी कोई संतान नहीं थी | जब एक बार यह अपने काफिले के साथ मक्का प्रवास पर पहुंचा | यह सन 632 के बाद का समय था जब अरब क्षेत्र में मोहम्मद साहब का प्रादुर्भाव हो चुका था | उनकी नबूवत के किस्से हर तरफ चलने लगे थे और वह मक्का में ही निवास करते थे | जब राहीब  दत्त ने उनकी ख्याति सुनी तो उसके मन में भी यह लालच आया कि वह मोहम्मद साहब से मिले और अपने संतानहीन  होने का दोष  दूर करने का उपाय पूछे | वह  मोहम्मद साहब से मिलने के लिए एक बार मस्जिद में पहुंचा  किंतु उस  समय मोहम्मद साहब  वहां नहीं थे इसलिए मुलाकात नहीं हो सकी |  दूसरी बार वह उनके निवास स्थान पर पहुंचा जहां पर घर के बाहर उनके नवासे इमाम हुसैन अहल्लेवसल्लम जो बच्चे थे खेल कूद रहे थे | राहीब दत्त ने उनसे मोहम्मद साहब  के बारे में पूछा और मिलने की इच्छा प्रकट की | इमाम हुसैन उन्हें खुशी-खुशी अपने नाना के पास ले चले | मोहम्मद साहब से अपना संतान के अभाव का दुख व्यक्त करने पर  मोहम्मद साहब ने उसे आशीर्वाद दिया कि उसे संतान की प्राप्ति होगी | साथ ही अपने नन्हें नवासे  से कहा कि वह खुडा  से दुआ करें राहीब  दत्त के लिए कि  इसके घर में बच्चे पैदा हो | और नन्हे इमाम हुसैन ने आसमान की ओर दोनों हाथ उठा कर खुदा से राहीब दत्त के लिए संतान की दुआ की |                                 
यह सब देख सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ राहीब दत्त  | बहुत भावुक होकर  उसने मन ही मन  निश्चय भी किया और मोहम्मद साहब के प्रति पूरा सम्मान श्रद्धा जताते हुए कहा कि आपकी दुआ से मेरा घर आबाद होता है तो मैं भी भविष्य में जब भी कभी जरूरत होगी मैं आपके सड़के में कुर्बान जाऊंगा |   समय चक्र चलता रहा | स्थितियां बदलती रही | राहिब दत्त के घर एक ,दो ,तीन  नहीं पूरे सात बेटे  हुए | बहुत खुश हुआ राहीब दत्त  अपने बेटों के साथ अपने परिवार के साथ व्यावसायिक क्रियाकलापों में लगा  रहा |                    
632 ईस्वी सन तक मोहम्मद साहब अपना स्वर्णिम कार्यकाल पूरा कर प्रस्थान कर चुके थे | उनके बाद क्रमश:  अबू बकर , मोहम्मद उमर एवं मोहम्मद उस्मान  एक के बाद एक इस्लाम के खलीफा नियुक्त हो चुके थे | मोहम्मद साहब के भतीजे और दामाद अली जो कुछ विवादों के कारण अन्यत्र रहने चले गए थे उन्हे मोहम्मद साहब का चौथा वारिस चुना गया | अब तक इस्लामी समुदाय भी दो फिरको मैं विभक्त हो चुका था | शिया समुदाय जो मोहम्मद साहब के बाद ही अपना अस्तित्व अलग बना चुका था , वह अली को प्रथम खलीफा मानता था | जबकि सुन्नी संप्रदाय के लोग  अली को चौथे नंबर का खलीफा मानते थे | इसी दौरान इस पद के लिए बादशाह यजीद  भी दावेदार था जो कुटिल षड्यंत्रकारी और गलत उद्देश्यों को लेकर चलने वाला था |
उसी के षडयंत्रों के कारण मोहम्मद साहब के भतीजे और खलीफा अली की हत्या हो चुकी थी | उनकी पत्नी फातिमा भी एक  दुर्घटना में मृत्यु को प्राप्त हो चुकी थी | अली के बाद उनके बड़े बेटे हसन को  भी जहर देकर मार दिया गया था | और अब जो जनमानस था वह मोहम्मद अली के छोटे बेटे हुसैन के साथ था | लेकिन ताकत और  सामर्थ्य यजीद  के साथ थी | ईराक और कूफा के लोगों ने कई संदेशे भेज कर  हुसैन  को अपने यहाँ आने का आग्रह किया ताकि वे हुसेन के हाथो में बेत सोंप कर उन्हें अपना  खलीफा घोषित करें |  लेकिन यजीद की कोशीश थी कि  हुसैन  उसका समर्थन करे , उसके साथ रहे या फिर किसी तरह से हुसैन को भी समाप्त कर दिया जाए ताकि उसकी खिलाफत में कोई व्यवधान न हो | 
