आकाश के इस छोर से उस छोर तक सात रंग कितने ही तरतीब से धनुष सरीखे दिख रहे थे   धनुष वही जिसे मानव ने आत्म रक्षा के लिए बनाया होगा फिर कर दिया होगा ऊर्जा के सिद्धांतों का प्रयोग मनुष्य ने  कहाँ जाना होगा कि कैसे ऊर्जा को गति दी जा सकती है ? बाँस और लोहे के धनुष के बाद बारिशों के देवता के सम्मान में आसमान में छ्पाक से पड़ी बूंदों ने धनुष का रूप ले लिया और इन खुशी के रंगों को इंद्रधनुष कह दिया सब भूल गये हवा , पानी और सूर्य देवता के करतब में आधी गोलाई लिए ये रंग उसकी नज़रों का धोखा है एक बार वो अपने सपनों की सैर में वायुयान पर बैठ इंद्रधनुष को छूने चली गई थी देखा तो, ऐसी कोई चीज ही नहीं वो उस सिंदूरी रंग को छूने का लोभ कहाँ छोड़ पाती है । उड़तेउड़ते उसने आकाश और धरती के मिलन स्थल को भी छूना चाहा । जब उसके पास पहुँचने वाली होती-वह और दूर…… और दूर….. होता चला जाता”  

    उसे सब तरफ हराहरा दिखता वो नहीं जानती थी कि पतियों ने सिर्फ हरे रंग को बिखेरा है चाँदनी रात में सफेद रेत को पानी समझ जाने कितनी बार भागती रही थी । कई बार हाइवे पर चलती गाड़ी में तेज गर्मी से कोलतार की सड़क पर तेल फैला देख लगता था अब इस गाड़ी का एक्सिडेंट हो जायेगा । जाने कितनी बार उसकी सोच में गाड़ियाँ दुर्घटनाग्रस्त होने से बची थी   

       ऊँट को नीम की पत्तियों को चबाते देख सोचती उसे यह कड़वी क्यों लगी थी दिमाग ने तो यही बतलाया था स्वाद और दिमाग भी साजिश रचते हैं उसके लिए कड़वी तो ऊँट के लिए मीठी, वो खाकर खुश और वो विकल   मन और दिमाग के खेल में उलझी दुनिया के जादू में फंसी जितना ही निकलना चाहती है उतना ही फँसती जाती है   

    सुबह के पाँच बजने को है आज फिर बारिश हुई है और इंद्रधनुष को पकड़ने के लिए वो व्याकुल थी ।

 बस ! पकड़ने वाली ही थी कि जैसे किसी ने झकझोर कर जगा दिया हो । 

   “कहाँ कोई था आसपास ? पिछले पचास वर्षों से एकसार ही तो थी आप ही हँसना आप ही भागना यही तो कर रही थी। शरीर की घड़ी अपना काम समय से कर रही थी”। रोज़ पाँच बजे जागना फिर पास की मंडी से कुछ हरी सब्जियाँ मतलब सांभर बनाने के लिये भिंडी , लौकी, टमाटर , प्याज खाली थैले में भरकर ले आना । “रामआसरे काका फटाफट एक किलो भिंडी , एक किलो टमाटर , आधी लौकी , कोंहरे का एक टुकड़ा थैले में डाल दो”। 

और – सुनो ! हरी धनिया , नींबू और हरी मिर्च डालना मत भूलना”।

“थोड़ा दम धरो बिटिया”

“हमेशा घोड़े पर सवार होकर आती हो और हवाई जहाज पर भागना चाहती हो” । 

“आप भी काका – मेरी बेजत्ती करवाने में लगे रहते हैं”।

“कल थैले में धनिया डालना भूल गये फिर मैं धनिये की चटनी नहीं पीस पाई थी । आपको तो पता है मेरी दुकान पर किसी को नारियल या चने के दाल की चटनी नहीं चाहिये । उन्हें धनिये की भीनी खुशबू वाली हल्की तीखी चटनी चाहिये रहती है”। जल्दी – जल्दी सब्जी लेकर वो घर पहुँच चुकी थी । घर से पीसी हुई उरद दाल, चावल, चटनी के साथ दो – तीन बड़े – बड़े झोले  लेकर ऑटो का इंतज़ार कर रही है । 

