Saturday, July 27, 2024
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सूनी डाल – कहानी – सुधा त्रिवेदी

सूनी डाल

  • सुधा त्रिवेदी

“ टन्न ! टन्न !!  नैरम मधियानम् , इरेण्ड मनी …..”(   )

चर्च का घंटा बजा और मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी और उठते ही सबसे पहले फोन ढूंढा- कहीं तुम्हारा फोन तो नहीं मिस हो गया? तुम्हारे फोन की प्रतीक्षा करते करते ही कब आंखें लग गई थीं मुझे पता ही नहीं चला था।  फोन देखा – नहीं कोई मिस्ड कॉल नहीं था । संतोष से ज्यादा कसक हुई । अमेरिका में अभी रात के लगभग डेढ. बजे होंगे।  अब तक तुम्हारा फोन क्यों नहीं आया शेखर ?

सो गए क्या ? बिना मुझे फोन किए तुम सोते तो नही तो क्या अब तक फुर्सत नहीं मिली ? छह महीनों का कोई प्रोजेक्ट तुम्हें तीन महीनों में पूरा करके देना है इसीलिए रात दिन काम में लगे रहते हो । मैंने पूछा था कि क्यों ‘ऐक्सेप्ट’ किया ऐसा काम ? तो तुमने बताया था कि अमेरिका में रहना है तो भारतीय होने का यह ‘टैक्सेशन’ नए लोगों को चुकाना पड.ता है। पहले तो तुम कहीं पार्ट टाइम भी करते थे – खेतों में किसी का हाथ बंटाने का काम था तुम्हारा ? कैसे शेखर ,कैसे कर पाए होगे तुम यह ? क्या अमेरिका के खेत सोने के होते हैं ? यहां तो कुछ भी हो जाए तुम खेतों की ओर नहीं जाते थे। मुझे याद है एक बार पुरबारी चौड. और मोगल चक – दोनों जगह के खेत के बटाईदारों ने एक ही दिन कटाई रख दी थी । तुम्हारे पिता दोनों जगह जा नहीं सकते थे । उन्होंने एक खेत पर तुम्हें जाने को कहा था पर तुमने साफ मना कर दिया था-

“ मैं नहीं जाऊंगा खेत-वेत में !”

पिता ने गुस्से में कहा था- “ खेत-वेत में ? खेत अन्नपूर्णा हैं , उनका आदर करना सीखो शेखर! खेतों पर नहीं जाओगे तो खाओगे क्या ?”

और तुमने खिल्ली उड.ानेवाले स्वर में उत्तर दिया था- “ मैं तो विदेश जाऊंगा और खूब कमाऊंगा । अपने देश में रखा ही क्या है?”

तुम्हारे पिता के पास बहस करने का वक्त नहीं था तब , केवल इतना कहा था – “भगवान करें तुम खूब कमाओ ।”

तुम खेत पर नहीं गए तो नहीं गए । तुम्हारी मां गई थीं कटनी कराने , लौटते समय धूप में उनका चेहरा लाल हो गया था , तब तुमने लाड़ लड़ाते हुए कहा था –

“ मां !मैं जब विदेश जाकर खूब कमाऊंगा तब तुम ये सब खेत बेच-बाचकर वहीं आ जाना , वहां तुम्हें कोई काम नहीं करना पड.ेगा !”

लेकिन तुमने ही बताया था शेखर कि तुम्हें  अमेरिका में सब काम अपने ही हाथों करने पड.ते हैं- घर की सफाई करना , खाना बनाना , बर्तन धोना , कपड़े धोना- बस। एक पहर रात गए , जिस समय अपने गांव के लोग एक नींद सोकर उठ जाते हैं उस समय तो तुम्हारा ऑफिस ख़त्म होता है और उसके बाद घर आकर खाना बनाना वाशिंग मशीन , डिश वाशर से उलझना ! यहां तो तुम अपनी थाली तक नहीं उठाते थे। मैंने कहा था कि जाने से पहले शादी कर लो , मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी । कम-से-कम घर के काम तो मैं कर देती ।पर तुमने कहा था पहले खूब पैसे कमाऊंगा , तब वहीं एक बड़ा बंगला बनवाउंगा , ग्रीन कार्ड लूंगा तब आकर शादी करूंगा । देखने वाले देखें तो उन्हें पता चले कि ऐसी होती है एन आर आई शादी ! हवाई शादी करूंगा – हवाई जहाज में बारात जाएगी!

पता नहीं कब होगी पूरी यह हवाई शादी ! अभी तो हालत यह है कि हवाई किले बनाते-बनाते मेरी कनपटियों के बाल सफेद होने लगे हैं। तुम चाहते थे कि मैं भी पढ. लिखकर नौकरी करने के लायक बनूं ताकि अमेरिका आने के बाद तुम्हारी धनसंग्रह की कभी न खत्म होनेवाली चाहत को पूरा कर सकने के प्रयास में सहभागिता निभा सकूं। मैंने पढ.ाई की शेखर और अब अच्छी खासी नौकरी भी कर ली है। पर तुम्हारी ख्वाहिशें पूरी हों तो मुझे बुलाओ। अब तो बस यही एक फोन का सहारा है। अक्सर ऐसा होता है कि झपकी आने को होती है और तुम्हारा फोन आता है । जैसे मेरे निष्प्राण शरीर में प्राणों का संचार हो जाता है। सच कहती हूं शेखर मैं उसी घंटे-डेढ़-घंटे के लिए जीती हूं जितनी देर तुमसे बातें करती हूं। बाकी समय यंत्रवत काम करती हूं। बचपन में कहानी सुनी थी कि राक्षस की कैद में पड.ी राजकुमारी राजकुमार के स्पर्श से जाग जाती थी और उसके जाते ही फिर नींद में डूब जाती थी । राजकुमार ने तो राक्षस को मारकर राजकुमारी को आजाद कराया था , तुम मुझे आजाद कराने कब आओगे ?

