सन् उनचास में हिन्दी संघ की राजभाषा बनी और उसके बाद से हम हिन्दी दिवस मना रहे हैं। इसी प्रकार अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस, मातृभाषा दिवस आदि मनाते हमें दशकों हो चुके। विडम्बना ही है कि तमाम उत्सवों के बावजूद हिन्दी ही नहीं, देश की अन्य भाषाएं भी लगातार हाशिए पर धिकलती जा रही हैं और उनके प्रयोग-क्षेत्र पर अंग्रेजी का कब्जा हो रहा है।
हमारी दुकानों के नाम-पट्ट रोमन और अंग्रेजी में, हमारे कारखानों में बन रहे सभी सामानों के नाम व अन्य विवरण अंग्रेजी में और हमारी शासकीय योजनाओं के नाम अंग्रेजी में। यह सूची बहुत लम्बी है। सच कहें तो पूरी सूची अंग्रेजी की ही है। उसमें हिन्दी अथवा भारतीय भाषाओं का कोई दखल नहीं।
फिर भी उत्सव मनाने का सिलसिला जारी है। कोई यह विचार भी नहीं कर रहा कि इन उत्सवों से हासिल क्या होता है। यदि कुछ हासिल नहीं होता तो ये उत्सव हम मनाते ही क्यों हैं? यह बात केवल हिन्दी के सम्बन्ध में नहीं, बल्कि उन सभी बातों के सम्बन्ध में लागू होती है, जिनका हम उत्सव मनाते हैं।
भ्रष्टाचार निवारण के लिए सतर्कता जागरूकता सप्ताह हो या पर्यावरण-संरक्षा के लिए पृथ्वी दिवस, गंगा आरती हो या कोई अन्य आयोजन। इनसे न भ्रष्टाचार में कोई कमी आती है, न पर्यावरण बचाने के लिए कोई ठोस पहल होती है और न गंगाजी में कचरे का बहाया जाना रुकता है। तो इन उत्सवों की ज़रूरत क्या है?
कानून बनाने से भी तब तक कुछ नहीं होता, जब तक उनका तत्परतापूर्वक क्रियान्वयन नहीं होता। सार्वजनिक रूप से धूम्रपान पर जुर्माने का प्रावधान है, किन्तु हमने तो नहीं सुना कि कानून तोड़नेवाले किसी व्यक्ति से यह जुर्माना वसूला गया हो। विधि या निषेध, जब तक उसे क्रियान्वित नहीं करेंगे, कोई कुप्रवृत्ति रुकनेवाली नहीं है।
भाषायी उत्सवों में होता क्या है? ऐसे लगता है जैसे किसी बड़ी कक्षा में छात्रों को पढ़ाया जा रहा हो। यही करना है तो हमारे विश्वविद्यालयों की कक्षाएं क्या बुरी हैं? वही नये-पुराने प्रोफेसर और वही नये-पुराने छात्र। कुछ चुनिंदा सेवक, जिनमें से अधिकतर की वास्तविकता और सेवा की मंशा भी संदिग्ध है। केवल काल बदला है, बोलने और सुननेवालों की श्रेणियाँ वही रहती हैं। ये लोग चाहे कक्षा में रहे हों या विशाल सभागारों में, कहीं भी अपनी भूमिका का विस्तार नहीं करते। केवल भाषणबाजी और जुमलाखोरी।
अगर हिन्दी या किसी भी अन्य भाषा या सत्प्रवृत्ति का विस्तार, प्रचार-प्रसार होना होता तो महाविद्यालयीन व विश्वविद्यालयीन शिक्षण की इस पद्धति के ज़रिए बहुत पहले ही हो चुका होता। समाज में सदाचार और सत्धर्म की शिक्षा देने वाले धर्मगुरु अपने-अपने डेरे जमाकर अपने-अपने शिष्यों को अपने हिसाब से खूब अच्छी बातें बताते हैं और अपना पुजापा ग्रहण करते हैं।
किन्तु कुछ समय बाद पता चलता है कि वे धर्मगुरु तो खुद ही बहुत बड़े अपराधी हैं। उनमें से कुछ का विगत कई बरसों से जेल में होना इसी का प्रमाण है। हमारे भाषा-गुरु और भाषायी मठाधीश भी सजे-धजे मंडपों में भाषा-विषयक उपदेश देते हैं। किन्तु उनके उपदेशों से भाषा के उपयोग में रंचमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।
तो करें क्या? करना यह है कि भाषा के उपयोग के लिए जनता के बीच जाकर प्रयास किया जाए। सभागार नहीं, भाषा का व्यवहार-क्षेत्र लोक है। लोक ही भाषा को बनाता और चलाता है। इसीलिए भाषा को बहता नीर कहा गया। भाषा न प्रयोगशाला में बनती है, न संसद अथवा सभाओं के चलाए चलती है। उसे प्रचलन में लाना है तो हमें लोक को विश्वास में लेना होगा। लोक में भाषा के लिए प्रेम पैदा करना होगा।