जनता के प्यारे जनमन के दुलारे हुसैन , यजीद  की सत्ता समृद्धि के आगे कुछ कमजोर से पड़ने लगे थे | बारबार परेशान किए जाने और यजीद के अत्याचारों से तंग आकर हुसैन ने अपने परिवार और रिश्तेदारों के साथ हज यात्रा के लिए निकलने की सोची और 4 मई  680 ई .में यह काफिला हज के लिए मक्का की ओर रवाना हुआ | यजीद की सेना  अपने बादशाह के आदेश अनुसार हुसैन के काफिले का पीछा कर रही थी | कुछ योजनाओं को देखते हुए हुसैन ने अपनी यात्रा हज करने के लिए मक्का की बजाय इराक के दूसरे शहर कुफे की ओर मोड़ दी | इसी यात्रा के रास्ते में पड़ता था कर्बला का मैदान | यजीद की सेना   ने षडयंत्र पूर्वक हुसैन के काफिले को घेरते हुए धीरेधीरे उसे कर्बला के मैदान पर चारों ओर से घेर लिया और उसे वहीं पर रुक जाने को मजबूर कर दिया |                                                    
कर्बला में जहाँ इमाम हुसैन  के काफिले ने अपने तम्बू लगाए थे वह जगह भी हुसैन  द्वारा खरीदी गई थी | लेकिन वहीं नजदीक में पानी की नहर पर यजीद के सैनिकों ने पहरा लगा दिया था | किसी को भी पानी नहीं लेने दिया गया  यजीद  की सेना  का लश्कर जिसका कमांडर था ,  उमर इब्न साद जिसने  कर्बला मैदान को  चारों ओर से घेर  कर उसकी नाकाबंदी करने  के बाद हुसैन को  बाध्य किया कि या तो वे  यजीद को खलीफा मानते हुए उसकी सत्ता स्वीकार कर ले अथवा युद्ध करने के लिए तैयार हो |  कुछ समय तक यथा स्थिति बनी रहने के बाद  हुसैन के समूह जिसमें उनके परिवार के सदस्य एवं रिश्तेदार सम्मिलित थे , जिसमें कई महिलाएं और  बच्चे भी सम्मिलित थे उन सबको अपनी रसद में खाद्यान्न में तकलीफ पड़ने लगी | पीने के लिए पानी की कमी आने लगी |                                                  इस्लाम के हिजरी वर्ष का यह पहला महीना मोहर्रम था जो बहुत पवित्र माना जाता है | हुसैन के काफिले में लगभग बहत्तर  लोग शामिल थे | तब प्रचलित कथा और तथ्यों के अनुसार यह कहा जाता है कि इस समय इमाम हुसैन द्वारा एक संदेशा  रॉबिन दत्त  और उसके साथियों को सहायता के लिए भेजा गया था , जिसके आधार पर राबीन  दत्त  अपने ब्राह्मण साथियों और लड़ाकू योद्धा साथियों को लेकर निकल पड़ा था इराक के नवा नामक स्थान के नजदीक कर्बला के मैदान पर अपने वादे के अनुसार मोहम्मद साहब के नवासे  इमाम हुसैन की सहायता करने | दूसरा तथ्य यह भी कहता है कि हमेशा की तरह व्यापार के सिलसिले में जब राबिन  दत्त का काफिला जिसमें उसके सात बेटों के अलावा  कुछ उसके रिश्तेदार और साथी भी थे वह लोग जब मक्का जाते हुए कर्बला को पार करने लगे तब उन्हें ज्ञात हुआ कि उसके अजीज उसके श्रद्धेय  इमाम हुसैन अपने खानदान के साथ , परिवार के साथ यहाँ  पर रुके हुए हैं | उसने भी वहाँ  रुक कर जब सारा माजरा समझना चाहा तो उसे सब कुछ समझ में आ गया कि  इमाम हुसैन साहब संकट में है | उसने यजीद  की सेना  के कमांडर से मुलाकात की उसकी गतिविधियों में भी