आज भी उधर के लिए कोई ऑटो नहीं मिलेगा ।

अचानक एक खाली ऑटो दिखा जल्दी से हाथ देकर रोक दिया । 

“भईया महिला कॉलेज पहुँचा दो”

“साठ रूपये लगेंगे । उधर से कोई सवारी नहीं मिलती”

“जल्दी चलो मुझे पहुँचना है”

        चालीस साल पहले चाय बनाने के चूल्हे और एक दर्जन शीशे के ग्लास के साथ काम शुरू किया था । आज ठेले तक पहुँची थी । मोटे चेन से बंधे ठेले को चारों ओर बंधे प्लास्टिक के स्टूलों को खोल दोनों चूल्हों में कोयला डाल  आग सुलगाना शुरू कर दिया । चूल्हा फूँकते – फूँकते धुआँ के साथ बहुत पीछे जाकर खो गई हर किसी की अपनी – अपनी विरासत होती है । पिता भी तो चूल्हा सुलगाते थे और वो उनके हाथ बंटाती थी माँ बर्तन धो देती थी । उनकी दुकान मेन बाज़ार में थी । ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी । ग्राहक तो यहाँ भी आते हैं समय में बंधे हुए । वक्त की गज़ब की तासीर होती है “ना पैदा होता ना गया वक्त फिर हाथ आता” फिर भी वो अपनी डोर में घिरनाल काटने के लिए छोड़ देता है । 

    माँ – बाप की अकेली बेटी उनकी मेहनत की उपज थी जिसने अपनी अस्मिता, अपनी पहचान के लिये लीक से हटकर खुद की राह बना चुकी है । उसका  ठेला क्या ? इसे मोबाइल कैंटीन कह लो ।  जो सुदूर  उस कॉलेज में जहां कैंटीन की सुविधा थी । ना आसपास कोई दुकान जहां का इडली , सांभर, नमकीन, चाय लोगों का सहारा था उस ठेले के इर्द – गिर्द लड़कियों के साथ – साथ शिक्षक – शिक्षिकाएँ अपने दिन भर के रूटीन से समय निकाल अपना वक्त जरूर देते थे । ठेले से उसकी ज़िंदगी हिचखोले खा कर आगे नहीं बढ़ रही थी वो ठेला उसे सपने दिखाता, लोगों से मिलवाता था बच्चियों , सुरक्षा गार्ड के साथ का अपनत्व लगातार इतने वर्षों से उस ठेले को वहां खड़े रखने में मददगार था

हालांकि यह ठेला ऑथराइज नहीं था लेकिन कॉलेज प्रशासन जानते हुए भी अनदेखी करता और वो लगातार अपनी छोटी सी दुकान लगाती । उसकी दुकान हंसने , बोलने, गुनगुनाने, अपनी शिकायतों को निकालने का अड्डा था दिन भर के थके रूटीन में  कॉलेज स्टाफ भी उस ठेले के चाय और इडली के दीवाने थे कई बार वो कॉलेज में कैंटीन खुलने की आहट सुन घबरा जाती लेकिन पिछले दस वर्षों से किसी किसी कारण से यह मामला दब जाता था फिर जब कॉलेज स्टाफ कहते कैंटीन खुलने से क्या होगा तुम तो बाहर अपना ठेला लगाना तब उसे सुकून मिलता लड़कियों को सामने से बढ़ते देख उसकी सारी थकान धुल जाती और अपने धंधे पर गर्व होता

        हाँ ! कभीकभी लड़कियों की सगाई , बॉयफ्रेंड , शादी आदि की बातें सुनती तो बस यही सोचती रंग सफ़ेद में अगर ज्यादा सफ़ेद कोई हिस्सा दिख जाए तो वो दाग हो जाता है चाँद के काले दाग और तिल के काले निशान खूबसूरती हैं तो उसके सफेद दाग उस जमाने के लिए बहुत बड़ी बात थी यह वह नहीं कहती थी उसके माँबाप और रिश्तेदार अक्सर यह कहा करते थे । 