मैं भी वही राजकुमारी हूं  जो तुम्हारे फोन से जगती हूं । बाकी समय अर्धचेतन अवस्था में चलती फिरती रहती हूं, लोगों से बातें करती हूं , लेक्चर्स देती हूं , फंक्शन्स अटेण्ड करती हूं – जैसे “प्रोग्रैम्ड” हूं। यह सब करते हुए मेरे अवचेतन में लगातार यह बात गूंजती रहती है कि तुम यहां नहीं हो , तुम मुझसे बहुत दूर चले गए हो – तुम्हारा कॉल आया होगा। मेरे प्रवाहपूर्ण वक्तृत्व से प्रभावित मंत्राविष्ट  सुन रहे श्रोताओं को एक झटके में , काल के उस क्षिप्त अंश में ही शायद मेरे मन के सूने कोने का आभास हो जाता है।

तुम्हें पता है ?मैं सभाओं -खासकर बुद्धिजीवियों की सभाओं को संबोधित करने जाने से पहले श्रृंगार के साथ एक मुस्कान भी लगाती हूं । बढ़िया सिल्क की साड़ी पहनती हूं । तुम्हीं कहते थे, पारंपरिक रंगों की सिल्क की साड़ियां सजती हैं मुझपर । तुम्हारी हर घड़ी खलती कमी मेरे चेहरे पर अंकित हो गई है। उसे छुपा लेने की  कोशिश में आजकल लाउड मेकअप करती हूं ताकि चेहरा बुझा -बुझा न लगे । यंत्र बनकर भी मन यंत्र नहीं बन पाया है । तुम्हारी अनुपस्थ्तिि की कसक पानी बनकर कब आंखों से बह निकलता है पता नहीं चलता। देखनेवालों को कहीं मेरी सूज आई पलकों से पता न चल जाए इसी लिए पलकों पर आई लाइनर डालती हूं और सबसे अंत में ड्रेसिंग टेबल पर से उठाकर मोहक मुस्कान चिपका लेती हूं। यह प्रसाधन रोज अकेलेपन में उतर जाता है।

तुम लौट आओ! क्या केवल पैसों में ही सुख है? और काम भर को पैसे तो अपने देश में भी कमाए जा सकते हैं। जो मान और प्रतिष्ठा यहां मिलती है क्या हम वहां पा सकते हैं? तुम्हीं बताते हो कि हमलोगों को वहां दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है! फिर क्यों शेखर ? एन आर आई कहलाने का ये कैसा मोह है तुम्हें ? ग्रीन कार्ड मिल जाएगा तो कौन सा स्वर्ग का साम्राज्य मिल जाएगा? तुम्हारी मां तुम्हारी राह देखते देखते समय से पहले बूढ.ी हो गई हैं , पिता बीमार रहने लगे हैं। जब तुम अमेरिका गए थे तो शुरू-शुरू में तो वे बड़े खुश हुए थे । तुमने जब वहां से पैसे भेजने शुरू किए थे तो तुम्हारी मां पर तो जैसे साड़ियां और गहने खरीदने की सनक सवार हो गई थी। अलमारियां की अलमारियां भर ली थीं , पिता ने जमीनें और बंगले खरीदने में मन लगाया था। सामान खरीद- खरीदकर खुश होते थे । लोगों को बुला-बुलाकर दिखाते थे ।

पर अब उनका जुनून ठंढा हो गया है। घर सिरदर्द हो गए हैं , सफाई करते रहो। सामान बोझ लगते हैं , अगोरते रहो। तुम्हारे बिना उन्हें यह सारी संपदा झूठी लगती है। और मुझे तो विरक्ति होने लगी है इन चीजों से, जिनकी चाहत ने तुम्हें मुझसे दूर कर दिया है। लौट आओ शेखर अपने देश ! हम ब्याह रचाएंगे , मैं चन्दनबिन्दु लगाकर कदलीस्तम्भ लगे आम्रपल्लवों से बने, बंदनवार से घिरे मिट्टी के कलश सजे मंडप में दुल्हन बनकर बैठूंगी और तुम फूलों का सेहरा सजाए घोड़े पर बैठकर मुझे लेने आना । मैं तुम्हारे आंगन में बने लकड.ी के चूल्हे पर रसोई बनाउंगी तब चूल्हे की लौ में प्रदीप्त मेरे चेहरे को निहारते हुए वह मीठी आंच तुम्हें पिघला देगी शेखर । तब अपने आंगन की महुए की यह सूनी डाल कोमल पत्तों से लदकर झूम झूम जाएगी और  उससे लिपटी अपराजिता की यह बेल महक-महक जाएगी !

डॉ. सुधा त्रिवेदी

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