“पापा, बिस्तरबंद में और कुछ रखना है या बंद कर दूँ?” गुरजीत ने बिस्तरबंद के पट्टे को कसने का उपक्रम – सा करते हुए पूछा|
“जरा रुक जा, ये दो तौलिए और पप्पू के मैले कपड़े भी इसी में डाल दे| बाकी के ट्रंक, अटैचियों में ताले लगा दिए हैं,” माँ बीच में ही बोल पड़ी| कपड़े डाल कर गुरजीत ने पुरजोर कोशिश से पट्टा कस कर ताला लगाया|
“हो गयी तैयारी?” पड़ोसिनें रामप्यारी, लाजो, प्रकाश कौर मनजीत सिंह के परिवार को विदाई देने पहुँच गयी थीं|
“हाँ, तकरीबन हो ही गयी है, रानी के चेहरे पर एक साथ दोनों भाव उभर आये – पडौसियों से बिछड़ने का तथा अपने शहर, अपने लोगों से दोबारा मिलने की खुशी का|
“रानी, हम तुम्हें बहुत याद करेंगी,” रामप्यारी के स्वर में जुदाई का भारीपन झलक आया|
“चिट्ठी – शिट्ठी पांदी रहना|” प्रकाश कौर के स्वर में आत्मीयता व आर्द्रता का पुट था|
“फिर कभी इधर आना हुआ तो हमसे जरुर मिलना|” लाजो के स्वर में आग्रह था|
“मुझे भी तो आप सबकी बहुत याद आयेगी| इन डेढ़ – दो वर्षो तक आप सबके बीच रह कर जो स्नेह, सहयोग, अपनापन मिला, क्या वह भूल सकती हूँ?” रानी की आँखें नम हो आयी थीं|
“तुम्हारी गड्डी का टैम की है?” प्रकाश कौर ने पूछा|
“अभी दो घंटे बाकी हैं|”
“तो ठहरो, मैं अभी चाय बना लाती हूँ| आखिरी बार तुम्हारे साथ बैठ कर हम भी पी लें|” – लाजो उठ कर खड़ी हो गयी|
“नाहक तकलीफ न करो बहन, बैठो न, बातें करते हैं|” रानी ने हाथ पकडा तो लाजो ने हाथ छुड़ाते हुए अपना दुपट्टा संभाला – “पांच मिनट में चाय ले कर आती हूं फिर साथ साथ में बातें भी करते रहेंगे|”
रामप्यारी भी उठ गयी| “मैं थोड़ी – सी मिठाइयाँ ले आती हूँ, रस्ते में बच्चों के कम आयेंगी, इतना लंबा सफ़र है|”
“मैंने कल ही तोशे (शक्करपारे) बनाये थे, अभी आयी मैं …” प्रकाश कौर तेजी से आगे बढ़ गयी|
रानी के भीतर जैसे कुछ चटक गया| हृदय के स्पंदन में जैसे बाधा आ गयी हो| कितनी आत्मीयता, कितना स्नेह हो गया है इन लोगों से पिछले डेढ़ दो सालों से| पड़ोसियों की ही लायी हुई दो कुर्सियों पर पति तथा वह बैठ गये| सारा सामान ट्रक में रवाना हो चुका है, केवल कुछ जरूरी सामान ट्रंक , अटैचियां, बिस्तरबंद में व्यवस्थित कर लिया है। बच्चे कुछ देर के लिए अपने दोस्तों के साथ मिलने – खेलने चले गये|
“रानी, तेरा दिल कर रहा है यहां से जाने का?” मनजीत के प्रश्न से रानी चौंकी|
“दिल की बात छोड़ो, इन्सान जहां भी कुछ समय रहे, पड़ोसियों, परिचितों से स्नेह, आत्मीयता हो ही जाती है, लेकिन अपनी माटी, अपना शहर तो अपना ही होता है न| उसे कैसे भुलाया जा सकता है| हवा का रुख अकस्मात बदला था और परिंदों की तरह हमें अपना घर बार छोड़ कर जाना पड़ा| अब लौटते समय क्यों उस मनहूस घड़ी की याद दिलाते हो जिसकी बदौलत हमारी जिंदगी का एक सुनहरा अध्याय गुमनामी के अँधेरे में खो सा गया था”।ठंडी उसांस भर रानी पुन: अतीत के झरोखों में न चाहते हुए भी झांकने लगी थी|
तत्कालीन प्रधान मंत्री की हत्या से देश भर में हिंसा की आग भडक उठी थी| सड़कों पर, ट्रेनों में, घरों से निकाल कर हत्यारों के जाति भाइयों को कत्लेआम करने का गुंडों को अवसर मिल गया था| जी भर कर लूटपाट, आगजनी, तोड़ – फोड़ का तांडव| फर्नीचर की दुकान थी मनजीत की| दुकान के पीछे खाली जगह में दो कमरों का गुजारे लायक घर बना लिया था| योजना थी कि काम अच्छा चल निकलने पर दो कमरे और बढ़ा लिये जायेंगे| कमरों के सामने बीस – पचीस फुट खाली जगह थी, उसी में कुछ सब्जियां लगा डाली थीं रानी ने|
“अपने हाथ की लगायी सब्जियों का स्वाद ही कुछ और होता है|” अकसर वह कहती|
बड़ी बेटी गुरजीत पांचवीं कक्षा में थी और पप्पू दूसरी में| पढ़ाई में दोनों ही अच्छे थे| प्रथम श्रेणी उनकी सुरक्षित थी|