       गोरी-चिट्टी घोषा की माँ ने उसके जन्म के सात – आठ महीने बाद गौर किया था उसकी गर्दन के नीचे  पच्चीस पैसे के सिक्के बराबर सफेद निशान थे । जिसे उसकी माँ जब वो एक साल की थी तबसे ही छुपाने की कोशिश करती थीं । 

जबसे उसने होश संभाला यही देखा कि माँ हमेशा ढंके गले के कपड़े पहनाने की कोशिश करतीं थीं । कई बार विरोध किया –“ माँ घुटन होती है । साँस ठीक से नहीं आती”। 

गर्मी के दिनों में सारा पसीना गले के आस – पास ही जमा हो जाता था । कैसे भूल सकती थी एक बार स्कूल के किसी प्रोग्राम में उसका चयन हुआ था । सारे प्रोग्राम की तैयारी के बाद जब हाफ सिलिव्स के फ्रॉक पहनने की बात हुई तो माँ ने सीधे मना कर दिया था । पूरी रात सुबकी थी । “ माँ ये सफेद ही तो है” एक बार पूछा था कि उसी समय एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ी थी । 

माँ उसे  कभी होमियोपैथिक तो कभी एलोपैथिक तो किसी आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ले जाती थी । हर बार उसे यही लगता इस छोटे से निशान के लिये माँ इतनी परेशान क्यों रहती हैं ?

उस छोटी उम्र में ही हर इतवार को बिना नमक का खाना मिलता था यानि “अनूना इतवार” । सूर्य को खुश करने के लिए माँ का उसके लिये किया जानेवाला निर्जला व्रत । कितना कष्ट झेलती थी उस सफ़ेद दाग के खत्म होने के लिये । 

एक बार किसी झाड़ – फूँक वाले के पास भी ले गईं थीं । “आपको लगातार तीन साल तक आना होगा । जब तक राजस्वला नहीं हुई है मैं एक शीशी में पानी दूंगा जिसे शुद्ध मन से पीने से यह कहीं ठीक होगा”।

उसदिन झाड़ने वाले ने चुटकी में राख़ लेकर उस निशान को छूना चाहा था । उसे अजीब लगा था माँ के पीछे – पीछे चलते समय  उसने सवाल किया था – “ माँ आप इस निशान के पीछे क्यों पड़ी हैं इससे तो मुझे कोई परेशानी भी नहीं अंदर की ओर ढँका रहता है”।

“तुम क्या जानो यह निशान नहीं दाग है … दाग इस दाग के साथ तुम्हें कोई भी स्वीकार नहीं करेगा”।

अभी कच्ची उम्र ने स्वीकार , अस्वीकार को अच्छी तरह नहीं समझा ।

कितने देवी – देवताओं के मन्नत के धागों और गंडे – ताबीजों ने उस निशान को एक रत्ती भी कम नहीं किया । 

अब वो निशान सिक्के भर का दोनों उभारों की शुरुआत के बीच सीने पर था । उसके लिये वह निशान था । पर  जिन्हें पता था उनके लिये दाग । बीस साल की होतेहोते उसने अपने लिए यह राय बना ली कि वो आम नहीं है । पड़ोसियों  और दोस्तों से कई बार उसे बेचारी की नज़र से बात करते सुना था ।

इन सभी बातों ने जाने – अनजाने में उसे रूखा बना दिया था । दाग लेकर पैदा हुई वो लेकिन उसने हमेशा ही निशान माना और किसी भी मरहम से उस निशान को साफ करना तो छूने भी नहीं देना चाहती । 

 माँबाप के पास बहुत पैसे नहीं थे लेकिन दिल की अमीरी में कोई कोरकसर नहीं छोड़ा था ।

नियति को कुछ और मंजूर था । उसके जीवन यात्रा के सहभागी  माँबाप दोनों एक दुर्घटना में मारे गये  अब उसका ठौर उसकी चाय की दुकान थी

