हरीश अरोड़ा कृत ‘महाप्रयाण’ एकांकी संग्रह–चेतना का नवीन स्वर

 

डॉ साक्षी, सत्यवती महाविद्यालय (सांध्य)

दिल्ली विश्वविद्यालय, ई.मेल- sakshi060188@gmail.com    

 

एकांकी का सम्बन्ध प्राचीन नाट्यशास्त्र से होते हुए भी वह स्वरुप में नाटक से भिन्न है। ‘एकांकी’ का अर्थ एक अंक वाला से है। अर्थात लेखक जिसमें एक अंक के अन्दर ही अपनी परिकल्पना को समावेशित करता है। “हिंदी एकांकी का उदय संस्कृत आदर्शों पर भारतेंदु युग में ही हो चुका था ….पर इसमें किसी सुनिश्चित शैली का पालन नहीं है … इसमें एक अंक के सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा नहीं मिलती, किन्तु एकांकी कला के कुछ महत्वपूर्ण तत्त्व अवश्य मिल जाते हैं।”[1] “एक ही विचार (आइडिया) पर एकांकी नाटक की रचना हो सकी है। विचार के विकास के लिए जो संघर्ष (कनफ्लिक्ट) अनिवार्य है, उस संघर्ष के पूरे नाटक में कई पहलू दिखाए जा सकते हैं। पर एकांकी में सिर्फ एक पहलू।”[2]

एक तरह से कहा जा सकता है की एकांकी में एक सुनिश्चित, सुकल्पित, एकलक्ष्य, संकलन-त्रय के साथ रंग संकेत, कथावस्तु, पात्र या चरित्र चित्रण, कथोपकथन, रस-भाव और उद्देश्य में पिरोया जाता है। “वर्तमान में एकांकी का शिल्प भिन्न है। स्वरुप, विषय और उद्देश्य सबमें परिवर्तन आया है।”[3]

अभी तक के क्रम में एकांकी और नाटक संवेदना तथा शिल्प के कई आयाम तय कर चुका  है। व्यष्टि-चेतना, समष्टि-चेतना, राष्ट्र-संस्कृति-राजनीति, लोकधर्मिता, मध्यवर्ग की विडम्बना और हास्य-व्यंग्य आदि  – एक प्रकार से जीवन के लगभग सभी अंशों से जुड़ चुका है। इसी क्रम में हरीश अरोड़ा का एकांकी-लेखन राष्ट्रीय चेतना की खोई आवाज़ को पुनर्जीवित करने का कार्य करता है, विशेषकर- ‘महाप्रयाण’। ‘महाप्रयाण’ भारतेंदु के मुद्राराक्षस नाटक के विचार का विस्तार है । मुद्राराक्षस नाटक के केंद्र में राष्ट्र और समाज है इस एकांकी में इसी को लेकर बहस प्रस्तुत की गई है, एक असमाप्त-व्यापार (unfinished business) । यह एक प्रकार का विस्तार है जो विचारधारात्मक विमर्श का आगामी पड़ाव है।  आपने आर्यावर्त के स्वर्णिम इतिहास का पुनः स्मरण करवाया है, लेकिन जिसकी चेतना नवीन है। “कोई भी प्रतिभा संपन्न, प्राणवंत साहित्यकार अपने समय के ताप को अनुभव किये बिना रह नहीं सकता, और वह जो अनुभव करेगा तो उसके साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति होगी ही।”[4] रचनाकार के कार्य से उसका समाज और समाज के कार्य से रचनाकार असम्पृक्त नहीं रह सकते  । महाप्रयाण में इस बहस को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। रचनाकार के कृति का अंत कोई समाज से विलग नहीं हो सकता।

आज विचारों की जो टकराहट समाज और राजनीति में दिख रही है उसमें पूर्व व पश्चिम का सांस्कृतिक भेद स्पष्ट दृष्टव्य है । आज विकास के स्वरुप और धरातल पर चर्चा होती है। ऐसे में एक सजग विचारक अपनी अस्मिता और गौरव की खोज करे तो कुछ गलत नहीं। हमें परंपरा के किन अंशों को स्वीकारना है और किन विचारों को आयातित करना है यह गंभीर विषय है । हरीश अरोड़ा हमारे आदर्श इतिहास व मिथकों पर विचार कर संस्कृति के उन उज्जवल पक्ष की ओर पाठक का ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं जो भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय रहा। वे इतिहास के माध्यम से मूल्यहीनता, विघटन, असंतोष को समसामयिक परिप्रेक्ष्य से समझने की कोशिश करते हैं। हर युग के परिवर्तन के पीछे एक घुटा हुआ इतिहास है जिससे मुक्ति दिलाकर मानवीय नैतिकता की स्थापना का लक्ष्य ही उन परिवर्तन की दिशा तय करता है। “राजनीतिक प्रगतिशीलता का काम नुस्खों से चल सकता है, पर साहित्यिक प्रगतिशीलता जीवन की गहराई में प्रवेश किये बिना नहीं आती।”[5]