दखल दिया और इमाम हुसैन साहब से निवेदन किया कि वह हिंदुस्तान चलें | और यह तथ्य है कि  इमाम हुसैन अहल्लेवसल्लम ने यजीद  की सेना  के कमांडर  से कहा कि यदि वह हमें यहां से जाने की इजाजत देता है तो हम  वापस अपने घर नहीं जाते हुए सरहद पार  हिंदुस्तान जाना चाहेंगे | हम जानते हैं कि हिंदुस्तान में कोई भी मुसलमान अभी नहीं है , लेकिन हमें इल्म है कि हिंदुस्तान में इंसान लोग रहते हैं |                                                 
पाठक इस तथ्य से यह एहसास कर गर्व कर सकते हैं कि उस पुरातन काल में भी भारतीय सभ्यता की , भारतीय मान्यताओं की कदर दूरदूर तक थी | कठोर और अत्याचारी यजीद  के निर्देशानुसार उसकी सेना  के कमांडर ने इमाम हुसैन के प्रस्ताव को बिल्कुल नकार दिया और उनके सामने  दो ही विकल्प रखे या तो यजीद  की सत्ता को स्वीकार करें | उसे अपना खलीफा मंजूर करें या फिर युद्ध करें | जब राबिन दत्त  ने देखा कि अब युद्ध अवश्यंभावी  है तो उसने अपने साथियों और बेटों के साथ इमाम हुसैन की सहायता के लिए यजीद  की सेना  से युद्ध किया और एकएक करके उसके सातों  बेटे मारे गए | उसके कई कई साथी मारे गए और राबिन दत्त और  उसके साथियों को कैद  कर लीया गया |                                                       
इमाम हुसैन के साथ क्या हुआ यह दारुण मार्मिक कहानी पूरे विश्व में जनजन तक व्याप्त है जिसे कहने  और सुनने से भी दिल दहल उठते हैं  | अंतिम तीन दिनों तक इमाम हुसैन साहब के परिवार को पानी से भी वंचित रखा गया | खाना तो पहले ही खत्म हो चुका था | यजीद की सेना के आक्रमण शुरू करने पर हुसेन द्वारा एक रात की मौहलत माँगी गई अल्लाह की इबादत करने के लिए | १० अक्टोबर ६८० ई को सुबह नमाज के पहले ही जंग शुरू हो गई और प्यास  से तड़पते इमाम हुसैन के 72 सदस्य एक के बाद एक सेना  के कमांडर के सामने युद्ध के लिए जाते रहे और मरते रहे | इमाम हुसैन के काफिले में जहां कुछ पुरुष थे , कुछ नाजुक कमजोर महिलाएं थी तो कुछ ऐसे बच्चे भी थे जिन पर दुनिया का कोई भी निर्मम  व्यक्ति रहम खा सकता था | लेकिन उन पर रहम नहीं किया गया | 6 महीने के अली असगर को तीन नोक वाले तीर से मारा  गया | 13 साल का हजरत कासिम को जिंदा घोड़ों की टापों से कुचल कर मार  डाला गया |  और 8 माह  के  ऑन मोहम्मद के सिर पर तलवार चलाकर हलाक किया गया | सारे बहत्तर  साथी इमाम हुसैन के साथ शहादत को प्राप्त हुए और राबिन दत्त के सातों बेटे भी इस धर्म युद्ध में हलाक हुए |  इमाम हुसैन के  एक बेटे जैनुल आबिदीन जो बीमार होने के कारण काफिले के साथ नहीं आ पाए थे केवल वही बच पाए | न्याय के पक्षधर यह सारे लोग खेत  रहे और यह दिन था मोहर्रम का दसवां दिन , और उसी  शहादत की याद में उसी  शहादत को स्मरण करते हुए सारे अरब देशों में मुस्लिम देशों में और हमारे भारत में भी शिया मुसलमानों द्वारा मोहर्रम शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है |                             