एक चूल्हे पर एल्युमिनियम के बर्तन में पानी खौल रहा है । गोल – गोल खंदे के उपर एक सूती कपड़ा बिछा दिया गया है । उस कपड़े के ऊपर ही दाल और चावल के घोल को डालती जा रही है । घोल अपने आप खंदे में फिट बैठता जा रहा है । सारे साँचे में यानि खंडों में घोल डाल बर्तन के मुंह को बंद कर भाप से पकने का इंतज़ार । 

काश ! “यह जीवन भी इडली का घोल होता जिसे साँचे में डालते ही अपना रूप ले लेता” । दो बार इडलियाँ पक कर निकल चुकी हैं सांभर की खुशबू धनिया और कढ़ी पत्ते की खुशबू के साथ मिलकर आस – पास को उतर भारत में दक्षिण के छौंक से सभी को वाकिफ़ करवा रही है ।

घोषा आंटी एकप्लेट इडली देना ! थोड़ा प्याज भी काट देना

    दूसरी लड़की ने चिल्लाकर कहाअरे ! “मुझे तो यही इडलीसांभर पसंद आती है घर की तो बिल्कुल ही नहीं”  

     घोषा एकएक कर  कभी इडलीसांभर देते जा रही है  तो दूसरे चूल्हे पर चाय पक रही है । कोई ग्राहक चाय माँग रहा है ।  तभी किसी की आवाज़ आईदो नींबू की चाय जल्दी दीजिये” इतनी सारी चीजों को एक वक्त में संभालना सभी के बूते की बात नहीं ।

मुझे भी वहाँ की चाय पसंद थी मैं भी अपनी गाड़ी खड़ी कर कॉलेज गेट के सामने वाले ठेले पर रुक जाती थी

इडली का इंतज़ार करती एक लड़की दूसरे से पूछ रही है ? ये आंटीघोष” सेघोषा” हो गई हैं क्या ?

दूसरी लड़की ने  हँसते हुए कहा  – “तुम साइंस वाले पूरे इतिहास का कबाड़ा कर देते हो आंटी की खूबसूरती को कभी देखी हो । मूर्ति जैसा चेहरा दीपदीपाता रहता है दक्षिण के फिल्मों की हीरोइन लगती हैं घोषा नाम वैदिक स्त्रियों के नामों में से एक है ।  घोषा ऋषि कक्षीवत की पुत्री थी मंत्रों में निपुण थी

इनके माँपिता इनकी खूबसूरती देखकर ही ऋषिपुत्रियों वाला नाम रखा होगा

नहींनहीं ! ऋषिपुत्री तो साधिका भी थी साठ वर्ष की उम्र के बाद उनहोंने  घोर तपस्या भी किया था 

   “हाँ ! ये भी तो साधिका जैसी दिखती हैं । एक पैर पर खड़ी रहती हैं । अकेले इतने लोगों को इतने सुचारु रूप से हैंडल करना अपने आप में कला नज़र आती है । कभी किसी को खराब तरीके से बोलते नहीं सुना कितना धैर्य है इनमें नपेतुले शब्द, काम भर हंसी आराम से सारे काम करती हैं 

“तुमने ध्यान दिया है इनकी आगे की दो दांत उम्र के साथ शायद बाहर निकल गईं हैं लेकिन उससे ये और हमेशा हँसती दिखती हैं”

       मैं यह सब  सुन मंदमंद मुस्कुराने लगी ।कुछ तो है”  इस साधारण ठेले वाली के व्यक्तित्व में जो किसी को भी ठिठका देता है  

सच ! घोषा की तीखी नाक , होंठ ऐसे लगते जैसे रस टपक रहें हो, घुँघराले बालों वाली घोषा जब अपने काम में लगी रहती तो बिल्कुल देवी सरीखी ही लगती थी । उसके चमकते ललाट से एक आत्मविश्वास की चमक स्पष्ट देखी जा सकती थी । 

    आज बहुत ज़ोर बारिश हुई थी ।  मुझे सुबह – सुबह क्लास लेनी है ।  इस कारण  मैं जल्दी गई हूँ गाड़ी खड़ी कर रोज़ की तरह  घोषा के दुकान में गई चारों ओर नज़र दौड़ाने पर  एक लड़की भी नहीं दिखी । 

अभी आप चूल्हा सुलगा रहीं हैं चाय नहीं पिलायेंगी क्या”?