हरीश अरोड़ा ‘महाप्रयाण’ के अंतर्गत इतिहास से प्रेरणा स्रोत संगृहीत कर उनके उपेक्षित पक्षों तक के मंतव्यों में सन्निहित राष्ट्रीय दायित्व बोध की तरफ ध्यान इंगित करते हैं। इस संग्रह में कुल चार एकाँकी हैं- जिनकी विशेषता उनका राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का स्वर है। ‘महाप्रयाण’ में मौर्य काल, ‘अर्धसत्य’ और ’त्यागपत्र’ में महाभारत काल, और ‘आत्मोत्सर्ग’ में रामायण काल और उनकी कथाओं के पीछे की मूल करवटों को लेकर मंथन किया गया है।

‘महाप्रयाण’ में गुप्त काल के स्वर्णिम इतिहास की परिपाटी दर्शायी गयी है । यह हमारे अतीत के गौरव गान का समय है। इसके अंतर्गत भारत का उदात्त जीवन-दर्शन, उन्नत भारतीय सभ्यता, धर्म के साथ दर्शन का श्रेष्ठ रूप, शीर्षस्थ राष्ट्र भक्ति जैसे भाव जिनका स्मरण मात्र भारतीय जन मानस में एक चिंगारी के सामान उर्जावान होता है, को आधारभूमि के रूप में प्रयोग किया गया है। राष्ट्रीय व जातीय स्वाभिमान के इतिहास को हरीश अरोडा ने अपने एकांकी का विषय चुना । इस काल में जड़ व्यवस्था का खंडन कर उचित लोकतांत्रिक-वरणीय-उर्जस्वित व्यवस्था का निर्माण हुआ। मानवीयता के साथ राष्ट्रीयता का स्वर तीव्र हुआ। एक विभक्त राजनीति के स्थान पर एकात्म की राजनीति का साक्षात्कार हुआ। “यदि व्यक्ति इतिहास बनाता है तो वहां मात्र व्यक्ति ही नहीं प्रत्युतर समष्टि की आकांक्षा का वह प्रतिनिधित्व भी होता है। समष्टि चाहे सुप्त दशा में ही क्यों न हो व्यक्ति उसके चरित्र की प्रेरिका होती है।”[6]

‘महाप्रयाण’ में चाणक्य के अखंड-राष्ट्र के स्वप्न की पूर्ति हेतु नन्द वंश के अंत की रणनीति द्रष्टव्य है । अनुराग जो एकांकी का प्रमुख चरित्र है, जिसकी रचना का नाम है ‘महाप्रयाण’, उसकी रचना से आम जन जीवन में नवीन चेतना का संचार हुआ है।  परन्तु स्वयं लेखक अनुराग इस ग्रन्थ के अंत को लेकर निश्चित व संतुष्ट नहीं है । एकांकी के अन्दर कई प्रश्न है । हिंसा-अहिंसा में कौन सी स्थिति वरणीय व उचित है, नैतिकता व मानवीयता की रक्षा कैसे हो – इसी मानसिक उद्वेलन से ग्रस्त है। वह यथार्थ और कल्पना के द्वंद्व में फंस जाता है। चन्द्रिका, सुकांत, सिद्धार्थक मानो उसे लक्ष्य तक ले जाने वाली कड़ी हैं। कल्पना की आधारभूमि हमारा देख-सोच-समझा यथार्थ ही है । यथार्थ और कल्पना का सापेक्षता सम्बन्ध है जिसका आभास अनुराग को समय-समय पर होता है।     “महाकवि चेतो चेतो कल्पना ही जीवन है।”[7]  “मनुष्य का कर्म ही उसका यथार्थ है ।”[8]

‘महाप्रयाण’ एकांकी में साहित्य का समाज व राजनीति से गहरा सम्बन्ध दर्शाया गया है। “सारा साहित्य अपने परिवेश में गढ़ा जाता है। यद्यपि कला के भक्त दावा करते हैं कि साहित्य विश्व की दिशा बदल सकता है, सच्चाई यह है राजनीति पहले आती है और साहित्य उसके अनुरूप बदलता है।”[9] हरीश अरोड़ा के इस संग्रह में भी राजनीति और साहित्य का यह सापेक्षता सम्बन्ध दिखता है जिसका स्वर आज का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य भी है। विकल्प मौजूद है चयन दिशा निश्चित करेगा।

साहित्यिक और विचारधारात्मक मत अलग हो सकते है परन्तु उनमें लोक कल्याण व लोकचेतना का भाव अंतर्निहित होना चाहिए। वास्तव में साहित्य का यही उद्देश्य है। वे अनुराग को समझाते हैं कि उनकी रचना ‘महाप्रयाण’ “राष्ट्र की सम्पदा का एक अंश है और फिर तुमने जिन भावों को समाज में उनके हिताय बाँट दिया है, उन भावों को उनसे माँगने का अधिकार अब तुम्हें नहीं।”[10]