उस भयानक शाम की याद आते ही आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं| लगभग डेढ़ दो सौ लोगों की क्रुद्ध भीड़ जिनके हाथों में डंडे, पेट्रोल के डिब्बे, लोहे की सलाखें, बरछे थेदूर से ही देखा| झटपट भीतर के दरवाजे बंद किये, भय और अनिष्ट की आशंका से वह कांपने लगी|
“वे लोग इस ओर आ रहे हैं| आप पड़ोसी के हरी भाई के घर, पिछवाड़े की दीवार को फांद चले जाए” घबराहट तथा भय से उसका चेहरा पीला जर्द हो चला था|
पत्नी की सलाह मनजीत को जंची नहीं| अगर उसके जाने के बाद उन लोगों ने घर में ही आग लगा दी तो? दरवाजा तोड़ भीतर आ गये तो? रानी के साथ बदतमीजी की, बच्चों को ही निशाना बना डाला तो? नहीं : ….. भीड़ की कर्कश ध्वनि, कोलाहल नजदीक आता जा रहा था। बिजली की गति से मनजीत ने दोनों बच्चों को दीवार फांद कर हरी भाई के घर पहुंचाया| अपने घर में ताला डाला, रानी को खींचते हुए, दीवार फांद बच्चों के पास पहुँच गये| हड़बड़ाहट में दीवार फांदते समय रानी गिर पड़ी थी| घुटने पर कुछ खरौचें उभर आयी थीं| हरी भाई ने शीघ्रता से उन्हें भीतर ठेल दरवाजा बंद कर लिया|
मनजीत तथा रानी का हृदय दुगने वेग से धड़क रहा था| मारे डर व तनाव के, ठंड होने के बावजूद कपड़े पसीने से तर होने लगे थे| हरी भाई की पत्नी अंदर के छोटे कमरे में सभी को ले गयी – “आप लोग यहां आराम करिए,” कमरे में बिछी दरी पर चारों बैठ गये| पप्पू तो डर के मारे रोने लगा था|
“चुप हो जा पुत्तर| अभी थोड़ी देर में सब चले जायेंगे, फिर हम भी अपने घर चलेंगे|”
“माँ, हमने इनका क्या बिगाड़ा है?” गुरजीत के प्रश्न का किसी के पास उत्तर नहीं था|
“वाहे गुरु का नाम लो बेटी, इस घड़ी बहस करने या क्रोध करने से कुछ नहीं बननेवाला|”
पति – पत्नी दोनों हाथ जोड़ अरदास कर रहे थे – “सच्चे पातशाह, मेहर करना|”
क्रुद्ध भीड़ की आवाज अब स्पष्ट सुनाई दे रही थी|
“लगा दो आग इस ‘पंजाब फर्नीचर’ को” एक चीखती क्रुद्ध आवाज पति – पत्नी ने सुनी तो जैसे उनके प्राण ही बाहर आ गये| दुकान के साथ ही लगा मकान क्या बच पायेगा? रानी की रुलाई फूट पड़ी|
“चुप कर, भगवान! सब्र रख जो उसकी मर्जी होगी वह तो होगा ही|” तन मन से थका हारा सा ,आकस्मित फैली दहशत से आतंकित मनजीत पत्नी को सांत्वना देने लगा|
‘पंजाब फर्नीचर’ के साथ ही सटी थी फ़िदा हुसैन की शानदार लकड़ी की दुकान| फर्नीचर की लकड़ी, आरा मशीनें, जलाऊ लकड़ी कुल मिलाकर पच्चीस – तीस लाख का माल था| उसी के साथ थी राजकुमार टिंबर मार्ट और फिर दो – तीन छोटी दुकानें पंक्चर की, पान की, चाय की| यह तो निश्चित था| कि ‘पंजाब फर्नीचर’ के साथ ही ये सारी दुकानें भी भस्म हो जायेंगी|
अचानक फिदा हुसैन तथा सुभाष – राजकुमार टिंबर मार्ट का मालिक दौड़ते से आये|
“भाइयों, ऐसा मत करना| वह सरदार तो बड़ा नेक है उसे तबाह मत करो|”
“नहीं हम तो इस दुकान को छोड़ेंगे नहीं डालो पैट्रोल…”
“ठहरो, तुम्हें पैसे चाहिए न? ये लो … कहते हुए दस दस के नोट भीड़ पर फेंकने शुरू कर दिए सुभाष व फ़िदा हुसैन ने|
सारी भीड़ नोटों पर पिल पड़ी|” ये भी क्या करें? जैसा इन्हें आदेश दिया जाता है, करते हैं। इनकी अपनी बुद्धि, सोच तो है नहीं। बस, चंद स्वार्थी राजनीतिज्ञों की चालें है, जिनमें कुछ रुपयों के लालच से ये जकड़े जाते हैं|” सुभाष और फ़िदा हुसैन इत्मीनान से बातें करने लगे| कुछ ही देर में भीड़ वहाँ से रवाना हो गयी|
“बहन जी, अगर आप रात को यहीं आराम कर लें तो ठीक रहेगा| इन शरारती गुंडे लोगों का क्या भरोसा| रात को कुछ भी कर सकते हैं “।हरी भाई व पत्नी की बात में दोनों को ही वजन लगा| बेदिली से थोड़ा सा खाना गले के नीचे उतारा और वहीं दरी पर सोने के उपक्रम में लग गये| बच्चे तो सो गये, पर मनजीत रानी की आँखों में भला नींद कैसे आती? आज तो बच गये, पता नहीं यह दमघोंटू माहौल कब तक आतंक का साया फैलाए रखेगा!