आज बारिश की वजह से नींद देर से खुली यहाँ दुकान में बंधी प्लास्टिक में पानी भर गया था उसे गिराने लगी इस कारण चुल्हा सुलगाने में देर हो गई

     मेरे मुँह से  निकला – “आपको पाँच साल से तो देख ही रही हूँ कितनी तल्लीनता से काम में लगी रहती हैं । सारे काम अकेले कर लेती हैं

हाँ ! इसमें कौन सी बड़ी बात है । बचपन से पिताजी के काम में हाथ बँटाने के कारण सारे काम कर लेती हूँ । बुरा नहीं मानियेगा एक बात पूछूं ?

“पूछिए” 

 “आपका कोई और नहीं है क्या ? आप अकेले सुबह से शाम तक काम करते रहती हैं

 जैसे मैंने दबे हुए नासूर पर हाथ रख दिया आसपास कोई नहीं था । उसकी आँखें भर गईं थी– “मेरा कोई नहीं है ।” 

यह प्रश्न सुन थोड़ी विचलित होते दिखी लीजिए ! चूल्हा जल गया  

वो चाय की केतली चूल्हे पर चढ़ाकर जाने कहाँ खो गई

केतली के अंदर खौलते पानी की तरह ही घोषा के अंदर कुछ खौल रहा । केतली भाप को भी अंदरअंदर पचा लेती है वैसे ही बड़ी सफाई से घोषा ने भी भाप को अंदरअंदर पचा लिया होगा । 

जाने उस स्त्री में कैसा चुंबक था । जिसके सामने मेरा व्यक्तिव बौना दिखता था । मैं भी तो अपने सारे काम ख़ुद कर सकती थी लेकिन नहीं कर पाती हर छोटी मोटी जरूरत के लिये पति का मुँह ताकना ।

जाने – अनजाने में मेरे मन में घोषा के लिये एक श्रद्धा का भाव रहता था । उससे मिलने के बहाने से ज्यादा उसके बारे में और जानने की ईच्छा बनी रहती थी ।

आज फिर बारिश हुई और  मौका तलाश मैं उसके पास चली गई थी । चाय पीने के बाद मैंने उसकी गहराई जानने में एक जरूरी सवाल दे मारा – उस दिन आप बता रहीं थी आपका कोई नहीं है”  क्यों ? आपने शादी नहीं की । 

इस छोटे शहर के लिए बहुत बड़ा प्रश्न था । 

आपकी उम्र कितनी होगी ?

यही कोई पचास साल

निहायत ही निजी मामला है – “क्या मैं जान सकती हूँ आपने शादी क्यों नहीं की” ?

“आप कितनी सुंदर हैं”

“आपने कहाँ तक पढ़ाई की है” ?

जैसेतैसे दसवीं कर लिया था

अरे ! इतने वर्ष पहले दसवीं पास इतनी खूबसूरत आप और फिर ……

इस प्रश्न का जवाब दिये बिना वो रह गई

मैं समझ चुकी थी । मैंने अपने औरतपने में या कह लो आम व्यक्ति के प्रश्न से एक टीस को कुरेदा था । इस छोटे शहर में कितने लोगों ने जाने – अनजाने में  ज़ख्म दिया होगा । बिन गुनाह की सजा जिसमें हर कोई अपनी तरह का फैसला सुनाता था । 

कभी-किसी ने “चालू औरत” कहा होगा  तो किसी ने उसके “रूखे व्यवहार” पर उंगली उठाई होगी तो औरतों ने मर्दों को रखने के सही  तरीके नहीं होने का भाषण दिया होगा तो किसी ने यह भी सोच लिया होगा कि उसकी “जननेद्रियाँ मर्द को संतुष्ट नहीं” कर सकती है ।    

 “ये लीजिये चाय”