सातों बेटों  और अन्य कुछ साथियोंकी मृत्यु के बाद राहिब दत्त  और उसके कुछ साथियों को जिंदा ही कैद कर लिया गया | कर्बला के  संघर्ष के दौरान अपने मुरीद राहिब दत्त के सहयोग से द्रवित हुए इमाम हुसैन ने राहिब दत्त  के साथियों को हुसैनी ब्राह्मण के संबोधन से नवाजा | इराक में जहां पर उनके साथी रुके हुए थे उसे देर अल हिंदीया  यानी द इंडियन कार्टर कहा गया जहां पर इराक में यह लोग रहे थे वह स्थान आज भी इराक में “ अल हिंदीया “जिला कहा जाता है | एक और काम इमाम हुसैन ने किया | उन्होंने अपने समर्थकों  से यह आग्रह किया कि  इन हुसैनी ब्राह्मणों  पर  धर्म परिवर्तन के लिए कभी भी दबाव नहीं डाला जाए | और  उसी का परिणाम है कि इराक में  उस समय के बच रह रहे  ब्राह्मण जिनकी आबादी वर्तमान में 14000 के लगभग होगी उन पर कभी किसी सत्ता ने , किसी शासन ने धर्म परिवर्तन का दबाव नहीं डाला |
यजीद  की कैद में रहे राहीब दत्त और उसके कुछ साथियों को कुछ दिनों बाद छोड़ दिया गया | वापस वह अपने हिंदुस्तान आए | कुछ लोग सियालकोट के पास एक ग्राम है वतन वीरान , उसमें रहकर अपने परिवार का विस्तार करने लगे | कुछ लोग लाहौर पहुंचे , वहां जाकर लाहोरिया गेट और मोची गेट पर रहने लगे | हिंद के वहाँ  के निवासियों ने इनका सम्मान किया इन्हें इज्जत बख्शी कि इन्होंने इमाम हुसैन की मदद की और इन्हें सम्मान स्वरूप हुसैनी ब्राह्मण का संबोधन बरकरार रखा | यह हुसैनी ब्राह्मण उस दौर में भी मुसलमान नहीं बने | उन्होंने इस्लाम भी ग्रहण नहीं किया लेकिन उनकी श्रद्धा उनके जज्बात इमाम हुसैन के प्रति , इस्लाम के प्रति और मोहम्मद साहब के प्रति बहुत ही सम्मान और श्रद्धा युक्त रहे और इसी कारण इमाम हुसैन के शहादत की यादगार में हर साल मनाये  जाने वाले मोहर्रम पर्व पर ताजियों के निर्माण में इनका योगदान और उनकी श्रद्धा सदैव प्रदर्शित होती रही |  लखनऊ चौक में पहले हर घर में हिंदू ब्राह्मण ताजियों को रखवा कर उनका सम्मान करते थे | अभी भी कुछ घरों में यह ताजियादारी  होती है |तभी इनके सम्मान में एक कहावत भी काही गई थी कि वाह दत्त सुल्तान ,हिन्दू का धर्म मुसलमान का ईमान , आधा हिन्दू आधा मुसलमान  
दत्त  उपनाम से संबंध और अन्य कुछ  हुसैनी ब्राह्मण हर साल ताजियों के निर्माण में अपना आर्थिक योगदान भी देते हैं | ये हुसैनी   ब्राह्मण मोहयाल समुदाय के  होकर अब हिंदू और मुस्लिम दोनों संप्रदाय में पाए जाते हैं | इनके सात उपकूल माने जाते हैं जो बाली , भीमवाल , छिबर , दत्त , लाऊ मोहन एवं वैद कहलाते हैं |  इनकी आबादी कुछ मात्रा में इराक के अलावा कश्मीर , दिल्ली , राजस्थान पंजाब और महाराष्ट्र सिंध तथा पाकिस्तान में पाई जाती है |
 कुछ  हुसैनी ब्राह्मण ने इस्लाम भी ग्रहण किया फिर भी वह स्वभावत: मूल रूप के ही प्रतीत होते हैं | अन्य मुसलमान की तुलना में औसतन नम्र दयालु और शांत | ऐसे  मुस्लिम अभी भी बहुत से हिंदू रीति रिवाज को मानते हैं | पहाड़ों से उतर कर आने वाले गुर्जर समुदाय के मुस्लिम अभी भी गौ पूजा करते हैं , और इसी तरह हिंदुओं के धार्मिक स्थान ऋषिकेश के आसपास श्यामपुर एवं भेसूर नामक स्थान पर उनकी आबादी पाई जाती है | यह देखा गया है कि शिया संप्रदाय के मुस्लिम जहाँ  बहुतायत में होते हैं उन्हीं के आसपास इन हुसैनी ब्राह्मण की भी बहुलता  पाई जाती है |
