यह वर्ष महान शब्द शिल्पी, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मशती वर्ष है। उन्हीं की कहानी ‘मारे गये गुलफाम उर्फ तीसरी कसम’ पर एक महान फिल्म का निर्माण 1966 में हुआ था। रेणु का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष संबंध इस फिल्म की पूरी टीम से था, विशेषकर इसके निर्माता और गीतकार शैलेंद्र से, इस फिल्म की रचना प्रक्रिया, कलात्मकता, लोकप्रियता और सफलता-असफलता पर बात करने से पूर्व रेणु और उनके साहित्य पर संक्षिप्त विचार करना मानीखेज होगा।
रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया अब अररिया जनपद के औराही हिंगना गांव में हुआ था। शिक्षा-दीक्षा भारत और नेपाल में पूरी-अधूरी हुई। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, 1950 में ‘नेपाली क्रांतिकारी आंदोलन’ और 1974 में जय प्रकाश नारायण का ‘सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन’ में सक्रिय रुप से शामिल हुए । सामाजिक-राजनीति के मोर्चे पर एक कार्यकर्ता के रुप में निरंतर सक्रिय रहते हुये, साहित्य और संस्कृति के सृजन में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। रेणु कुछ विरले लेखकों में एक हुये हैं, जो गहन सक्रियताओं की मझधार में भी ‘मैला आचल, परती परिकथा, ठूमरी, अग्नीखोर, रसप्रिया, एकला चलो रे, आदि-आदि उपन्यासों, कहानी संग्रहों, और निबंधों की रचना किये। उनकी कहानियों और उपन्यासों में आंचलिक जीवन के प्रत्येक धुन, गंध, छंद, लय, ताल, सुर, सुंदरता और कुरूपता अपने यथार्थ की सत्यता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। उनकी भाषा-शैली में एक जादुई असर है, जो पाठकों को अपने अंकपाश में बांध लेता है। रेणु एक अद्भुत किस्सागो/गपोड़ी थे, जिनकी रचनाएँ पढ़ते हुए लगता है, मानो कोई कहानी सुना ही नहीं रहा, लाइव दिखा रहा है। उन्होंने ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का कथा साहित्य में बड़ा ही सर्जनात्मक प्रयोग किया है। प्रेमचंद की परम्परा में आंचलिकता को नया आयाम देने वाले इस कथाकार को बहुत सारी आलोचना से भी दो चार होना पड़ा, तो निराला और नागार्जुन जैसे अग्रजों का प्यार-दुलार भी प्राप्त हुआ। सबसे संवाद स्थापित करते हुये ‘संवदिया’ की तरह जीये। “फणीश्वरनाथ रेणु की संवदिया बनने की प्रक्रिया उनके लम्बे जद्दोजहद के बाद ही निखर पाती है। उनके आत्म-संघर्ष की यह परिणति वाद-विवाद-संवाद से होकर गूजरने के बाद ही संभव होती है।” क्योंकि जिस आंचलिकता की बात सामान्यतः हम समझते हैं, उसमें कुछ गंवई शब्द प्रयोग भर नहीं बल्कि जीवंत और साक्षात “अपना गांव है और उससे प्यार है। प्यार और बेपनाह लगाव है। गांव में गरीबी की भीषण आग कब से जल रही है। बाढ़ है, अकाल है, भीतर से उठता हाहाकार है। दुख और दर्द में चीत्कार करती, तड़पती और छटपटाती मानवता है।“ इसीलिए रेणु को स्वतंत्रता के बाद के ‘प्रेमचंद’ की परंपरा का क्रमिक प्रेमचंद की संज्ञा दी गयी है। रेणु की संवेदना का स्वर उनके साहित्य में बहुत ही विस्तार और ताजगी से भरा हुआ है। उनके ‘मैला आंचल’ उपन्यास को ‘पद्मश्री’ मिला, उस पर फिल्म भी बनी। वैसे उनकी रचनाओं पर फिल्म बनने का सिलसिला तो ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुल्फाम’ से ही शुरु हो गया था। ‘तीसरी कसम’ बाक्स आफिस पर भले कमाई नहीं कर पायी लेकिन हिंदी सिनेमा के इतिहास में ‘बम्बइया टाइप्ड’ की आम धारणा को चुनौती देने वाली महान फिल्म के रुप में मील का पत्थर साबित हुई।
तीसरी कसम फ़िल्म 1966 में बनी थी। इसका निर्देशन बासु भट्टाचार्य और निर्माण प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र ने किया था। मुख्य कलाकारों में राज कपूर और वहीदा रहमान थे। यह एक गैर-परंपरागत फिल्म है, पूराने पैटर्न को तोड़ती, छोड़ती और नया ट्रैक गढ़ती है। इसमें भारत की देहाती दुनिया और वहां के लोगों की सादगी दिखती है। यह पूरी फिल्म मध्य प्रदेश के बीना एवं ललितपुर के पास खिमलासा में फिल्मांकित की गई। इस फिल्म का फिल्मांकन सुब्रत मित्र ने किया था। पटकथा नबेंदु घोष ने जबकि मूल लेखन स्वयं रेणु ने किया था। फिल्म के गीत शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी ने लिखे थे, संगीत शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने दियाथा। यह फ़िल्म उस समय व्यावसायिक रूप से सफ़ल नहीं हो पायी थी, लेकिन इसे आज अदाकारों के श्रेष्ठतम अभिनय तथा प्रवीण निर्देशन की कसौटी पर महान फिल्म के रुप में जाना जाता है। इसका सांगोपांग विश्लेषण से पहले इसकी कहानी को संक्षेप में देखते चलें।
