जो लोग ज़िंदगी से बहुत कुछ चाहते हैं उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है – इस अधूरेपन की बेचैनी को उपन्यास, कहानी, नाटक आदि विधाओं में संप्रेषणीयता प्रदान करने वाले मोहन राकेश हिंदी साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आधुनिक जीवन के असंतोष और अधूरेपन की संवेदना को कभी पीछे मुड़कर ‘आषाढ़ का एक दिन’ के कालिदास और मल्लिका के माध्यम से, कभी ‘लहरों के राजहंस’ की सुंदरी, गौतम बुद्ध और नंद के प्रवृत्तिवाद और निवृत्तिवाद के चिरंतन द्वंद्व से, कभी ‘अंधेरे बंद कमरे’ के हरबंस और नीलिमा के दमघोटू जीवन तो कभी  ‘आधे-अधूरे’ के महेंद्रनाथ और सावित्री के स्त्री-पुरुष के लगाव और तनाव के साथ विवाह संस्था और पारिवारिक जीवन के विघटन को अपने जीवन के अनुभवों की प्रामाणिकता और प्रांजल अभिव्यंजना शक्ति से समृद्ध करके मोहन राकेश साठ-सत्तर के दशक के वरिष्ठ लेखकों में प्रमुख रूप से प्रतिष्ठित हुए। 
मोहन राकेश का जन्म ८ जनवरी सन १९२५ को अमृतसर में हुआ था। पिता पेशे से वकील और रुचि से साहित्य तथा संगीत प्रेमी थे। पिता की साहित्यिक रुचि का प्रभाव मोहन राकेश पर भी पड़ा। लाहौर के ओरियंटल कॉलेज से ‘शास्त्री’ की परीक्षा पास की। पिता की असमय मृत्यु के उपरांत परिवार के दायित्व निर्वाह के साथ-साथ पंजाब विश्वविद्यालय से हिंदी और अंग्रेज़ी और संस्कृत में एम ए पास करने के उपरांत अध्यापन और लेखन शुरू किया। 
स्वतंत्र प्रकृति के मोहन राकेश अध्यापन कार्य के साथ अधिक समय तक नहीं जुड़ सके, वहाँ से मुक्त होकर एक वर्ष तक ‘सारिका’ पत्रिका का संपादन किया। पर संपादन के अनुशासन को अपनी रचनात्मकता में बाधक अनुभव कर स्वतंत्र लेखन को चुना। व्यक्ति और समाज के संवेदन शील सरोकारों को केंद्रित करके अलग-अलग पात्रों और परिस्थितियों के संदर्भ में उनका सार्थक संबंध अंवेषित करना उनकी समस्त रचनाओं की पहचान है। ‘नई कहानी के मूर्धन्य प्रवर्तक, मोहन राकेश की ‘मिस पाल’, ‘आद्रा’, ‘ग्लास टैंक’, ‘मलबे का मालिक’, आदि कहा- नियों ने हिंदी कहानी का परिदृश्य ही बदल दिया। उनकी कहानियाँ आधुनिक मनुष्य की नियति को प्रतिबिम्बित करती हैं। कथाशिल्प की परिपक्वता, भाषागत सधाव तथा अभिव्यंजना की संप्रेषणीयता उन्हें विशिष्ट बनाती हैं। 
सन १९५८ में प्रकाशित, आधुनिक युग के प्रथम नाटक माने जाने वाले, ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक ने हिंदी नाट्य साहित्य को एक नवीन आयाम दिया। सन १९५९ में संगीत नाटक अकादमी से इसे वर्ष के सर्वश्रेष्ठ नाटक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन १९७९ में मणि कौल ने इस पर आधारित फिल्म बनाई जिसे फिल्मफेयर ने वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया। महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केंद्रित ‘आषाढ़ का एक दिन’ का आरंभ ‘मेघदूतम्’ की प्रारंभिक पंक्तियों से किया गया है। आषाढ़ का महीना उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का शुरुआती महीना होता है। नाटक में मेघ के बदलते रंग रंगमंच पर एक पूरी कविता रच डालते हैं। वे सच्चे अर्थों में रंगमंच के कवि दिखाई देते हैं। वह काव्य भाषा से नहीं वरन स्थितियों से निर्मित है, जो शब्दों पर आश्रित तो है, पर उसके साथ-साथ पात्र की स्थितियों, मनस्थितियों, मंचीय उपकरणों और बिंबों पर भी आश्रित है। कालिदास, मल्लिका और विलोम की नाट्य स्थिति एक ओर प्रेम की रसासिक्ति तो दूसरी ओर संघर्ष अथवा विवशता की पीड़ा में प्रेक्षक के लिए समसामयिक आस्वाद प्रदान करने वाली है। नाटक की भूमिका में राकेश का कथन, ‘‘हिंदी रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा और राशियों के विवेक को व्यक्त करना होगा। हमारे दैनंदिन जीवन के रागरंग को प्रस्तुत करने के लिए हमारे संवेदों और स्पंदनों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं भिन्न होगा।’’ नाट्यकार के दायित्व का वहन करके एक नई रंगदृष्टि की तलाश का द्योतक है। राकेश ने इस नाटक में साहित्यिक तत्व अक्षुण्ण रखते हुए रंगीय क्रिया व्यापार द्वारा नये प्राण स्पंदित किए। संस्कृत आचार्यों ने नाटक की गणना एक दृश्य काव्य में की है। उसकी प्रभावांविति का निकष मंच पर जीवंतता प्रदान करने में होनी चाहिए। हिंदी रंगमंच की अपनी परिकल्पना को साकार करने के लिए राकेश ने एक के बाद एक उत्कृष्ट नाटक लिखे जिनका भारत के श्रेष्ठ नाट्य निर्देशकों ने मंचीकरण किया। 
नाटक और रंगमंच की पारस्परिकता को स्थापित करने के लिए राकेश ने अपने नाटकों के मंचीकरण के समय नाट्यनिर्देशकों के साथ सक्रिय रूप से काम किया। ‘लहरों के राजहंस’ के कोलकाता में हुए सर्वप्रथम मंचीकरण के समय कोलकाता की प्रसिद्ध नाट्यसंस्था अनामिका से जुड़ी होने के कारण मुझे उनकी रचना प्रक्रिया से परिचित होने का अवसर मिला। राकेश एक ऐसे नाटककार थे जो निर्देशक के साथ काम करते समय अपने लेखकीय स्वायत्त (अहम्) को दरकिनार रखने की उदात्तता रखते थे। अनामिका के प्रसिद्ध नाट्यनिर्देशक, स्वर्गीय श्यामानंद जालान ‘लहरों के राजहंस’ के अंतिम दृश्य से बहुत संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने जब राकेश को इस बारे में लिखा तो राकेश ने न केवल उनकी बात को ध्यान से सुना बल्कि पूर्वाभ्यास के दौरान स्वयं कोलकाता आए। पूर्वाभ्यास के समय वे हिंदी हाई स्कूल के सभागार में पीछे की सीट पर बैठ कर पात्रों के अभिनय और कथोपकथन के प्रभाव का आकलन करते थे। नाटक के अभिनेता विमल लाठ ने अपने संस्मरण में लिखा, राकेश आए और रिहर्सलों में उपस्थित हुए। उन्होंने हम सब को अलग-अलग बुलाकर हमारे चरित्रों के विषय में संवाद किए। वे टाइपराइटर पर संवाद लिखते थे। एक संवाद टाइप किया और पसंद नहीं आया तो कागज़ निकाल कर मोड़-तोड़ कर ज़मीन में फेंक दिया।’’ प्रश्न था नाटक के त्रिभुज – भोग-वासना की प्रतीक सुंदरी, त्यागमय जीवन दर्शन के प्रतीक बुद्ध और इन दो परस्पर विरोधी जीवन दर्शन के बीच दुविधाग्रस्त गौतम बुद्ध के सौतेले भाई नंद के परस्पर संबंध का। नाटक का केंद्रीय भाव इस बिंदु पर टिका है कि बुद्ध और सुंदरी के परस्पर विरोधी जीवन दर्शन का संघात नंद को किस तरह प्रभावित करेगा। आसक्ति और वैराग्य की पड़ताल सुंदरी और बुद्ध के चरित्रों के माध्यम से की गई है। निर्देशक और लेखक इस विषय पर घंटों विचार-विमर्श करते और रात भर के विचार विनिमय के बाद राकेश सुबह सात बजे उठकर कमरा बंद करके नाटक का अंत लिखने बैठते। इस बीच नाटक का पूर्वाभ्यास चलता रहा और अंत निश्चित न कर पाने के कारण मंचीकरण की तारीख़ आने पर उसकी प्रथम प्रस्तुति उसके अपरिवर्तित रूप में ही हुई। सन २००८ में श्यामानंद ने उसके संशोधित संस्करण को फिर से प्रस्तुत किया। डॉ प्रतिभा अग्रवाल के शब्दों में, ‘‘लहरों के राजहंस की पहली प्रस्तुति के सिलसिले में मोहन राकेश के साथ हुए दीर्घ विचार-विमर्श नाटकीय आलेख में संशोधन लेखक और निर्देशक के सहयोग से प्रस्तुति की अच्छी मिसाल प्रस्तुत करता है।’’ 