एकांकी में राष्ट्रीय सुरक्षा, अखंड भारत, एकत्व की भावना मूल रूप में दृष्टिगत हुई है। विष्णुगुप्त का भी यही लक्ष्य था। “आचार्य मात्र नंदवंश का सर्वनाश नहीं करना चाहते …..वे नन्द वंश के साथ इस समाज में फलीभूत क्रूरता और निराशा को समाप्त करने का निश्चय कर चुके हैं।”[11] राष्ट्र भावना किसी भी अन्य निजी भावना से सर्वोपरि है। “देश की अखंडता का प्रश्न मनुष्य की इच्छाओं या उसकी समस्याओं से कहीं अधिक विशाल है।”[12] जन में राष्ट्र प्रेम का प्रसार और जीर्ण क्षीण भावनाओं से ऊपर उठाना, साथ ही सकारात्मक दिशा प्रेषित करना साहित्य का उद्देश्य है। ‘महाप्रयाण’ में हरीश अरोडा लिखते हैं-  “राष्ट्र का हित जीवन जीने में नहीं जीवन समझने में है।”[13]

हरीश अरोड़ा की दो एकांकी की पृष्ठभूमि भारतीय संस्कृति के महान ग्रन्थ ‘महाभारत’ पर सृजित है। ‘त्यागपत्र’ और ‘अर्धसत्य’ नामक दो एकांकी हैं जिसमें एक युद्ध से पहले और दूसरा युद्ध के बाद की स्थिति पर मत-मतान्तर प्रस्तुत किया गया है। ‘त्यागपत्र’ में एक ओर भीष्म और विदुर धृतराष्ट्र को कौरवों और पांडवों के विद्वेष से पैदा होने वाले भीषण जनसंहार व जान माल की हानि के प्रति सचेत कर रहे हैं । वह धृतराष्ट्र को चेता रहे हैं कि भविष्य की आधारशिला का बोझ राजा के कंधों पर ही होता है। एक राजा को राष्ट्र की चिंता पहले और स्व की चिंता बाद में होनी चाहिए। लोभ और स्वार्थ जनित महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण राष्ट्र के नाश का कारण बनती है। “अपने कर्तव्यों से विचलित हुआ राजा नेत्रों के होते हुए भी नेत्रहीन होता है और अपने युग की विडंबनाओं का वही मूल आधार बनता है।”[14] विदुर समझाते हुए कहते है – “राजसिंहासन किसी की व्यक्तिगत सम्पदा नहीं है कि विनाशलीला के पश्चात मृतभूमि का सम्पूर्ण दायित्व युवराज दुर्योधन पर नहीं आप पर होगा।”[15] वहीँ दूसरी ओर दुर्योधन इन नीति वचनों से क्रुद्ध हो उनका विरोध करता है। दुर्योधन में बसा आत्माभिमान व कुंठा उसकी विचार दृष्टि को बाँध देता है।

एकांकी का आरम्भ ही अनहोनी की आशंका से होता है । “त्याग, पुण्य, सच- कोई नहीं बचा सकेगा कुरुवंश को……मैं केवल आशा करता हूँ , सत्य की आशा , पुण्य की आशा ,मानव धर्म के आदर्श का यथार्थ ।”[16]  विदुर की नीति-बुद्धि इस अनहोनी को नही होने देना चाहती। वह इसकी संभावना को ही ख़त्म करना चाहते है और इसीलिए युवराज दुर्योधन के जीवन का अंत करने को तत्पर होते हैं । परन्तु राजा धृतराष्ट्र का अंधा मोह इसे अस्वीकार कर देता है। ऐसे में वह उस राजनीति तक का हिस्सा नहीं बनना चाहते जिसकी धुरी ही अनीति हो। “महाराज ! इस अमर्यादित जीवन जीने से कहीं अधिक उचित है, मैं अपने पद से त्यागपत्र दे दूँ। निर्णय आप पर है। युद्ध का प्रतिरोध, दुर्योधन की मेरे हाथों मृत्यु, अथवा महामंत्री का त्यागपत्र।”[17]

ऐसे में कृष्ण का प्रवेश होता है और विदुर कृष्ण से निर्णय में सहयोग चाहते हैं। तब कृष्ण ही कहते हैं कि युद्ध एक अवश्यम्भावी सत्य है। वे युद्ध को रोकने का प्रयास भी कर चुके हैं लेकिन नियति उसी दिशा की ओर करवट ले चुकी हैं । “युद्ध तो अनिवार्य है क्यूंकि यही सत्य है, वही आदर्श है। युद्ध और कर्म की प्रतिबद्धता की प्रक्रिया से निकलने पर ही मनुष्य को यथार्थ की अनुभूति होती है।”[18]

वह कहते हैं कि वह केवल आशा का एक रूप हैं ,सत्य का प्रकाश हैं जो आदर्श जीवन के स्थायित्व हेतु और अमर्यादित शक्तियों के क्षमन हेतु प्रयासरत हैं। देवता का अवतार लोकमंगल की स्थापना हेतु होता है। यही कर्म उनको देवत्व की स्थिति में पहुंचा महान बनाता है। प्रत्येक व्यक्ति में देवता व राक्षस दोनों का वास होता है । उसके कर्म उसकी वृत्ति का निर्धारण करते हैं ।

