Friday, October 25, 2024
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अशोक चक्रधर की कविताएँ

हिंदी साहित्य में पद्मश्री अशोक चक्रधर का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अशोक जी हिंदी के उन विरले रचनाकारों में से एक हैं, जिन्हें जितना मंचीय कविता के लिए प्यार और सम्मान मिला, उतना ही प्यार और सम्मान हिंदी कविता के गंभीर पाठकवर्ग ने भी उन्हें दिया। आप केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली के उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहकर हिंदी के उत्थान के लिए काम कर चुके हैं। पुरवाई परिवार के लिए गौरव की बात है कि आज हमें आपकी कविताएँ प्राप्त हुई हैं। इन कविताओं को अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हम अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।

1- सहारे की हथेली
कहे परिवेश— मैं धन्या,
कहे यह देश— मैं धन्या,
कलेजा क्लेश से कंपित,
ये मैं हूं देश की कन्या!
अश्रुजल से हुई खारी,
कहा जाता मुझे नारी!
परा तक पीर की पर्वत,
कहा जाता मुझे औरत!
यहां हूं देश की कन्या!
वहां हूं देश की कन्या!
बहन, पत्नी, जननि, जन्या,
इसी परिवेश की कन्या!
मैं सोनल हूं, मैं सलमा हूं,
सुरैया हूं, मैं सरला हूं,
मैं जमुना हूं, मैं जौली हूं,
मैं रज़िया हूं, मैं मौली हूं
मैं चंदो हूं, मैं लाजो हूं,
सुनीला हूं, प्रकाशो हूं,
मैं कुंती हूं, मैं बानो हूं,
मैं हुस्ना हूं, मैं ज्ञानो हूं।
मैं राधा, रामप्यारी हूं,
वतन की आम नारी हूं।
दुखों की क़ैद में लेकिन,
रहूंगी और कितने दिन?
न हूं मैं बंदिनी सुन लो,
न हूं अवलंबिनी सुन लो!
सृजन की शक्ति है मुझमें,
अतुल अनुरक्ति है मुझमें!
मैं बौद्धिक हूं, विलक्षण हूं,
त्वरा तत्पर प्रतिक्षण हूं!
मैं प्रतिभा हूं, मैं क्षमता हूं,
मैं जननी हूं, मैं ममता हूं!
सहारे की हथेली हूं,
कहा तुमने पहेली हूं!!
2- तुम्हारे वास्ते तो थी
समझ पाए नहीं मुझको
सदा डरते रहे मुझसे,
इसी कारण दबाया
बस घृणा करते रहे मुझसे।
तुम्हारा मन मेरे मन को
नहीं हरगिज़ समझ पाया,
तुम्हारे वास्ते तो थी
महज़ स्पंदनी काया!
ये माना, मैं प्रकृति की कल्पना के
काव्य की काया,
ये माना, मैं मही पर महत्तम
महिमामयी मनमोहिनी माया।
ये माना, रूप की मैं
चिलचिलाती धूप हूं लेकिन
धकेला कूप में तुमने
समझ कर एक सरमाया।
कठिन कर्तव्य कर्मों के गिना कर
हक़ कुतर डाले,
सहज उन्मुक्त मैं उड़ ही न पाऊं,
पर कतर डाले।
मगर निज स्वार्थ में कुछ बेचते
तो चित्र मेरा छापते हो तुम,
मेरे सौन्दर्य को
सम्पत्ति अपनी मानकर
आपादमस्तक, नख से शिख तक
लालची अपने लचीले,
फालतू फीतों से
मुझको नापते हो तुम!
न हो जाए कहीं पर किरकिरी,
यह भय तुम्हारी अस्मिता में
किरकिराता है,
मुझे मालूम है
डरता जो अंदर से
वही बाहर डराता है।
3- इधर बस ज़ख़्म हैं गहरे!
तुम्हारा कुंदमति कुंठन,
बनाता नित्य अवगुंठन।
तुम्हारी न्याय मीमांसा,
सदा देती रहीं झांसा।
गढ़ीं अनुकूल परिभाषा
तुम्हारे सत्य की भाषा
तुम्हारे धर्म की भाषा
तुम्हारे न्याय की भाषा
अब आकर जान पाई हूं,
भरोसों से अघाई हूं!
अभी भी सोचते हो तुम
कि दासी हूं मैं अनुगत हूं,
बराबर से अधिक हूं पर
महज़ ‘तेतीस प्रतिशत’ हूं!
यहां कुछ हैं जिन्हें
तेतीस भी कैसे गवारा हो,
कहा करते हैं प्रतिशत
बीस हो या सिर्फ़ बारा हो।
बताओ तो ज़रा ये दर्दे-सिर
क्यों व्यर्थ ढोते हो,
ये प्रतिशत में कृपाएं देने वाले
कौन होते हो?
उधर चेहरों पे हैं चेहरे,
इधर बस ज़ख़्म हैं गहरे!
मैं क्रोधी हूं, विरोधी हूं,
मैं चिंगारी प्रकट वन्या!
ये मैं हूं देश की कन्या!
यहां हूं देश की कन्या!
वहां हूं देश की कन्या!
इसी परिवेश की कन्या!
4 – तुम्हें चाहिए सेवाव्रती दासी
तुम्हारे सामने हूं,
सामना करती हुई मैं हूं,
तुम्हें सद्बुद्धि आए,
कामना करती हुई मैं हूं!
तुम्हारी चाकरी में,
नींद पूरी भी न सोई मैं,
सवेरे द्वार तक आंगन बुहारा
फिर रसोई में, लगी,
बच्चे पठाए पाठशाला
फिर टिफ़िन-सज्जा,
गई ख़ुद काम पर
आई नहीं तुमको तनिक लज्जा,
कि लौटी तो तुम्हें फिर चाहिए
सेवाव्रती दासी,
तुम्हें क्या बोध जीवन शोध
भूखी है कि वो प्यासी!
किया है काम मैंने भी
लगी मैं भी रही दिनभर
वो घर की देहरी हो,
या कि हो दूरस्थ का दफ्तर।
कहीं मैं डॉक्टर हूं
तो कहीं करती वकालत हूं,
कहीं अध्यापिका या जज बनी
देती हिदायत हूं।
कहीं मैं सांसद हूं,
कहीं पर प्रतिभा परखती हूं,
मैं घर के बुज़ुर्गों का,
बालकों का ध्यान रखती हूं।
नहीं क्यों तुम मुझे
मेरा प्रतीक्षित मान देते हो,
कृपाएं ही लुटाते हो,
फ़कत अनुदान देते हो!
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5 टिप्पणी