मैंने चाय की ग्लास ली और अपने पूछे पर अंदर ही अंदर कुढ़ रही थी । 

अपने पूछे पर एक गिल्ट था । माफ़ कीजियेगा आपको जानने की कौतुहलता में आपको दुखी कर दिया ।

 अरे मैडम ! ये सवाल मेरे लिये नया नहीं था हरबार ही एक ही उत्तर देने में मन को अलग – अलग ढालना पड़ता है बस । ये मन भी लगातार एक ही उत्तर देकर थोड़ा थेथर हो गया है ।

दिन खुल चुका था । ढेले के आसपास लड़कियाँ आने लगी इडली पकने में अभी समय लगेगा कह कर अधिकांश ग्राहक को मठरी और चाय दिये जा रही है। मैं चाय के पैसे देकर क्लास लेने चली गई पूरे दिन मेरे दिमाग में ठेले वाली घोषा थी मुझसे उम्र में पंद्रह साल बड़ी थी लेकिन मैं घोषा ही बोलती थी

उस दिन लड़कियों से सुन रखा था घोषा ऋषि पुत्री थी ।

आज के वाकया के बाद मेरी भी इच्छा हुई मेरा विषय नहीं है तो क्या ? मैं भी तो जानूँ ये घोषा कौन थी ? कहीं हजारों साल पहले की घोषा और इस घोषा में कोई साम्य हो

आज का दिन लाइब्रेरी की किताबों में लगा दिया

 “ऋषि पुत्री घोषा समस्त आश्रमवासियों की लाडली थी । किंतु बाल्यावस्था में ही चर्म रोग से उसका शरीर विकृत हो गया था । फिर उससे किसी ने विवाह करना स्वीकार नहीं किया। वह साठ वर्ष की वृद्धा हो गयी थी किंतु कुँवारी ही थी मतलब किसी ने उसका वरण नहीं किया था

       अरे ! ये तो बिल्कुल अपनी ठेले वाली घोषा से मिलती है कहीं माँबाप ने यही सोचकर ये नाम दिया होगा यह सोचतेसोचते मैं ऋषि पुत्री घोषा के विषय में सोचने लगी – “साठ वर्षों तक एक संताप घोषा का वरण किसी ने नहीं किया विदुषी या सुंदर नहीं बिना खरोंच लगी कन्या ही स्वीकृत होती थी 

एक ऋषिपुत्री को देह के तल से अलग होकर किसी ने नहीं देखा 

शरीर के बाहर कहाँ कोई निकल पाता कोई स्वयं ऋषि पुत्री की जिजीविषा देह के पार नहीं देख पाई साठ के बाद मंत्र विद्या में निपुण घोषा ने अश्विनीकुमारों का आह्वाहन किया घोषा ने तपस्या की मुझे मधु विद्या मिल जाये और उसकी त्वचा की बीमारी दूर हो जाये 

अश्विनी कुमारों से कामना कि  – “मैं उस सुख से अपरिचित हूँ आप ही उन सुखों को बतलाये । जो युवा पतियुवा पत्नी के साथ रहकर प्राप्त करते हैं। मेरी इच्छा है कि पत्नी से प्रेम करने वाले स्वस्थबलिष्ठ पति के घर पहुंचू । वो मेरी मानसिक इच्छाओं की पूर्ति में सहायक हो। मैं अपने पति की प्रेमपात्र बनकर पतिगृह को  सुशोभित करूँ । आप मेरी प्रार्थना से प्रशंसित होकर मेरे पतिगृह को ऐश्वर्य एवं सन्तानादि से परिपूर्ण करें आप मुझे सुख से सेवन करने योग्य जल प्रदान करें। हमारे पतिगृह के गमनमार्ग में यदि कोई दुष्ट, विघ्न उपस्थित करे  तो उसका निवारण करें

ओह ! “एक व्यक्ति का अपने उपर मालकियत के लिए इतनी मशक्कत”  

“कहाँ कुछ बदला था आज मैंने भी तो घोषा को कुरेदा था औरत अकेली युगों से प्रश्न के दायरे में आती रहीं है ? कितना आसान होता है किसी पर उंगली उठा देना अपने से आगे या तुलना की दुनिया से कहां बाहर निकल पाते हैं हम” ?