आज फिर से वही असुरक्षा का भाव, दानवी वृति, असंतोष -मानव व राष्ट्र में व्याप्त है, जो मानव को अपने सत्कर्म की और पुकार रहा है। आज भी संपत्ति हेतु अपनों में संघर्ष, लोभ, अहम्, भ्रष्टाचार,राजनीतिक असंतोष, सीमा सुरक्षा, लोकतंत्र का खतरे में होना, अवसरवाद, गिरती नैतिकता और मर्यादा, मानव समाज का बहुमुखी द्वंद्वात्मक संघर्ष -राष्ट्र के लिए प्रश्न बने हुए हैं। परन्तु इन सबसे बड़ी है मानव समाज की जिजीविषा जो संघर्ष का सामना कर शांति का पथ निर्माण करती है।

सन १९५५ में धर्मवीर भारती का सुप्रसिद्ध गीतिनाट्य ‘अँधा युग’ आया था और अब  महाभारत के १८वे दिन के पश्चात की पृष्ठभूमि पर हरीश अरोड़ा का गीति एकांकी ‘अर्धसत्य’ साहित्य के क्षेत्र में आया है, एक नए आवरण में। हरीश अरोड़ा ने एकांकी साहित्य में एक नवीन प्रयोग किया है। अभी तक साहित्य की किसी भी विधा की आलोचना (समर्थन या विरोध) हेतु आलोचना या लेख विधा का उपयोग होता रहा है। अब इन्होंने कथा के उत्तर में इसकी आलोचना (समर्थन या विरोध) हेतु कथा-माध्यम का ही प्रयोग किया है। अतीत के नाटक के प्रसंग में एकांकी साहित्य का सृजन हिन्दी की परिपक्वता को बताता है। ‘अर्द्धसत्य’ में विभिन्न प्रसंग और संवाद में या शब्दावली की समानता के माध्यम से इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है। यह एक प्रकार से अपनी ही परंपरा का पुनर्पाठ है।

हरीश अरोड़ा ने युद्धजनित अवसाद को एक सकारात्मक मानवीय जीजिविषा के रूप में ढाला है। संत्रास से ग्रसित पात्रों को एक सकारात्मक दिशा दी है । महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके प्रत्येक अंक में नैतिकता और अनैतिकता पर विचार के साथ संघर्ष व्याप्त है। महाभारत कोई एक दिन की घटना का नहीं अपितु इसके पार्श्व में क्रमशः उपजती कुंठा, अवसाद, द्वंद्व और प्रतिद्वंदिता का संघर्ष है जिसका प्रतिफलन युद्ध में हुआ। चाहे यह कुंठा पीढ़ियों की हो या समकालीनों से उपजी हुई, लेकिन टूटते मानवीय रिश्ते, आपसी द्वेष, नैतिकता और संस्कारों का विरोधाभासी स्वरुप, अधिकार भाव व शक्ति संचयन साथ में इन्हीं स्थितियों के चलते मतभेद का मनभेद में परिवर्तित होना-ही महाभारत है। ‘अर्धसत्य’ को युद्ध के बाद का शोक संवाद भी पुकार सकते हैं।  गांधारी का केवल एक पुत्र युयुत्सु जीवित है लेकिन महाकाल की काली छाया से अपनों से घात करने के कारण उसे कोसती है। युयुत्सु के मन में बार-बार यही विचार उत्पन्न होता है कि इसका कारण क्या धर्म और नैतिकता का साथ देना था, जिस कारण स्वयं अपनी माँ तक की घृणा प्राप्त हो रही है । गांधारी उसे कुलनाशी व कुलघाती पुकारती स्वीकारती है।

“ घृणा मेरा फल है !

मेरे कर्मों का सार मिला क्या मुझे ?”[19]

गांधारी की यह अवहेलना युयुत्सु में अपराधबोध के साथ अवसाद भर देती है जिससे वह आत्महनन की स्थिति तक पहुँच जाता है –

“तुम तो केवल कोख पले हो

पुत्र नहीं हो मेरे”[20]

युयुत्सु अपने जीवन का अंत चाहता है, दुखद अंत –

“अभी इसी क्षण मृत्यु पाऊं

किन्तु मोक्ष मिले न मुझको

प्रेतयोनी के कुल में मुझको मिले स्थान

और भटकता रहूँ सदा ब्रह्माण्ड विविर में

मोक्ष मिले न

यही दंड होगा मेरा”[21]

किसी व्यक्ति का संताप में अपने लिए दुरूह से दुरुह्तर दुःख माँगना उसके जीवन के संत्रास को दर्शाता है। मानव जिसकी पीठ पर युग का भविष्य टिका हो उसका जीवन संत्रास युक्त हो तो भविष्य का भी उन्मुक्त विकास नहीं होगा। ऐसे में कृष्ण स्वयं आकर युयुत्सु के इस अवसाद का अंत करते हैं। कृष्ण युयुत्सु को समझाते हुए कहते हैं-