  1. स्त्री से डरा पुरुष यही सच्चाई है।पुरुष 6ये मुद्दे उठाता है तो ठीक अभी 4महिला उठाया तो स्त्री विमर्श में डाल कर 3क्रोधित पुरुष सब 4सिर से खारिज कर देता है। कहता है जीवन संगिनी पर दासी चाहता है स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व खल जाता है ।
    बे- ज़बान दासी ही अभिप्सित होती है वही पत्नी विकसित व्यक्तित्व के बच्चे पाल कर समाज को दे, बड़ी विडंबना है। स्त्री को बराबरी का स्थान देने से मर्द घबराते हैं तभी तो इस्लाम में हिजाब और हिंदुओं में घुंघट कराते हैं।
    जाने कब पुरुष स्त्री के व्यक्तित्व और अस्तित्व को मान्यता देगा, आरक्षण नहीं बराबरी से जीने का हक़ देगा? अच्छी रचनाएं (यदि यह वास्तविक विचार हैं, हिट होने का नुस्खा नहीं)

  2. सभी कविताएँ सार्थक और अच्छी हैं। स्त्री की स्थिति अलग रूप में चित्रित है।इस उपलब्द्धि के लिए आभार
    ‘ पुरवाई ‘

    • मीरा जी, आपने कविताएं पढ़ीं और पुरवाई की उपलब्धि पर बधाई भी दी। आपका हार्दिक आभार।

  3. आदरणीय अशोक चक्रधर जी!
    सादर प्रणाम

    पुरवाई के पटल पर आपका स्वागत है। पटल पर आपकी कविताओं को देखकर अच्छा लगा। चारों ही कविताएँ पढ़ीं और चारों ही कविताएँ नारी पर हैं।
    कई रंग,कई रुप। इसीलिए कहते हैं नारी तेरे रंग हजार।