हुसैनी ब्राह्मण के जीवन में फिर एक दौर परिवर्तन का आया | 1947 की आजादी के बाद बंटवारे के समय यह सारे लोग जो हिंदुत्व को छोड़ नहीं पाए थे अपने मूल देश भारत की ओर भागे  |  लाहौर और सियालकोट में इन्हें जो सम्मान आदर प्राप्त हुआ था आजाद भारत के मुस्लिम या हिंदू इन्हें वह सम्मान कभी नहीं दे पाए | भारत में आज यह लोग जम्मू चंडीगढ़ दिल्ली पुणे पुष्कर मुंबई सिंध  आदि स्थान में रह रहे हैं | आर्थिक रूप से कुछ कमजोर शिया समुदाय के आसपास रहने के प्रयास करते हैं | ऐसा नहीं है कि इस समुदाय के लोग कमजोरी या अत्यंत निम्न या महत्वहीन हो | हमारे देश के कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तित्व इस  समुदाय से संबंध हैं  उदाहरण स्वरूप हिंदुस्तान के बॉलीवुड के प्रसिद्ध व्यक्तित्व जो एक कलाकार के अलावा अपने स्वभाव अपनी मान्यताओं के लिए भी बहुत लोकप्रिय है सुनील दत्त | वह इसी हुसैनी ब्राह्मण समुदाय से सम्बद्ध  है | उनकी पत्नी नरगिस के पिता मोहन जी भी   भी हुसैनी ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने बाद में परिस्थिति वश इस्लाम ग्रहण कर लिया और  मुसलमान बन गए |  एक और फिल्म कलाकार अजय देवगन भी हुसैनी ब्राह्मण से सम्बद्ध  है | इनके अलावा  नंदकिशोर विक्रम  , प्रसिद्ध उर्दू लेखक कश्मीरी लाल जाकिर और शास्त्रीय गीत संगीत के प्रसिद्ध महिला सुनीता झींगरण , यह भी हुसैनी ब्राह्मण समुदाय के अंतर्गत आते हैं | इनके अलावा भी कई लोग हैं  जिन्हें आप उनके उपनामों से समझ सकते हैं | कुछ मुख्य उपनाम जैसे छिबबल  जैसे बक्शी जैसे विमल जैसे बाली और पंजाब प्रांत से आए हुए दत्त  यह सभी हुसैनी ब्राह्मण के अंतर्गत ही आते हैं |
एक और समानांतर कथानक प्रचलित है जिसके द्वारा इन हुसैनी ब्राह्मणों  का संपर्क महाभारत कालीन पात्रों से भी जोड़ा जाता है | कहा जाता है कि ऋषि द्रोणाचार्य  के पुत्र अश्वत्थामा  युद्ध में घायल होकर पलायन करने के बाद इराक पहुंचे थे | वहां कुछ समय वह  भ्रमण करते रहे थे तो उनके वंशज भी हुसैनी ब्राह्मण के रूप में ही बाद में पाए गए  |
लंबे समय के उपरांत पाए गए तथ्य , प्रचलित मान्यताओं और इतिहास के गलियारों में भटकते तथ्यों के आधार पर उपरोक्त लेख निर्भर है किंतु इन सब मान्यताओं , धारणाओं और कथानकों से स्थापित यह तथ्य तो सबको स्वीकार करना होगा कि  अरब देशों की भूमि से सुदूर आर्यावर्त में रहने वाले मानवीय स्वभाव के देवी प्रवृत्तियों के स्वामियों ने अपने सहायक इस्लामिक व्यक्तित्व के एहसान को मानते हुए उनकी सहायता की | उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा भी बनाए रखा और अपना धर्म भी बचाए रखा |  हमें ऐसे जुझारू संघर्षशील  समुदाय को सादर सम्मान देना चाहिए | उन्हें नमन करना चाहिए |
संदर्भ  ग्रंथ
1) मोहम्मद हसन जफर नकवी निवासी पाकिस्तान का शोध ग्रंथ
2) ब्रिटिश लेखक क रसेल लिखित हुसैनी ब्राह्मण के बारे में किताब
3) प्रोफेसर नोनिका गुप्ता का शोध
4) लेखक मजीद शेख के तथ्य
5) अमृतसर में हौसनी ब्राह्मण और मुहर्रम का भूला इतिहास — द वायर – भारतीय समाचार और राय वेब साईट 
6) महाड़ी नाजमी लिखित “ रेग ए सुर्ख ब्राह्मण ईमाम हुसैन से रब्त और जब्त — अबू तालीब अकादमी नई दिल्ली 
7)  पुस्तक हिस्ट्री ऑफ मोहियालस

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