कमरे का दरवाजा उढ़का हुआ था, लेकिन दूसरे कमरे से हरी भाई एवं उनकी पत्नी की अस्पष्ट आवाज़ें कुछ हद तक सुनाई दे रही थीं – “कहीं इनके कारण हम मुसीबत में न पड़ जायें …” हरी भाई की फुस – फुसाहट से भय छलक रहा था|
“कैसी बातें करते हो| पांच सालों से हमारे साथ रह रहे हैं। ऐसी घड़ी में हम मदद न करें तो लानत है|” हरी भाई की पत्नी के स्वर में कुछ आवेश था|
“अच्छा अब चुप करके सो जाओ|”
मनजीत रानी की आँखों से नींद कोसों दूर थी| कब तक अपने घर से बे घर हो कर छुप कर रहना पड़ेगा| वे तो अपने आपको हिंदुओं से अलग मानते ही नहीं| मनजीत के दो भाई सिख हैं ओर दो हिन्दू| रानी के पिताजी हिन्दू हैं और भाई सिख| दोनों भाई बहन भी मिश्रित परिवार में ब्याहे गये हैं| आज अचानक हिन्दू – सिख के बीच नफरत दुश्मनी की लहर कैसे उभर आयी? सारी रात दुश्चिंताओं, तनाव तथा धुकधुकी में बीत गयी|
चिड़ियों के कलरव से उन्हें ज्ञात हुआ सवेरा हो गया है|
“अच्छा बहन जी, शुक्रिया| अब चलते हैं” मनजीत दोनों बच्चों के साथ आगे था|
“रानी बहन, अभी माहौल का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं यह दहशत कितने दिन रहेगी| मनजीत भाई को बाहर मत जाने देना| जब भी जरूरी समझो बेझिझक यहाँ आ जाना” हरी भाई की पत्नी ने कहा तो रानी के चेहरे पर कृतज्ञता के भाव उभर आये|
तनिक से शोरगुल या कोलाहल से मनजीत के रोंगटे खड़े हो जाते – “फिर आ गये वे लोग| अगर जबरन घर के भीतर घुस आये तो फिर उसे छोड़ने वाले नहीं। एक जूनून – सा उनके दिमाग में भर दिया गया है, जहाँ भी हत्यारों का जाति भाई दिखे, खत्म कर डालो|” कुछ सोच कर, पत्नी से वह छुपते – छुपाते फ़िदा हुसैन की दुकान में पहुंचा – “हुसैन भाई, तुम और सुभाष मेरी दुकान का बोर्ड उतरवा दो| मुझे भी कहीं लकड़ियों के गोदाम में सुरक्षित स्थान पर छुपने दो, क्या पता कब कोई आ धमके …..”
विस्मय तो फिदा हुसैन को भी जबरदस्त हुआ था, लेकिन उसकी बातों में निहित सच्चाई को भी माहौल के हिसाब से नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता था|
“ठीक हैं, मैं वहाँ कुर्सी रखवा देता हूं|”
“पंजाब फर्नीचर का बोर्ड हट गया| तीन दिन पूरे शहर में आगजनी, लूटपाट, छुरेबाजी का नंगा नाच चलता रहा| सौभाग्य से उग्रवादी भीड़ इस ओर दोबारा नहीं आयी| तीन दिन मनजीत ने गोदाम में बिताये। समय असमय खाना, चाय, जो मिला प्रसाद समझ ग्रहण किया| लकड़ियों के विशाल भंडार में कच्ची मिट्टी की कुछ जगह गुजरने के लिए छूटी हुई थी| वहीं एक चादर डाल उसने तीन रातें काटी थीं| लगभग जाग कर| हर घड़ी एक आशंका जकड़ लेती, अगर इस ओर कोई आ गया तो रानी और बच्चों का क्या होगा? पल भर के लिए आँख लग भी जाती तो क्रुद्ध भीड़ का कोलाहल, आग की लपटें, चीख पुकार, तोड़ – फोड़, लूटमार के दृश्य प्रकट हो जाते और हड़बड़ा कर झटके से वह उठ बैठता| चौथे दिन कर्फ्यू लगने पर शहर में शांति का आगमन हुआ और मनजीत भी घर पहुंच गया|
“रानी, मेरा ख्याल है अब हमें इस शहर में नहीं रहना चाहिए|” सप्ताह भर पश्चात अचानक मनजीत ने कहा|
“क्या ….? तो कहां जायेंगे?” रानी हतप्रभ थी|
“पंजाब चलते हैं|”
“क्यों …? यहां क्या तकलीफ है?”|
“तू समझती क्यों नहीं| इस बार हम बच गये वाहे गुरु की मेहर से, अगर ऐसे हालात दोबारा पैदा हो गये न, तो हमें कोई नहीं छोड़नेवाला…”
“कैसी बच्चों – सी बातें करते हो| क्या ऐसा माहौल बार – बार बनता है? कोई अंधेरगर्दी मची है जो यह सब दोहराया जायेगा? यह तो कुछ स्वार्थी लोगों की साजिश थी, जिसने निचलेदर्जे के लोगों को गुंडा तत्वों के संरक्षण में दहशत फ़ैलाने का काम सौंपा था| एक जूनून था जो आंधी की गति में आया और कोई कुछ न कर सका,” रानी अपनी ही रौ में कहे जा रही थी|