सुंदरी का विश्वास है कि ‘‘नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है।’’ अपने सौंदर्य और यौवन के आकर्षण के प्रति आश्वस्त सुंदरी जो गौतम बुद्ध की साधना को यशोधरा की आकर्षण शक्ति की विफलता मानती है, नंद को बुद्ध के प्रभाव से विमुख करने का विश्वास भंग होने का आभास होने पर अपने अहं की तुष्टि के लिए स्वयं उसे मुक्त करती है। जब नंद अपने मुंडित सिर से उसके पास लौटता है तो उसके नारीत्व को ठेस पहुँचती है पर वह नंद को इस रूप में देखकर उसका सामना करती है। प्रश्न था कि नाटक का अंत कैसे हो जो सहज हो और विश्वसनीय भी। उस समय राकेश दार्जिलिंग में थे, उनके बुलाने पर श्यामानंद वहाँ गए, राकेश अत्यंत अशांत और अस्थिर थे – कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अंत में सुंदरी को मरना होगा। सुंदरी का यह अंत उन्हें बुरी तरह से झकझोर रहा था। अपने पात्र के साथ लेखक के भावनात्मक तादात्म्य का यह अद्भुत उदाहरण था। 
जीवन के एक गहन अनुभव खंड को मूर्त करने वाले नाटक ‘आधे-अधूरे’ में राकेश की प्रयोगधर्मिता का एक और आयाम दर्शनीय है। एक ही अभिनेता द्वारा पाँच पृथक भूमिकाएँ निभाए जाने की दिलचस्प रंगयुक्ति के प्रयोग को तत्कालीन आलोचकों ने मिश्रित प्रतिक्रिया दी। नाटककार के इस प्रयोग को केवल चमत्कृत करने वाली और एक आरोपित और अनावश्यक रंग युक्ति मात्र मानने वाले निर्देशकों ने अपनी प्रस्तुतियों में जब पाँच अलग-अलग अभिनेताओं का प्रयोग किया तो उनमें से एक प्रदर्शन भी पूरी तरह से कामयाब नहीं हो सका। आधुनिक युग विराट घटनाओं और महान नायकों का नहीं है। यह मानसिक संघर्ष और आम आदमी की लघुता और तुच्छता का युग है। ‘आधे-अधूरे’ में राकेश ने बाह्य घटनाओं के बजाय पात्रों की मन:स्थितियों और संवेदनाओं की टकराहट को आंतरिक विस्फोट की तीव्रता एवं सघनता से प्रस्तुत किया है। महेंद्रनाथ, सावित्री, बिन्नी, किन्नी, अशोक, सिंहानिया जगमोहन सभी मध्यवर्ग के सामान्य व्यक्ति हैं – महत्वाकांक्षी, अतृप्त, असंतुष्ट, कुंठित, आतंकित, क्रुद्ध और अंतर्द्वंद्वग्रस्त्। वे रिश्तों में एक दूसरे से कटे-बँधे और सतत तनावग्रस्त हैं। राकेश ने उन्हें व्यक्ति विशेष के बजाय जातिगत रूपों में उकेरा है। वस्तुत: नाटक के पाँच पुरुष एक ही व्यक्ति के विविध रूप या पहलू हैं। सावित्री कहती है, ‘‘सब के सब एक-से! बिलकुल एक से हैं आप लोग। अलग-अलग मुखौटे, पर चेहरा? चेहरा सब एक ही!’’ नाटक जीवन के अधूरेपन को पारिवारिक संबंधों के विघटन, दम घोटने वाली मनहूसियत और छटपटाहट के द्वारा जीवंत करता है। महेंद्रनाथ में ज़िंदगी से अपनी लड़ाई हार चुकने की छटपटाहट है। बड़ी बेटी बिन्नी में संघर्ष का अवसाद और उसके व्यक्तित्व में बिखराव है। छोटी लड़की किन्नी के भाव, स्वर और चाल सब में विद्रोह है। अशोक के चेहरे से झलकती है ख़ास तरह की कड़वाहट। भाई बहन में संवाद केवल अपना आक्रोश और असंतोष व्यक्त करने के लिए होता है। सावित्री के चरित्र में मध्यवर्गीय स्त्री के जीवन की विडम्बना देखने को मिलती है। नाटक में उसकी चार भूमिकाएँ हैं वह एक स्त्री, पत्नी, माँ, और प्रेमिका है। वह इन चारों भूमिकाओं में सामंजस्य नहीं बैठा पाती है। आर्थिक समस्याओं से जूझती हुई सावित्री न तो एक सफल पत्नी न प्रेमिका बन पाई, सफल माँ तो वह है ही नहीं। महेंद्रनाथ को एक पूरे पुरुष का चौथाई तक