जिन उत्सवों में जनता की भागीदारी नहीं होती, उनकी निरर्थकता स्वतः सिद्ध है। मंथरा का यह वक्तव्य सार्वकालिक और सार्वभौमिक सत्य है कि राजा कोई भी हो, मुझे क्या! शासक वर्ग कुछ विद्वानों को बुलाकर भाषा पर चर्चा कर ले, तो करता रहे, उससे आम जनता को क्या! सीमित प्रवेश वाले किसी सभागार में भाषा के प्रचार-प्रसार और जनोपयोग की बात करना निरर्थक है।
ऐसे आयोजनों में फूल-मालाओं और पुष्प-गुच्छों का आदान-प्रदान, सम्मान और स्वस्ति-वाचन, सुस्वादु भोज्य पदार्थों का आस्वादन और लच्छेदार भाषणों का वाग्जाल तो फैलाया जा सकता है, किन्तु भाषा के वास्तविक उपयोगकर्ता यानी जनता तक कोई प्रभावी संदेश नहीं पहुँचता। सच कहें तो ये आयोजन एक ग़लत संदेश भी पहुँचा सकते हैं कि कुछ लोग अपने-अपने स्वार्थ के लिए और पर्यटन, भ्रमण आदि के लिए भाषा को सीढ़ी बना रहे हैं।
हिन्दी की शब्दावली धीरे-धीरे क्षीण हो रही है। हिन्दी का वाक्य-विन्यास अंग्रेजी की प्रेत-छाया से ग्रस्त होता जा रहा है। जैसा बोलते हैं, वैसा ही हम लिखते हैं। ऐसी विशेषता अब हमारी देवनागरी में नहीं रही। क्यों? क्योंकि टाइपराइटर पर कुंजियों के अभाववश पंचम वर्ण की लगभग छुट्टी करके हमने हिन्दी और देवनागरी का एक ऐसा मानकीकरण किया है, जिसने हमारी भाषा की आभा छीन ली है। हिन्दी में बाहर से आए आगत शब्दों व ध्वनियों के लिए भी मानकीकृत नागरी में अवकाश नहीं है। किन्तु अब तो युनीकोड आ गया! अब तो टाइपराइटर भी संग्रहालय पहुँच चुके! अब तो आप जैसा बोलें वैसा लिपिबद्ध कर सकते हैं।
सच कहें तो अब हम कंप्यूटर व मोबाइल पर बोलकर अपनी सामग्री को लिपिबद्ध करने की स्थिति में हैं। तो अब क्या समस्या है? होने दीजिए देवनागरी के खोए गौरव की वापसी। किन्तु नहीं। इधर ध्यान देने की किसी को फुरसत ही नहीं है। हिन्दी की रूप-माधुरी का व्याख्याता वर्ग सम्मेलन और समारोह को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रहा है। यहाँ ठगिनी अंग्रेजी ने हमारी भाषाओं में सेंध लगा दी है।
भारत के कारखानों में बनने वाले हजारों प्रकार के सामान पर लगभग सारा विवरण अंग्रेजी में छपता है। ये सामान यहाँ की जनता इस्तेमाल करती है, न कि विलायत के अंग्रेजी भाषी लोग। सार्वजनिक स्थानों पर भी अंग्रेजी का बोलबाला है। होटलों, बड़े भवनों आदि में आग से बचकर भागने के लिए निर्दिष्ट गलियारों में अंग्रेजी में लिखा एग्जिट ही दिखता है, गोया अंग्रेजी न जानने वालों को अपनी जान बचाने का कोई अधिकार ही नहीं। सिरैमिक टाइल हो या रंग-रोगन का डिब्बा, सब पर अंग्रेजी।
हमने यह मान लिया है कि हमारे मिस्तरी, मजदूर और रंगाई-पुताई वाले कारीगर अंग्रेजी में पारंगत हैं। दवाइयों व अन्य खाद्य सामग्रियों पर सारी जानकारी अंग्रेजी में। हमारे चिकित्सक अपने पर्चे अंग्रेजी में लिखते हैं। विगत कुछ वर्षों में देश में बड़ी-बड़ी दुकानें खुली हैं, जिन्हें अंग्रेजी में मॉल कहते हैं। इनसे लेकर छोटी-छोटी दुकानों तक सभी में बिकनेवाले सामान और उस सामान की सूचक पट्टिकाएं अंग्रेजी में। खरीददारी के बाद ग्राहक को दी जानेवाली पर्चियाँ भी अंग्रेजी में। क्या यह कहना अनुचित होगा कि हम पर अंग्रेजी थोपी जा रही है?
अगर यही सब चलता रहा तो हिन्दी व इतर भारतीय भाषाओं का क्रमिक ह्रास और उनमें से दुर्बल भाषाओं का विलोपन निश्चित है। दुनिया के नक्शे से बहुत-सी भाषाएं धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं।  इतिहास गवाह रहे कि अपनी भाषाओं के विलोपन के जिम्मेदार हम ही होंगे, जो भाषा के वास्तविक सरोकारों पर न संवाद पसंद करते हैं, न उनका कोई समाधान खोजते हैं।

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