“मृत्यु केवल अर्धसत्य है अनुज प्रिय

यह जीवन संत्रास

व्यर्थ की कुंठा और निराशा

नहीं शोभता तुमको

जीवन में लय है

गति है

तुम करो उसी का गान।”[22]

आज का युवा भी भटकाव की स्थिति में हैं। सत्य-असत्य, नैतिकता-अनैतिकता, धर्म-अधर्म के संशय में है। यही संशय उसके तनाव का कारण बनता है। श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है ‘संशयात्मा विनश्यति’। नैतिक पथ सहज ग्राह्य नहीं और ना ही प्रशस्ति उसका अंत होता है। लेकिन मानव जब न्याय और धर्म के मार्ग पर चलता है तो उज्ज्वल भविष्य हेतु कष्ट उठाना ही होगा और सकारात्मक रहना होगा। तब हम जीवन के यथार्थ को बदल पाएंगे।

क्रोधजनित शब्द जो गांधारी के मुंह से निकले हैं वह केवल गांधारी के नहीं है बल्कि एक आहत माँ, एक आहत रानी और एक आहत स्त्री के हैं जिसने अपने यह तीनो रूप कुरुवंश की राजनीति में होम कर दिए । वह आहत स्त्री जो अपने शत पुत्रों, गुरुओं, कुल रक्षकों, सहयोगियों को खो चुकी है जिसे युद्ध के १८ दिन केवल हार मिली है, जिसकी नगरी रुदन से गूँज रही है । वह शोक से इतनी त्रस्त है कि नारायण कृष्ण भी उसकी क्रोधाग्नि से ना बच सके-

“जैसे मेरा पुत्र मरा पीड़ा से

और मरे कोटिक योद्धा

तुमको भी सहनी होगी वैसी पीड़ा

और मृत्यु को पाओगे”[23]

परन्तु यहाँ भी नारायण द्वारा शाप की सहज स्वीकृति गांधारी में पश्चाताप भर देती है। उसके अंदर के क्रोध और अंधकार के घने बादल छांट देती है।

महात्मा विदुर जब नैतिक मार्गदर्शक सभा न कौरवों और पांडवों के बीच हुई अनीति का वाचक बनते है तो कहते है कि मर्यादा और नैतिकता तो तभी ताक पर लग गयी थी जब एक सम्मानीय स्त्री और अपनी ही कुलवधू का चीरहरण भरी सभा में हुआ था। यह एक स्त्री की अस्मिता और गरिमा का प्रश्न नहीं अपितु अन्धकार, लोभ, अनैतिकता और अमर्यादा की पराकाष्ठा थी जिसने युद्ध की नींव रखी। उस समय विदुर ने बहुत रोकने और समझाने की कोशिश की लेकिन सभा के सभी विद्वत जन धर्म-अधर्म का भेद भूल गए।

“राजा चाहे जो भी हो

रक्षक थे वे कुरुवंश के।”[24]

कृष्ण, काल के उस चक्र समान है जो दिशा तो दिखाता है मगर दिशा का चयन पथिक के हाथ में होता है। वे दूत बने, अहिंसा का मार्ग दर्शाया, युद्ध का प्रतिफलन बताया, राजा का कर्तव्य और मर्यादा का मार्ग बताया । लेकिन लोभ, मोह, अहंकार, प्रतिद्वंद्विता की आँखें कहाँ होती है ।

“मैं स्वयं एक ऐसा धनु हूँ

जिसकी प्रत्यंचा साध नहीं पाता गर्वित”[25]

वर्तमान में मनुष्य भी ऐसा ही असहज है। लेकिन उसे दिशा दिखाने हेतु कृष्ण नहीं। साथ ही राष्ट्र में शक्ति संग्रह और शक्ति प्रदर्शन वश निरंतर संघर्षमय स्थिति बनी रहती है । जो योद्धा इस संघर्ष को शांत करने का प्रयास करते हैं उनके घरवालों में भी युयुत्सु और गांधारी समान पीड़ा होगी। लेकिन यह कृष्ण रुपी राष्ट्र जो सब कुछ देखता है, धर्म का मार्ग सुझाता है, लेकिन परवश हो अपने ही धनुष में चढ़ी प्रत्यंचा से खुश नहीं क्योंकि दोनों ही पक्ष उसके है तो नुकसान भी उसी का हुआ। जबकि भारत सदैव से ही शांति को अग्रगण्य स्थान देता है।

“ राष्ट्र जातियों के संघर्षण से ही चलता है

किसे प्रिये था युद्ध

शांति के हम सेवक थे ।”[26]

X  X X X

“मैं सबमें था

सब मुझमें थे

मैं सब में हूँ

सब मुझमें हैं

सब कृष्ण यहाँ”[27]