“मैंने तुझे भाषण देने के लिए नहीं कहा” क्रोध से बिलबिला उठा मनजीत- “अब मेरा दिल नहीं लगता| हर घड़ी एक डर, आतंक, बेचैनी – सी महसूस होती है| हम यहां नहीं रहेंगे|”
लेकिन यह क्या इतना आसान कार्य है? तीस – पैतीस वर्षो से इस शहर से हम जुड़े हुए हैं| मेरा जन्म भी यहीं हुआ था| यहीं पले, बढ़े, शादी हुई, गृहस्थी बसायी | अभी – अभी तो हमारा काम अच्छा चलने लगा है … “ रानी के चेहरे पर वेदना उभर आयी थी|
‘तो क्या हुआ? वहां जा कर भी यही कार्य करेंगे|”
“लेकिन यहां अपनी जमीन है, मकान है, रिश्तेदार हैं|”
“दो समय की रोटी वहां भी मिल जायेगी|” तैश में आ गया मनजीत|
“सिर्फ़ रोटी ही तो जीवन का मकसद नहीं| बच्चों की पढ़ाई वहां के रीति रिवाज, हर प्रदेश का अपना हवा पानी, मौसम … सभी में फर्क होगा| पता नहीं माफिक आये या नहीं”…|
“तुझे तो हर काम में टांग अड़ाने की आदत – सी पड़ गयी है| मेरे और दो तीन साथी, जिनका काफ़ी नुकसान हुआ है, लुधियाना जाने की सोच रहे हैं| हम भी वहीं चलेंगे|” बात को लगभग समाप्त करते हुए मनजीत ने फैसला सुना दिया|
“लेकिन अपने भाइयों से भी राय ले लेते … “रानी को आशा की किरण दिखी|
“क्या फायदा? वे दोनों तो हिन्दू हैं, बगैर किसी चिंता के रहेंगे, दूसरे दोनों पहले से ही मद्रास में हैं| वहां तो कोई चिंता की बात है ही नहीं|”
पति के जिद्दी अड़ियल स्वभाव से रानी परिचित थी ही| उनकी दलीलों से मन बुझ गया फिर भी वह इस पलायन को टालना चाहती थी – “लेकिन वहां अनजान राज्य अनजान शहर, अनजान लोगों में कैसे रह पायेंगे? क्या वहां सब कुछ ठीक से व्यवस्थित हो जाने का तुम्हें विश्वास है? दिल लग जायेगा वहां?
“ तू नहीं जानती हमारी कौम के लोगों के दिल दरिया जितने विस्तृत और गहरे होते हैं| वहां के लोग निश्चय ही हमारी मदद करेंगे|” मनजीत बड़े आत्मविश्वास से कह उठा था|
“कौन जाने| यह तो भविष्य की कोख में छुपा है| वक्त आने पर कौन क्या हो जाये क्या पता? वैसे बुरी घड़ी में हरी भाई भी कहां पीछे रहे? फिर यहीं रहने में क्या हर्ज?”
“तेरे भेजे में तो बात जल्दी घुसती ही नहीं|”
गरम लहजे में मनजीत बीच में ही बोल पड़ा तो रानी चुप्पी लगा गयी|
“मैं दो-चार दिनों में ही अपने दोस्तों के साथ लुधियाना जाऊंगा, हफ्ता भर रह कर सब कुछ ठीक कर आऊंगा|”
अगले सप्ताह मनजीत लौटा तो उसके चेहरे की अनोखी चमक, अतिरिक्त उत्साह से खिला चेहरा देख रानी उदास हो गयी | समझ गयी – अपने इरादे को वह सफल करके लौटा है|
महीने भर के अंदर ही मकान व दुकान बेचने का उसका सौदा लगभग पक्का हो गया| “जगह किराये पर उठा दो| अगर वहां से वापस लौटना पड़ा तो यह टुकड़ा बहुत राहत देगा|”
रानी के सुझाव पर मनजीत बिफर पड़ा – “तेरे दिमाग को पता नहीं क्या हो गया है| अब भला हम वापस क्यों कर लौटेंगे ? क्या वे तीन दिन मैं भूल सकता हूँ जो लकड़ी के गोदाम में, कायरों को तरह छिप कर बिताये| हर पल आतंक की तलवार सिर पर लटकती महसूस की, उनींदी आंखों से अपने आपको मौत के शिकंजे में कसते देखा, तनिक से शोरगुल से अपने सर्वनाश की कल्पना कर डाली। भय, आतंक, घबराहट में भूख, प्यास, नींद सभी दूर हो गयी थीं| केवल मानसिक तनाव, दुश्चिंताएं, दुखद कल्पनाएं ही उस घड़ी की साथी थीं| नहीं इस तरह मान सम्मान खो कर, बेगैरत हो कर हम यहां नहीं रह सकते और फिर यह जमीन बेचेंगे नहीं तो वहां नया काम आरम्भ कैसे करेंगे?