न मानकर एक पूर्ण पुरुष की तलाश में भटकती सावित्री स्वयं एक अधूरी स्त्री है। पात्रों के माध्यम से राकेश ने मानवीय संतोष के अधूरेपन को रेखांकित किया है- जो लोग जीवन से बहुत कुछ अपेक्षा रखते हैं, उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है। ‘आधे-अधूरे’ के अंत में थका हारा पराजित महेंद्रनाथ, ‘आषाढ़ का एक दिन में’ वर्षा में मल्लिका के घर से निकलता कालिदास और बाँह छुड़ाती पत्नी की उपेक्षा से ‘लहरों के राजहंस’ का नंद रगमंच पर एक करुण रागिनी छोड़ जाते हैं जिसका प्रभाव देर तक मन को उद्वेलित करता है। 
राकेश के उपन्यास  भी इसी विषण्ण मन:स्थिति को उजागर करते हैं पात्र और परिस्थितियाँ बदल जाते हैं पर उनके भीतर की कुंठा और टूटन यथावत बने ही रहते हैं। ‘अंधेरे बंद कमरे’ में मानवीय रिश्तों के केंद्र में स्त्री-पुरुष संबंध को यथार्थ के संदर्भ में रखकर टटोला गया है। उपन्यास की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता के बाद की दिल्ली के एक पत्रकार, मधुसूदन की दृष्टि से देखा जीवन है। दिल्ली के सांस्कृतिक, राजनीतिक और पारिवारिक जीवन के खोखलेपन के चित्रण और मधुसूदन के रूप में निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की मानसिकता को उकेरते हुए राकेश ने स्त्री-पुरुष के निर्बंध संबंधों की विसंगति चित्रित की है। राकेश के शब्दों में, ‘यथार्थ एक गतिरोध है – मध्यवर्ग के संबंधों में आया गतिरोध। हरबंस और नीलिमा इस गतिरोध में रहकर छटपटाते हैं पर इससे उबर नहीं पाते …सारी कोशिशों के बाद जहाँ के तहाँ बने रहना उनकी अनिवार्य स्थिति है।’ हरबंस और नीलिमा के कुसमंजन का एक प्रमुख कारण आधुनिक व्यक्ति की चेतना में अंतर्विरोध है। मध्यवर्गीय व्यक्ति हरबंस नीलिमा को स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास के अवसर देकर अपने आधुनिकता के दंभ को पोषित करता है, पर जब नीलिमा कला के क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने का संकल्प करती है तब हरबंस को अपने अधिकार छीनेजाने की अनुभूति हीन-भावना से ग्रस्त कर लेती है। वह नीलिमा के सहयोगी पति के स्थान पर उसका विरोधी बन जाता है। नीलिमा का प्रत्यक्ष विरोध न करके वह उसके दोषों को रेखांकित करता है। वह स्त्री को स्वतंत्रता का आश्वासन भर देना चाहता है, वास्तविक स्वतंत्रता नहीं। हरबंस आधुनिक व्यक्ति की आंतरिक उलझनों की पोटली है। वह नौकरी करता है, पर उससे संतुष्ट नहीं। कभी थीसिस लिखने का निश्चय करता है तो कभी उपन्यास लिखने का। कभी पत्नी के रूप में एक बौद्धिक संगी की आकांक्षा करता है तो कभी घर-गृहस्थी संभालने में दक्ष शुक्ला की स्पृहा! नीलिमा हरबंस की अपेक्षा कम भावुक अधिक उन्मुक्त और निभ्रांत है। उसकी आकांक्षा की दिशा शुक्ला से भिन्न है, इसलिए वह शुक्ला जैसी बनने का यत्न भी नहीं करती है। हरबंस और नीलिमा में कोई समान भूमि नहीं है। नीलिमा हरबंस की प्रत्यक्ष उदारता न देख कर उसकी तह में छिपी संकीर्णता ही देखती है। हरबंस को नीलिमा का अपनी योग्यता के प्रति आत्मविश्वास अतिरंजित लगता है। उनके आरोप-प्रत्यारोप संकुल जीवन में शुक्ला की उपस्थिति उनके साझे जीवन की दरारों को निरंतर गहरी करती हैं। जीवन की ऊब, घुटन और एकरसता से ऊब कर हरबंस लंदन चला जाता है। लेकिन ऊब, घुटन और अकेलापन किसी स्थान की विशेषता नहीं, व्यक्ति की मन:स्थिति है। श्रीकांत वर्मा के शब्दों में, ‘जहाँ तक उसकी घुटन ऊब और एकरसता का संबंध है, यह पहला उपन्यास है जिसने इतनी तीव्रता के साथ इसे प्रतिष्ठित किया है।