आज फिर बारिश हो रही थी घोषा स्टूल पर चढ़कर प्लास्टिक बाँध रही थी तेज बारिश में लग रहा था ठेले के ऊपर बांधी गई कनात खुल गई थी मैंने कहा – ‘ये अस्थायी व्यवस्था है हल्कीफुल्की बौछारों का तेज़ बारिश में तो ये प्लास्टिक वाली कनात रोज़ फटकर गिरेगी। घोषा मेरी इस बात के बाद कहने लगी – “मैडम पिछले बीस बरस से ज्यादा हो गये इस अस्थाई व्यवस्था में रहते हुए उतनी पूंजी जुटा पाई ना इसकी जरूरत महसूस हुई जितना कमाती हूँ उतने में संतुष्ट हूँ। आप सबके अनुसार मेरे जीवन की भी व्यवस्था अस्थायी  ही है – “आपने जानना चाहा था कि मैंने शादी नहीं की-नहीं ऐसा नहीं है  मेरी शादी हुई थी । मैं भी देह से बाहर कहाँ आ पाई थी अपनी सुरक्षा हेतु मैंने अपने देह को माँ – बाप की इच्छा से किसी पुरुष से बांधा था ।

अपनी ब्लाउज में हाथ डाल उसने दिखलायासफेद निशानदिख रहा है । इसे पहली रात को ही  तथाकथित पति ने इस सफेद निशान को दाग करार दिया था । उसकी चिंता अपने वंश वृक्ष को बचाने की थी । डर था उसकी वंशबेल की हरियाली में कहीं सफेद चकक्ते ना आ जाये ।  उसे सफ़ेद दाग वाले शरीर को चूमने में उबकाई आ रही थी । दाग को देख उसने तुरंत करेंट की तरह एक झटके में ही मुझे अलग कर दिया था । 

मैं बहुत गिरगिराई थी ।  ऐसे मत छोड़ो !  

जब वो  शारीरिक सबंध नहीं बना पायेगा फिर एक स्त्री का क्या काम”

“उसकी अस्वीकृति के बाद मुझे अपना जीवन बेमानी लगने लगा था । मैंने भी पति और संतान के सपने देखे थे। मैंने भी सप्तपदी की कसमें और अग्नि के चार फेरों के बाद धर्म , अर्थ और काम के वचनों के समय आगे चलकर तो मोक्ष की कामना के अंतिम फेरे में आगे चलते होनेवाले पति को देखकर एक अनजाने बंधन में बंधता महसूस किया था ”। छुपाकर किये गए सिंदूरदान के बाद मैंने भी अरुंधति और ध्रुवतारे की कसम खाई थी इंद्रधनुष को छूते समय उस सिंदूरी रंग को छूना चाहा था । मैं भी सिंदूरी रंग की माया में जकड़ चुकी थी ।

        “सारी चीजों के बाद उस व्यक्ति ने एक झटके में मेरा त्याग कर दिया था जैसे दूध में पड़ी मक्खी । मेरा चेहरा एक पुरुष को आकर्षित कर पाया  लेकिन मेरा शरीर नहीं उस अरेंज मैरेज में आम लड़कियों की तरह मैंने भी अपना मन और शरीर उस व्यक्ति के नाम कर दिया था”  