रानी के सारे तर्क वितर्क व्यर्थ साबित हुए। बच्चों के स्कूल में नया दाखिला भी जून से होना था| अत: उसके पूर्व ही लुधियाना पहुंचने की कोशिश थी मनजीत की।काफी भाग दौड़ के उपराँत वह इसमें सफल भी हो गया|
जिस दिन ट्रक से सारा सामान रवाना किया गया, मनजीत के दोनों भाई – भाभियां मिलने आये – “वीर जी, आपने बहुत जल्दबाजी की| अपने शहर को, जहां पले बढ़े, शिक्षा ली, गृहस्थी बसायी, एक पल में काट अलग होने में कोई पीड़ा, दुःख या तकलीफ नहीं हो रही?”
रानी के तो आंसू झर – झर बह निकले। मनजीत ने काबू पा लिया – “सब दाना पानीं के अख्तियार है”|
दूसरे दिन की गाड़ी से उन्होंने भी अपने शहर से विदा ली| दो कमरों के किराये के मकान का बंदोबस्त मनजीत कर आया था, रिक्शे से सीधे वहीं पहुंचा |
“आओ भैण जी सतसिरी अकाल|” यह पाशो थी मकान मालकिन| केवल गिना चुना आवश्यक सामान ही वे साथ लाये थे, शेष तो ट्रक में डलवा दिया था। “पहले चाय पी लो, थकान उतर जायेगी फिर घर व्यवस्थित कर लेना|” कांच के चार गिलासों में चाय लिये पंद्रह मिनट बाद ही वह दोबारा हाजिर हो गयी| पति – पत्नी के चेहरे पर कृतज्ञता के भाव उभर आये| दरअसल इस वक्त उन्हें चाय की ही दरकार थी|
“किसी चीज़ की जरुरत हो तो बेझिझक मांग लेना, हमें गैर मत समझना|”
मनजीत की आंखों की चमक बढ़ गयी| रानी को यों देखा मानो कह रहा हो – “देखा, कितना अपनापन है यहां|”
बच्चों को पंजाबी माध्यम के स्कूल में दाखिला मिला तो रानी चिंतित हो उठी – “पंजाबी तो इनको आती ही नहीं, वहां हिन्दी माध्यम में पढ़ते थे| यहां सारे विषय पंजाबी में कैसे पढ़ेंगे?”
“तू तो छोटी – छोटी सी बात पर तनाव पैदा करके बैठ जाती है| कमली, तू नहीं जानती बच्चे किसी भी माहौल में अपने आपको बहुत जल्दी खपा लेते हैं। वे बहुत जल्दी पंजाबी भी सीख जायेंगे| अरे जब यहां सभी पंजाबी बोलते – पढ़ते हैं तो बच्चों को कितना समय लगेगा सीखने में? फिर हम भी उन्हें मदद करेंगे|”
रानी घर व्यवस्थित करने, बच्चों की पढ़ाई तथा नये माहौल में अपने आप को ढालने में व्यस्त हो गयी| मनजीत अपनी जमा – पूजी से नये कारोबार की तलाश में लग गया |
तेजी से पनपते क्षेत्र में उसे एक दुकान की जगह वाजिब दाम पर मिल गयी | उसने निश्चय किया कि नया कार्य आरम्भ करने की बजाय अपना पहले वाला कार्य ही ठीक रहेगा| उसे वर्षों का अनुभव है| दुकान का कार्य आरंभ हो गया| जिस दिन नये कामकाज की शुरुआत की, खुशी में पड़ोसियों का मुंह मीठा कराया और “पंजाब फर्निचर” का बोर्ड
लगाया, अचानक तीन चार लंबे तगड़े आदमी आ पहुंचे – “ओये भापे क्यों हमारी रोजी – रोटी पर लात मार रहा है?