लेखक अभी भी मानव के अंदर देवत्व का भाव होने की बात बताता है। यदि राक्षस वृत्ति वाले हम है तो देवात्मा भी हम में ही है। हमे अपने परिवेश को अपने कर्म से सकारात्मक निर्देश देना होगा। धर्म और न्याय की स्थापना में युद्ध भी हो तो वह धर्म युद्ध होगा ।

हरीश अरोड़ा जी का चौथा एकांकी ‘आत्मोत्सर्ग’ है। यह रामायण के राम राज्याभिषेक और राम वन गमन की पाशर्व भूमि पर निर्मित है। राम का अवतार जिस हितार्थ हुआ था उसी क्रम को आगे बढाने वाली यह नियति देव सृजित है । इसका माध्यम कैकयी व मंथरा बने। राम सर्व सनेही हैं। कैकयी को तो भरत से भी अधिक प्रिय हैं। परन्तु दूसरी ओर रावण की शक्ति के साथ राक्षसी प्रभाव से जन के साथ देवलोक भी चिंतित हैं।  इस राक्षसी ताकत के अंत की नियति ही राम का वन गमन है। इसी प्रयोजन से देवर्षि नारद, चिंतित देवराज इंद्र को अपनी योजना बताते हैं कि कैकयी से इस सन्दर्भ मे उन्होंने बात की है। पहले तो कैकयी कुल के दीपक व अपने प्रिय राम के साथ यह अनीति करने को लेकर सहमत नहीं होती। वह राम के स्थान पर भरत को यह पीड़ा देने, यहाँ तक कि उसके जीवन पर्यंत वनवास तक की बात कहती है। वे कहती हैं कि भरत में भी सूर्यवंशियों का रक्त है वह भी वचन से डिगेगा नहीं। साथ ही वह राक्षसी साम्राज्य से निडर हो लोहा भी ले सकता है । तब देवर्षि समझाते हैं कि नारायण का मानव रूप में जन्म ही इसी ध्येय पूर्ति हेतु हुआ है। अमंगल का नश कर मंगल की स्थापना ही उनका लक्ष्य है।  “देवी- यह युद्ध राम और रावण का नहीं – यह सत्य और असत्य का युद्ध है । अन्धकार और प्रकाश का युद्ध है । देवों और राक्षसों का युद्ध है।”[28]

वे कैकयी को युग को नई चेतना देने की बात करते हैं। हर परिवर्तन से पहले गहरा अन्धकार छिपा होता है। किसी को उसके समूल नाश हेतु अग्रसर होना ही पड़ता है। “यह समय सोचने का नहीं है, इतिहास की नवीन चेतना के जन्म का है। अयोध्या के महागौरावशाली इतिहास की चेतना का, आर्य जाति की सांस्कृतिक चिंतनधारा की वैचारिक चेतना का,देव-जाति के सृष्टि को वितरित परम आनंदवाद की महामूर्ति का।”[29]

देवर्षि कैकयी को पूरी रणनीति बताते हैं और सरस्वती के सहयोग द्वारा बुद्धि हरण और आगे होने वाले प्रसंगों के विषय में भी बताते हैं। कैकयी को सामाजिक अवहेलना तक का भय नहीं था। उनके लिए देव प्रयोजन और जन रक्षा सर्वोपरि है।  “यदि देव और आर्य जातियों की राक्षसों से मुक्ति के लिए मुझे समाज और राज्य से बहिष्कृत भी होना पड़े तो कोई विकलता नहीं।”[30]

सम्पूर्ण रामायण और लोक जीवन में कैकयी को जिस अवहेलना की दृष्टि से राम वन गमन विषय पर देखा जाता रहा है उस व्यक्तित्व को हरीश अरोड़ा ने एक नयी उंचाई पर पहुँचाया है। कैकेयी के लिए मातृत्व से भी ऊँचा राष्ट्र और राष्ट्रवासियों की रक्षा है। कैकयी सर्वप्रथम एक क्षत्राणी है जो अपने कर्म से डिगती नहीं। “मैं सूर्य वंश की क्षत्राणी रानी हूँ। क्षत्राणी होने के दायित्व से मुक्त होकर मैं स्वयं को अपने पूर्वजों के समक्ष लज्जित नहीं करना चाहती।…..देवराज सूर्यवंशियों का जीवन अपने लिए नहीं रहा……यदि राक्षस जाति की आसुरी शक्तियों की दुर्जेय अभिकल्पना को तोड़ना मेरे राम के हाथ में लिखा है तो अपने राम की शपथ इस अखंड राष्ट्र की वृहद् और सशक्त शिलाओं की जड़ों में शून्यता भर देने वाले इन आतताइयों की राम के हाथों मुक्ति अवश्य होगी।”[31]