‘ हरबंस कहता है, ‘तुम्हारे साथ और तुम्हारे बिना, दोनों ही तरह ज़िंदगी मुझे असंभव प्रतीत होती है।’ हरबंस और नीलिमा आधुनिक व्यक्ति की असमर्थता को द्योतित करते हैं – वह प्रेम करने की अपनी असमर्थता को स्वीकार करने में असमर्थ है। बार-बार हरबंस से दूर जाने के बाद नीलिमा अंत में वापस आती है, संभवत: फिर से  दूर जाने के लिए! राकेश के अनुसार, अंधेरे बंद कमरे में घुटते रहना मध्यवर्गीय बौद्धिक व्यक्ति की नियति है। उपन्यास के प्रारंभ में लेखक ने तीन प्रश्न किए हैं, ‘क्या यह उपन्यास दिल्ली के जीवन का रेखाचित्र है? क्या यह पत्रकार मधुसूदन की आत्मकथा है? क्या यह पति-पत्नी के आंतरिक द्वंद्व की कहानी है?’ ये तीनों संवेदनाएँ उपन्यास में इस तरह से घुली-मिली हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। वस्तुत: यह उपन्यास विसंगतिपूर्ण महानगरीय परिवेश में मध्यवर्गीय व्यक्ति के जीवन- संघर्ष का सटीक दस्तावेज है।    
‘न आने वाला कल’ भारतीय क्रिश्चियन स्कूल की पृष्ठभूमि में आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास है। उपन्यास के सभी पात्र अपने जीवन की लक्ष्यहीनता से संत्रस्त हैं। वे अपने आने वाले कल को पहचानना चाहते हैं, लेकिन उस ‘कल’ की कोई रूपरेखा उनके समक्ष नहीं है। नुरूला और शोभा नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, किंतु अपने अतीत और वर्तमान में रहते हुए अपने अहम् को चोट पहुँचाते हुए जूझते रहते हैं। अपने तीसरे उपन्यास, ‘अंतराल’ में राकेश ने वैवाहिक संबंधों के बनने-बिगड़ने के पीछे सामाजिक और आर्थिक कारणों को ढूढना चाहा है। कुमार को स्त्री और पुरुष का एक घुटन भरे वातावरण में दमित होते रहना अपनी स्वाभाविक प्रकृति के साथ विश्वासघात करना लगता है। दूसरी ओर श्यामा द्वंद्वों और छलनाओं के बीच ऊभ-चूभ होती हुई स्त्री है जो कुमार के प्रति समर्पित होने पर अपने भीतर ही भीतर कुछ कट-कटा अनुभव करती है। ‘कई एक अकेले’, ‘काँपता हुआ दरिया’, ‘स्याह और सफेद’, ‘गुंझल’ और ‘नीली रोशनी की बाँहें’ में राकेश ने भिन्न-भिन्न कोणों से मानवीय संबंधों की उलझन भरी गाँठों को सुलझाने के सफल प्रयास करके अपनी सशक्त भाषा में एक से एक उत्कृष्ट कृतियाँ रची हैं। मोहन राकेश की भाषा में वह सामर्थ्य है जो समकालीन जीवन के तनाव को पकड़ सके। शब्दों का चयन, उनका क्रम, संयोजन – सब कुछ बहुत ही सम्पूर्णता से लेखक के अभिप्रेत को व्यक्त करता है। लेखक का मानना है कि जीवन में सम्पूर्णता की आशा करना व्यर्थ है और जो ऐसा करते हैं उनके हाथ निराशा ही लगती है।
डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान, स्वर्ण पदक, स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास पर शोध कार्य करके पी एच डी और फ़्रेंच भाषा में डिग्री प्राप्त की। 1971 से यूके में रह कर अध्यापन कार्य, शिक्षण कार्य के लिए महारानी एलिज़ाबेथ द्वारा एम बी ई, लंदन बरॉ औफ ब्रैंट, इन्डियन हाई कमीशन तथा प्रवासी संसार द्वारा सम्मानित की गई। ब्रूनेल विश्वविद्यालय के अंतर्गत पी जी सी ई का प्रशिक्षण और सम्प्रति केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अंतर्राष्ट्रीय शाखा में हिन्दी की मुख्य परीक्षक के रूप में कार्यरत। संपर्क : arunaajitsaria@yahoo.co.uk

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