हतप्रभ सा मनजीत उन्हें एकटक देखता रह गया – “मैं आपका मतलब नहीं समझा|
“देख भापे, इधर तो पहले ही फर्नीचर की दुकानें ज्यादा नहीं चलतीं| नाले के पार हमारी दुकान है जो हमारी गृहस्थी की गाड़ी को बस खींच रही है| तेरी दुकान से तो हमारी दाल – रोटी भी खटाई में पड़ सकती है| तू कोई दूसरा क|म क्यों नहीं शुरु करता?” चश्माधारी ऊँचे तुर्रे की पगड़ीवाला रौबीला आदमी बोला|
“लेकिन यह काम मैं पिछले दस वर्षों से करता आ रहा हूँ, मुझे इसका अनुभव है| नया काम कैसे करूँ?” मनजीत ने अपना संशय जाहिर किया|
“जब पुराने शहर, पुराने लोगों से विदा ले कर आ ही गये हो तो नये शहर में नया काम करने में क्या हर्ज है?”
मनजीत की समझ में नहीं आया कि उस व्यक्ति ने व्यंग्य किया है या राय दी है| पसोपेश में पड़ गया वह|
घर लौटा तो पप्पू बुखार से तप रहा था,
“किसी डाक्टर के पास क्यों नहीं ले गयी?”
“मुझे यहाँ के डाक्टरों की कौन – सी जानकारी है? जो गोली वहाँ देती थी, दे दी है|” रानी ने कहा तो दबा आक्रोश फट पड़ा उसका…….
“पड़ोसियों से नहीं पूछ सकती थी? क्या यह भी कहने – समझने की बात है?”
फिर स्कूटर पर पत्नी व पप्पू को लिए वह डाक्टर के पास पहुँचा था| मुआयना करने के पश्चात् डांक्टर ने दवा देते हुए पूछा – “आप लोगों को इस मोहल्ले में पहले नहीं देखा| बाहर से आये हैं?”
“जी हाँ|”
“कहाँ से?”
“इंदौर से|”
“डाक्टर साहब – कितने पैसे हुए?” मनजीत ने जेब से पर्स निकालते हुए पूछा|
“अभी मैं आप से पैसे नहीं लूंगा| जितने भी बाहर के शहरों से ‘शरणार्थी’ आये हैं, मैं इन्सानियत के नाते उनसे वैसे नहीं लेता|”
‘शरणार्थी’ – मनजीत को लगा मानो किसी ने बड़ी भद्दी गाली दी हो|
देश का विभाजन हुआ उस समय उसकी उम्र पाँच वर्ष थी| पिता जी अक्सर बताते थे लाहौर से बिहार के कोडरमा, झुमरीतलैया, राँची जैसे छोटे – बड़े सभी शहरों में धक्कों के बाद भी उनका कोई काम धंधा व्यवस्थित नहीं हो पाया था| सरकार के अश्वासन के बावजूद उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिल पाया था| उस पर जब लोग उन्हें ‘शरणार्थी कह कर पुकारते थे, तो उनके तन – बदन में आग लग जाती थी| किसने बनाया इन्हें शरणार्थी? चंद अवसरवादी नेताओं की सत्तालोलुपता ने ही न| उनका क्या दोष था? धन धान्य से भरपूर अपना पक्का घर लाहौर में, उसी अवस्था में छोड़ भागना पड़ा था उन्हें तीन बच्चों के साथ|
नाना जी सीधे ही इंदौर जाकर बस गये थे ।दोनों बेटों के साथ| उनका काम – धंधा जल्दी ही चल निकला था| माँ ने दो चार बार अपनी पतली हालत का हवाला चिट्ठी में दिया तो नाना जी ने उन्हें भी इंदौर आने की सलाह दी| पिता जी पहले तो नहीं माने थे| बड़े स्वाभीमानी थे, लेकिन दिन – ब – दिन अपनी गिरती आर्थिक हालत व काम धंधे की असफलता, अस्थिरता ने उन्हें मजबूर कर दिया। पाँच – छह वर्षो में दो बच्चों का इजाफा भी हो गया था | इन दोनों भाइयों को हिन्दू (मौने) बनाया था |
इंदौर आने के बाद स्थिति में सुधार होने लगा था| नाना जी की मदद से पिता जी ने लकड़ी – कोयले की दुकान आरंभ की थी| दोनों बड़े भाई पिता जी के साथ दुकान पर बैठते थे| छोटे तीनों पढ़ते थे| किराये से ली हुई काफी बड़ी दुकान की जगह कुछ ही वर्षों में खरीद ली गई थी| बीस – बीस वर्ष की उम्र में ही पिता जी ने सभी लड़कों की शादियाँ कर दी थीं| दोनों बडे भाई अपनी – अपनी पत्नियों के संग दक्षिण घूमने गये तो मद्रास उन्हें इतना भा गया कि वहाँ बसने का निर्णय करके लौटे| पिता जी ने सभी बेटों को समान हिस्सा दे दिया और सबकी शादियों से फारिग हो कर तीर्थ स्नान करने माँ के संग गये तो वापस नही लौटे| रास्ते में बस दुर्घटना की शिकार हो गयी थी|