कैकयी के चरित्र को पराकाष्ठा तक ले जाना साहित्य का एक नवीन प्रयोग है। अखंड राष्ट्र व जाति की सुरक्षा हेतु एक क्षत्राणी स्त्री का सामाजिक बहिष्कार सहना बहुत बड़ा त्याग है। दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि राष्ट्र की अस्मिता और सुरक्षा में स्त्री का सामने आना । वर्तमान में स्त्री का सैन्य टुकड़ी में शामिल होना, राजनीतिक और वैचारिक मंच में अग्रसर होना स्त्री की शक्ति और सामर्थ्य का परिचायक है। स्त्री को केवल मातृत्व स्वरुप व्याख्यायित करना उसके भीतर के एकांगी रूप को दर्शाता है। उसका व्यक्तित्व इससे कहीं अधिक उपयोगी है। साथ ही समाज और राष्ट्र के पुनरुथान का जो प्रयास इस ‘महाप्रयाण’ एकांकी संग्रह में हैं उसमें स्त्री भी एक मत्वपूर्ण पक्ष है। हिंदी साहित्य में जिस प्रकार मैथिलीशरण गुप्त का प्रयोग ‘साहित्य में उर्मिला विषयक उदासीनता’ लेख में उपेक्षित उर्मिला के त्याग को दर्शा उसके चरित्र की महानता प्रस्तुत की गयी, उसी प्रकार यही प्रयास कैकयी और उसकी सामाजिक उपेक्षा के सन्दर्भ में हरीश अरोड़ा के एकांकी ‘आत्मोत्सर्ग’ में दिखा।

“साहित्य का क्षेत्र स्वस्थ और सबल भावनाओं के सृजन का क्षेत्र है……समय के प्रवाह के साथ नयी विचारधाराएं और नवीन जीवन दर्शन साहित्य में समाविष्ट होते हैं……साहित्यकार अपने युग की बहुमुखी सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का प्रदर्शन करता है और उनके सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध प्रतिक्रियाओं का निरूपण कर दिखाता है।”[32]  हरीश अरोड़ा के एकांकी साहित्य में भी आज के समय की आवाज़ और चिंताएं प्रदर्शित होती हैं। एक सजग लेखक का अपनी समसामयिक परिस्थितियों से अलग रह पाना संभव नहीं। आज भारत में भी सुरक्षा, एकता, आतंकी गतिविधियों, आतंरिक संघर्ष व मतमतांतर के चलते विकट स्थितियां बनी हुई है। राष्ट्र को कमज़ोर करने के बहुत से प्रयास नज़र आते हैं। शांति स्थापना और लोकतंत्र की रक्षा एक चुनौती बनी हुई है।

हरीश अरोड़ा ने इतिहास और संस्कृति के उन पक्षों को उठाया जहाँ राष्ट्र और समाज खतरे की स्थिति में है। ऐसे में भारत के वीरों और वीरांगनाओं को अपना दायित्व समझ नीति के तहत सुरक्षा का प्रयास करना होगा। भारतीय जन मानस को उसका पुरुषार्थ और औदात्य स्मरण इस एकांकी संग्रह द्वारा हुआ है। आततायी शक्तियों का सामना करना ही होगा ताकि सुख-शांति, मूल्य, मर्यादा व नैतिकता का संचार समाज में हो सके। इस हेतु खंडित ताकत को एकात्म स्वरुप धारण करना होगा। चिंतको का लेखन आत्मगौरव और विश्वास को बढाने हेतु एक मनोवैज्ञानिक प्रयास हो सकता है। संघर्ष कई बार नियति बन जाता है। लेकिन भयमुक्त हो उसका सामना उज्ज्वल भविष्य की कामना हेतु करना पड़ता है। जान-माल की हानि अवश्य होती है लेकिन उन वीरों के संबंधियों में इससे अवसाद नही अपितु राष्ट्र गौरव का अभिमान हो, ताकि आगे की पीढ़ी भी ऐसे प्रेरणा वीरों की गाथाये सुन राष्ट्र स्वाभिमान के लक्ष्य की ओर बढे।

हरीश अरोड़ा के एकांकी संग्रह का कथानक और उद्देश्य जितना प्रेरणास्पद है उतनी ही  उनकी रंगमंचीय कला भी एकांकी का सौंदर्य बढाती दिखती है। उनके एकांकियों की एक प्रमुख विशेषता चरित्रों का स्वगत कथन और फ्लैशबैक पद्धति है। जब कोई पात्र या स्थिति में अत्यधिक संघर्ष, विचार मंथन की आवश्यकता होती है तब लेखक उस स्थिति को और अधिक रोमांचक व नाटकीय दिखाने हेतु इस पद्धति को अपनाता है। ताकि पाठक में जिज्ञासा बनी रहे । जैसे पात्रों का अपने आप से बात करना या एक अदृश्य शक्ति से पात्र का वार्तालाप या कहें स्वयं के अन्दर चल रही उथल उथल स्वगत कथनों में दिखती है। ‘महाप्रयाण’ में अनुराग का आत्मालाप, एक काली घनी आकृति से युयुत्सु का ‘अर्धसत्य’ में सामना, इसी में गांधारी का मन ही मन पश्चाताप, ’त्यागपत्र’ में छाया से संवाद-वह घटना की गंभीरता दर्शाता है। वास्तव में यह लेखक द्वारा कथानक में गर्भित सन्देश होते हैं। वहीं इन्ही संकेतों को आरम्भ में दर्शा कर अंततः उसी नियति का परिणति तक पहुंचना एक प्रकार की पूर्वस्मृति पद्धति का आभास देती है। जैसे ‘महाप्रयाण’ में दिखता है। यह लेखन की विशेष शैली शिल्प एकांकी को और अधित दमदार बना देती है।