    पहली कविता में अपने आप को परिभाषित करते हुए स्त्री ने मानो घोषणा ही कर दी है कि अब वह पहले जैसी नारी नहीं रही जो पहले गुलामों की तरह डरी ,दबी ,सहमी रहा करती थी और चुपचाप अत्याचारों को सहती रहती थी।अब वह दबंग की तरह निडरता से घोषणा करती है-
    *न हूं मैं बंदिनी सुन लो,*
    *न हूं अवलंबिनी सुन लो!*
    *सृजन की शक्ति है मुझमें,*
    *अतुल अनुरक्ति है मुझमें!*
    *मैं बौद्धिक हूं, विलक्षण हूं*,
    *त्वरा तत्पर प्रतिक्षण हूं!*
    *मैं प्रतिभा हूं, मैं क्षमता* हूं,*
    *मैं जननी हूं, मैं ममता हूं!*
    *सहारे की हथेली हूं*,
    *कहा तुमने पहेली हूं!!*
    अपनी सारी खूबियों के साथ यह नारी का आह्वान है
    संभवतः पुरुष इस परिवर्तन से अचंभित है, इसलिए स्त्री पहेली लगी। वैसे परिवर्तन महसूस हो रहे हैं नजर भी आ रहे हैं।
    शीर्षक बहुत पसंद आया ।स्त्री सहारे की हथेली है इसमें कोई दो मत नहीं।

    दूसरी कविता में नारी का आक्रोश महसूस हो रहा है अपने प्रति होने वाले हर अत्याचार के लिए वह खुलकर विरोध पर उतारू नजर आई।
    इस कविता की दूसरी पंक्ति ने थोड़ा सा आश्चर्य में डाला।
    *समझ पाए नहीं मुझको*
    *सदा डरते रहे मुझसे*,
    *इसी कारण दबाया*
    *बस घृणा करते रहे मुझसे*
    आप इतने बड़े कवि हैं कि आपकी रचना पर कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने के समान है पर हम जो महसूस कर रहे हैं उसे लिखने से अपने को रोक नहीं पा रहे।
    यहाँ पर आपकी दूसरी पंक्ति हमें प्रश्नवाचक की तरह लगी। यहाँ *डर* स्पष्ट नहीं हुआ हमें ,जबकि इसी कविता के आखिरी पद में डर शब्द का सही और समुचित प्रयोग हुआ है। आप स्वयं देखिए-

    *न हो जाए कहीं पर किरकिरी,*
    *यह भय तुम्हारी अस्मिता में*
    *किरकिराता है,*
    *मुझे मालूम है*
    *डरता जो अंदर से*
    *वही बाहर डराता है।*
    जो शिकायतें ऊपर दर्ज है, उसके प्रतिरोध की शंका से उत्पन्न भय है।यहाँ भय स्पष्ट हुआ।

    *इधर बस ज़ख्म है गहरे हैं।*
    यह कविता अधिकार की कविता महसूस हुई। जो अधिकार उसे मिलना था पर मिला नहीं ।33% तो ठीक है पर कुछ लोगों को वह भी गवारा नहीं। यह कविता कुछ-कुछ राजनीति से संबद्ध महसूस हुई ।लेकिन अच्छी व सच्ची लगी ।

    नारियों के अधिकार और प्रतिरोध के स्वरों को आपने चार कविताओं में व्यक्त किया। अन्यथा कुछ भी नहीं है ,क्योंकि ऐसा सब होता ही रहा है। समय के परिवर्तन के साथ-साथ आज नारी में बदलाव आ रहा है। संभवत: अब आपके स्वर बदल सकते हैं स्त्रियों के प्रति।
    हालांकि इन शिकायतों में हमने स्वयं को कहीं भी खड़ा हुआ नहीं पाया पर यह तो तय है कि ऐसा होता है। और हम इस कविता के समर्थन में हैं।
    बेहतरीन कविताओं के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का भी शुक्रिया और पुरवाई का आभार तो बनता ही है की पुरवाई के माध्यम से एक लंबे समय के बाद अशोक चक्रधर जी! आपको पढ़ पाए।

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