चूँकि इस क्षेत्र में अधिकांश लकड़ी, कोयले, फर्नीचर की दुकानें थीं, अत: मनजीत ने अपने हिस्से के जमीन के टुकड़े पर फर्नीचर की दुकान डाल ली| छोटे भाइयों को यह काम पसंद ही नहीं था| अपने हिस्से की जमीन बेच कर एक ने आधुनिक कालोनी में डिपार्टमेंट स्टोर खोल लिया तो दूसरे ने कपड़ों की दुकान|
“यहाँ आये हमें छह महीने हो गये हैं, लेकिन अभी तक कोई काम – धंधा शुरू नहीं हुआ| जमा – पूंजी कुछ दुकान बनवाने में लग गयी, शेष खाने में खत्म हो रही है | कब तक चलेगा ऐसे? कोई नया काम क्यों नहीं शुरू कर देते?” रानी के स्वर में चिंता के साथ खीझ भी सम्मिलित हो गयी थी|
“हौजियरी का काम शुरू करने की सोच रहा हूँ| दो चार व्यापारियों से बातचीत की भी है| अगले हफ्ते तक कुछ माल ला कर धंधा शुरू कर लूंगा|” मनजीत की बातों से रानी को तनिक राहत मिली|
छह महीने बीतने पर हिसाब लगाया तो धंधे में लाभ नहीं के बराबर था| आये दिन शहर में कभी हिंसा के विरोध में बंद, कभी हड़तालें, कभी कर्प्यू तो कभी आतंकवादी गतिविधियों के परिणामस्वरूप बंद| काम धंधे पर दुष्प्रभाव तो पड़ना ही था| शाम सात बजते ही सारी दुकानों के पट फटाफट गिरने लगते? सभी की कोशिश होती आठ से पहले सही सलामत घर पहुंच जायें वरना क्या पता किधर से कोई आतंकवादी आ धमके या पुलिस ही पूछ – ताछ के बहाने जेल में जबरन डाल, कुख्यात आतंकवादी की धरपकड़ का इनाम प्राप्त कर ले|
बच्चों के नतीजे निकले जो मुश्किल से ही उत्तीर्ण हुए थे| रानी गुस्से से बिफर पड़ी – “नालायकों, पूरा साल तुमसे सिर खपाती रही और यह नतीजा लाये हो!” बच्चे सहमे से खड़े थे| तभी मनजीत आ गया – “क्यों उनके पीछे पड़ी हो|” रानी के सब्र का बाँध टूट गया – हमें वापस अपने शहर ले चलिए, यहाँ आकर क्या मिला ? न काम – धंधा, न बच्चों की ढंग की पढ़ाई, न कोई रिश्तेदार, मेरा दम घुटता है…………. रो पड़ी थी वह|
पिछले महीने माँ की बीमारी की चिट्ठी आयी थी, लेकिन वह न जा पायी थी| बच्चों को किसके सहारे छोड़े? बेशक पड़ोसी भले थे, वक्त पर काम आते थे, फिर भी हफ्ते भर के लिए उनके भरोसे छोड़ने जितना विश्वास नहीं था मन में| फिर जब माँ की मृत्यु का तार मिला था तभी बच्चों और पति सहित पहुँची थी, लेकिन वहाँ जाकर पता लगा, माँ को गुजरे तीन दिन हो चुके थे| तार देर से पहुँचा था| उस घड़ी उसकी घुटन, छटपटाहट, पीड़ा, आक्रोश सभी सीमा पार कर गये थे| वह पति से वहीं उलझ पड़ी थी – तुम्हारे ही कारण मैं माँ से अन्तिम बार नहीं मिल सकी| वह बेचारी तो आखिर तक पंजाब जाने से रोकती रही थी, लेकिन तुम मानो तब न| तुम तो अपने निर्णय को ही सर्वोपरि मानते हो… किसी की राय लेने में तुम्हें अपना अपमान महसूस होता है न!….”
मनजीत अपने आवेश को पी कर रह गया| माहौल की संवेदन शीलता को देखते हुए उसे चुप ही रहना उचित लगा था| तब से ही रानी किसी भी अप्रिय हादसे को सुनते या देखते ही कह उठती – “चलो न अपने शहर, यहाँ क्या धरा है? मेरे पिता जी, भाई. आपके भाई, मित्र संबन्धी जरुर हमारी मदद करेंगे| हमें कोई तकलीफ नहीं होगी| अपनी माटी घर, अपने लोगों के साथ हम फिर से नया जीवन आरम्भ करेंगे| जीवन के व्यर्थ हुए इस साल – डेढ़ साल को भी बिसरा देंगे|”
मनजीत का अंतर्मन खौल उठता | त्रिशंकु की सी हालत हो गयी थी – अधर में लटके रहने सी| यहाँ भी परेशान और वहां से तो सदा के लिए विदा ले आया था| अब वापस लौटने पर सबका उपहास का पात्र बनने या व्यंग्य–बाण सुनने की कल्पना से ही वह सिहर उठता| एक अपराध बोध भी शनै – शनै मन में घर करने लगा था कि क्यों निर्णय लेने में इतनी जल्दबाजी की? क्यों किसी की राय लेना आवश्यक नहीं समझा? आधारहीन धरातल पर जिंदगी का रुख पलटने का जोखिम उसने क्यों उठाया?