मंच सज्जा, ध्वनि, रौशनी का प्रयोग यह उनके एकांकियों की रंगमंचीय प्रतिभा दर्शाती है। कहा जाता है कि मंच सज्जा पश्चिम से प्रभावित है। परन्तु नाटकों का मंचन भारत में प्राचीन समय से होता रहा है। मोहन राकेश कहते हैं-“हमारे दैनंदिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिए, हमारे सम्वेदों और स्पंदनों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा। इस रंगमंच का रूप विधान नाटकीय प्रयोगों के अभ्यंतर से जन्म लेगा और समर्थ अभिनेयताओं और दिग्दर्शकों के हाथों उसका विकास होगा।”[33]

रंगमंचीयता की दृष्टि से हरीश अरोड़ा ने मंच सज्जा, आवरण का उठाव और गिराव, रोशिनी का विशिष्ट स्थान, रंगों का कुशल प्रयोग, ध्वनियों द्वारा वातावरण उद्दीपन यह सभी मंचन के दृष्टि से लेखक की कुशलता तो दिखाते ही हैं वहीँ पाठक के समक्ष भी ऐसे बिम्ब उत्पन्न कर देते हैं जैसे कोई फीचर पाठक से समक्ष प्रस्तुत हो। भावाभिव्यन्जना में यही बिम्ब प्रेरक साबित होते हैं । अगर कथ्य और शिल्प की दृष्टि से डॉ हरीश अरोड़ा के एकांकियों को समर्थ एकांकी कहा जाये तो अति नही होगी ।

 

संदर्भ

[1]  हिंदी एकांकी : उद्भव और विकास ,डॉ रामचरण महेंद्र,प्रदीप साहित्य प्रकाशन, पृष्ठ-भूमिका

[2]  हिंदी एकांकी ,डॉ सत्येन्द्र , साहित्य रत्न भण्डार ,आगरा, पृष्ठ-40

[3] हिंदी आलोचन की पारिभाषिक शब्दावली ,डॉ अमरनाथ,राजकमल प्रकाशन ,दिल्ली, पृष्ठ -99

[4] स्कन्दगुप्त : संवेदना और शिल्प, सिद्धनाथ कुमार,अनुपन प्रकाशन, पटना, पृष्ठ 25

[5] जयशंकर प्रसाद-नन्द दुलारे वाजपेयी , कमल प्रकाशन , जबलपुर, पृष्ठ -11

[6] स्कंदगुप्त –जय शंकर प्रसाद , अनीता प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ- निवेदन

[7] महाप्रयाण, पृष्ठ -20

[8] महाप्रयाण, पृष्ठ -33

[9] लेखक की साहित्यिकी,नंदकिशोर आचार्य,वाणी प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ-124

[10] महाप्रयाण, पृष्ठ – 22

[11] महाप्रयाण, पृष्ठ – 25

[12] महाप्रयाण, पृष्ठ -27

[13] महाप्रयाण, पृष्ठ -33

[14] त्यागपत्र,महाप्रयाण, पृष्ठ 86

[15] त्यागपत्र,महाप्रयाण, पृष्ठ-87

[16] त्यागपत्र,महाप्रयाण, पृष्ठ-79

[17] त्यागपत्र , महाप्रयाण, पृष्ठ -91

[18] त्यागपत्र ,महाप्रयाण, पृष्ठ -92

[19] अर्धसत्य, महाप्रयाण, पृष्ठ -36

[20] अर्धसत्य, महाप्रयाण, पृष्ठ -44

[21] अर्धसत्य, महाप्रयाण, पृष्ठ – 51-52

[22] अर्धसत्य,महाप्राण, पृष्ठ-52

[23] अर्धसत्य , महाप्रयाण, पृष्ठ -53-54

[24] अर्धसत्य, महाप्रयाण, पृष्ठ -42

[25] अर्धसत्य,महाप्रयाण, पृष्ठ-51

[26] अर्धसत्य,महाप्रयाण, पृष्ठ-48

[27] अर्धसत्य,महाप्रयाण, पृष्ठ -56

[28] आत्मोत्सर्ग, महाप्रयाण, पृष्ठ -69

[29] आत्मोत्सर्ग,महाप्रयाण,पृष्ठ -71

[30] आत्मोत्सर्ग,महाप्रयाण, पृष्ठ-75

[31] आत्मोत्सर्ग,महाप्रयाण, पृष्ठ -75

[32] जयशंकर प्रसाद-नंददुलारे वाजपेयी,कमल प्रकाशन, जबलपुर, पृष्ठ – 17

[33] आषाढ़ का एक दिन-मोहन राकेश, राजपाल एंड संस प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ-दो शब्द

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.