वो बोलते जा रही थी जैसे आज केतली का ढक्कन खुल गया हो उसके अंदर का भाप उड़ रहा हो  

मैंने भी गुबार को निकलने के लिए छोड़ दिया

     उस रात को भूलने की मैंने तपस्या की है मैंने अपने एकांत को कमाया है । एक स्त्री को पढ़ना इतना आसान नहीं कहाँ पहुँच पाया था ? मुझ तक उसने मेरे मन को कहाँ पढ़ा ? काँच की तरह एक झटके में तोड़ डाला था उसका तोड़ना और बिखरी किरचें आज तक धंसते रहती हैं अच्छा यह हुआ कि उसके दिये एक झटके के बाद मैं भी बिन लाग लपेट के  उस दलदल से बाहर गई । साथ रहा मैं और मेरा अकेलापन। बड़ी मेहनत से अकेलापन को एकांत में बदला है जमाने भर की नज़रों से अपने को दूर करती रही । मैंने अपनी एक टापू बना ली है मेरा नाम घोषा है लेकिन मैंने ऋषि पुत्री की तरह एक पुरुष की उपस्थिति को अपना सब कुछ नहीं समझती । युग का दोष कह लो या स्वलम्बन की सीख उतनी विदुषी घोषा ने योग्य वर चाहा तो मैंने अपने पैरों पर खड़े होने की चाह रखी । निकल चुकी हूँ इस मरीचिका से मुझे अपनी सुरक्षा के लिये चिंतित होना पड़ता है फिर भी खुश हूँ अपने अस्थायी जीवन की अस्थायी व्यवस्था से। एक बात और आप तो ज्यादा पढ़ीलिखी समझदार हैं । मेरे लिये सिर्फ़ चाय की कमाई पूरी है फिर भी इडलीसांभर के साथ स्वाद बेचती हूँ इन लड़कियों के चहकते चेहरे में अपनी हँसी ढूंढ लेती हूँ

मैंने कहा-फिर बुढ़ापा कैसे कटेगा”?

मैडम जी- किसने देखा है ? बुढ़ापा आजकल तो अच्छे घरों के लोगों की वृद्धाश्रम मे कटती है फिर मेरी भी कट ही जायेगी

घोषा की बातों को सुनकर मैं अपने इर्दगिर्द ऋषि पुत्री घोषा जैसी स्त्रियों और कैन्टीन वाली घोषा से तुलना करने लगी ।

16 टिप्पणी

  1. बहुत मार्मिक, अर्थपूर्ण कहानी। समय के साथ निर्भरता के मायनों को पकड़ती, स्त्री अस्मिता को रेखांकित करती कहानी हेतु विनीता और पुरवाई को बधाई।

  2. बहुत ही बढ़िया ढंग से लिखी गई कहानी। उपर्युक्त कहानी स्त्री विमर्श के साथ – साथ एक स्त्री को मजबूती से समाज में अपना वजूद कायम रखने के लिए एक हौसला की तरह है और प्रेरणा दायक है। इसी तरह लिखतीं रहें।

  3. स्त्री कुछ ठान ले तो उसके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं। शारीरिक कमी से टूटी नहीं, और मज़बूत बन गयी घोषा। बहुत ही अच्छी कहानी है। बधाई विनीता।

  4. कहानी घोषा में वह सब है जो तुम कहना चाहती थीं ।कहानीकार वही अच्छा जिसे मालूम हो कि वह कहना क्या चाहता है ।
    शुभकामनाये
    Dr Prabha mishra

  5. ‘घोषा’ यह नाम चकित करता है। समय के पुराने विमर्श के साथ नये विमर्श को पूरे प्रमाण के साथ दिखाना, वह भी एक सही तालमेल बैठाते हुए लिखना। कहूँगी कि ‘ दाग’ जैसी समस्या पर स्त्री विमर्श की गहरी पड़ताल करते हुए उसके दर्द और संघर्ष के साथ ही उसके आत्मविश्वास और स्वावलम्बी होने जैसी मजबूती को दिखलायी हैं। बहुत बढ़िया लेखन कौशल, विषयवस्तु आदि। बहुत बधाई आपको।

  6. स्त्री की जिजीविषा का सटीक चित्रण। घोषाल दाग़ के साथ बड़ी हुई और परित्यक्ता होकर ही इसकी विद्रूपता को समझ पाई। पर वो टूटी नहीं और बिना किसी अवलम्ब के दृढ़ता से जीवनयापन करती रही वह सही अर्थों में सशक्त स्त्री है।
    वैसे ये दाग़ बुरे अवश्य लगते हैं पर न तो संक्रामक होते हैं न ही वशानुगत।
    सुंदरता से कही गई घोषाल की कथा।

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