इसी मन स्थिति तथा डावांडोल मानसिकता में, अनिश्चित भविष्य के भंवर में छह – आठ महीने बीत गये| न तो काम – धंधे में कोई विशेष तरक्की हुई और न बच्चों की पढ़ाई में| केवल रानी के पड़ोसियों से संबंध जरुर कुछ आत्मीय – से हो गये थे| प्रकाश कौर, लाजो, पाशो, राम – प्यारी उसके काफी निकट आ गयी थीं| लेकिन इसके बावजूद वह अपने शहर अपनी माटी को नहीं भुला पा रही थी| मन में सदा एक खालीपन, निराशा सी छायी रहती|
चिड़ियों की चहचहाहट से रानी की नींद खुली यानी सवेरा हो गया| आज इतनी गहरी नींद कैसे आ गयी कि लाउडस्पीकरों पर गुरूद्वारों से आ रही शब्द गुरबाणी की आवाज भी सुनाई नहीं दी| एक झटके से वह उठ बैठी तो देखा पति गुमसुम सा बैठा है सोच विचार में लीन| आज यह मुझसे पहले कैसे उठ गये?
“क्या बात है, क्या सोच रहे हो?” रानी ने पूछ ही लिया|
“मैं सोच रहा हूं यही ठीक रहेगा …”
“क्या …?”
“वापस चलते हैं अपने शहर|”
“सच … | तुम सच कह रहे हो न …?” रानी हर्षोतिरेक से स्वयं को भी जैसे नहीं संभाल पा रही थी| अविश्वास से उसने पति के चेहरे की ओर देखा मजाक के कोई चिन्ह नहीं थे|
“दरअसल इन डेड़ दो वर्षों में मैंने अनुभव किया है कि अपनी माटी, अपने शहर से हमें इतना लगाव हो चुका था कि उन्हें भूलना मुमकिन नहीं है| यहाँ रहते हुए लगता है मानो हम अपराधी हैं, उनके साथ अन्याय किया है| बेशक यहां के लोगों से हमें प्रेम, सहयोग मिला है| लेकिन वह बात यहां नहीं, दुकान बेचने की कोशिश मैंने आरम्भ कर दी है, दो – एक दलालों को कह रखा है …”
रानी की आँखों के दिए रोशनी से दिप – दिप हो उठे | कुछ समय से जो गहन अंधकार आंखों में, मन में व्याप्त था आज कपूर की भांति उड गया था| अतिरिक्त उत्साह उसके चेहरे से झलकने लगा था| वहां की कंपकपा देनेवाली, बर्फंसी बना देने वाली ठंड तथा उबाऊ, चिलचिलाती धूप व उमस से भरी, दिन भर पसीने से नहलाती गर्मी से अचानकराहत मिलती महसूस हुई| अब पप्पू भी घमोरियों के आक्रमण से सुरक्षित रहेगा। गुरजीत लगातार खांसी – सर्दी की तकलीफ से मुक्त हो जायेगी| वहां का मौसम दोनों बच्चों को ही माफिक नहीं आया था|
बच्चे आ गये थे| गाडी का समय भी हो गया था। मनजीत दो रिक्शे ले आया| सारे पडोसी उन्हें विदाई देने आ पहुंचे थे|
“अच्छा जी, हमारा कहा – सुना माफ करना| सभी को सत् श्री – अकाल|” कह कर मनजीत पप्पू के साथ जा बैठा| दूसरे रिक्शे में गुरजीत के साथ बैठी रानी सभी से हाथ जोड़ कर विदाई ले रही थी|
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नरेंद्र कौर छाबड़ा
ए -२०१, सिग्नेचर अपार्टमेंट, बंसीलाल नगर, औरंगाबाद
४३१००५( महाराष्ट्र)
Mo. 9325261079
वह वक्त शायद कभी नहीं भूला जा सकता है, अपनी कॉलोनी में दो परिवारों की सुरक्षा देने के लिए रात रखत भर पहरा दिया जाता था।
उन समय के पीड़ितों के दर्द को गहराई से उकेरा है।
हार्दिक आभार आपका रेखा जी
बहुत दर्दनाक समय था वह!उस पीड़ा को याद करके आज भी दिल विचलित हो जाता है।
आवेश में इंसान अपनों का भी खून करने में नहीं हिचकते। हिंसा और आगजनी में हमेशा सामान्य लोगों का ही नुकसान होता है। आग लगाकर तमाशा देखने वाले कोई और ही होते हैं।
उस वक्त की पीड़ा को आपने कहानी में बहुत सटीक बुना है।
एक पंक्ति याद आ गई-
आ अब लौट चले।
अच्छी कहानी के लिए आपको बधाई नरेंद्र कौर जी।
हार्दिक आभार आपका नीलिमा जी
आदरणीया सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आपकी रचनाएं पाठक को सोचने पर विवश करती हैं।
कहानी ” वापसी ” भी बहुत ही मार्मिक कहानी है जो उस समय घटित घटनाओं को चलचित्र की भॉति उपस्थित कर रही हैं। उन घटनाओं के भुक्तभोगियों की मानसिक स्थिति का अनुमान, कहानी पढकर सहज ही लगाया जा सकता है।
सादर
डॉ दिनेश पाठक शशि मथुरा (भारत)
मोबाइल +91-9870631805
दिल से शुक्रिया आपका दिनेश जी