नवंबर 2024 में भारत के संविधान को अंगीकृत किए हुए 75 वर्ष हो रहे हैं और इसी संविधान में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया है। यद्यपि हिंदी में प्रशासनिक सहयोग के लिए अंग्रेजी को भी बाद में 10 वर्षों तक के लिए राजभाषा के रूप में कार्य करने हेतु प्रयोग में लाने का निर्णय हुआ किंतु देश की आजादी के आठ दशक में भी आज हम यह विचार कर रहे हैं कि हिंदी राजभाषा घोषित तो हुई पर उसकी वास्तविक स्थिति क्या है? अगर राजभाषा प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सका, तो किसकी कमजोरी है? रोजगार माध्यमों में हिंदी नहीं आ रही है, तो उसके लिए कौन उत्तरदायी है? अगर शिक्षण माध्यम के रूप में हिंदी समर्थ भाषा आज भी नहीं बताई जा रही है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
भारत के बहुसंख्यक जनता की भाषा होने के बाद भी हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी प्राथमिक शिक्षा में भी अंग्रेजी का अगर दबदबा है, तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है? हिंदी दिन भर बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी कागजी कामकाज में अंग्रेजी के नाम पर शासन करने वाले लोग कौन हैं? देश में अंग्रेजी राज के विदा होने के बाद भी भारतीय भाषाओं के नाम पर आपस में लड़ाई कराने वाले लोग कौन हैं? देशभर के बच्चों को मजबूरी में अनुवाद की भाषा में शिक्षण माध्यम में लाना और जीवन भर अनुवादक के रूप में अपनी सोच, ज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए मजबूर करना इन सबके पीछे जाते हैं तो निश्चित पहली जिम्मेदारी सरकार की है, जिसके पास अधिकार है कि वह देश की राजभाषा को लागू करे।
2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी को भारत की आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं में से एक भाषा के तौर पर माना गया है, तो हिंदी की इस स्थिति के लिए दोषी कौन है? भारत के उत्थान में अगर एक बड़ी कमजोरी है तो वह उसकी अपनी भाषा का देश के शासन की अभिव्यक्ति ना होना।
ये कुछ बड़े प्रश्न हैं जिनसे हिंदी दिवस के आसपास हम ज्यादा जूझते हैं। सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो, उनके लिए हिंदी आम लोगों से बातचीत की भाषा रही, लेकिन शासन, सत्ता की भाषा अभी भी अंग्रेजी बनी हुई है। जब तक राजभाषा कार्यालय में, गृह मंत्रालय में, शिक्षण माध्यम में, रोजगार माध्यम में हिंदी को नहीं लाया जाता है तब तक हिंदी दिवस मनाना एक कार्यालयी और अकादमिक गतिविधि ही है।
यद्यपि प्रतिवर्ष हम हिंदी दिवस मनाते हैं और मूल्यांकन दिवस के रूप में विचार करते हैं कि अगले साल हिंदी की प्रगति कैसे हो, अपने बहुल जनसंख्या के बाद भी हिंदी अगर पीछे रही है तो निश्चित रूप में भारत के सभी संस्था प्रमुखों को, सरकारों को और केंद्र सरकार को मानना होगा कि विश्व में हमारे पिछड़ने के पीछे हमारी भाषा नीति भी एक बड़ा कारण है और आज भी हम अंग्रेजी के दासत्व को ढो रहे हैं। भारतीय भाषाओं को दरकिनार कर अंग्रेजी का दशक तो बढ़ते जाना देश की प्रगति में बाधक है। वास्तव में अमृत महोत्सव मनाना है तो हिंदी को शिक्षण माध्यम और रोजगार माध्यम में लाना होगा तभी देश प्रगति कर सकता है।
हिंदी के पिछड़ने का एक बड़ा कारण तो यही है प्राथमिक शिक्षा से ही विद्यार्थियों को हिंदी से काट दिया गया और बार-बार किसी न किसी बहाने हिंदी को और भारतीय भाषाओं को आपसी बंद में फंसा कर अंग्रेजी को बढ़ाया गया सत्ता पर काबिज लोगों ने इस पर कभी विचार नहीं किया कि जब हमारा नौनिहाल अपनी तोतली वाणी में भी विदेशी भाषा बुदबुदाने के लिए मजबूर किया जाएगा, उसकी सोच कब विकसित होगी।
भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों, साहित्य महोत्सवों, भाषा संबंधी अन्य आयोजनों को बढ़ाया जाए और पूरे भारत में जो भी सांस्कृतिक विविधता है उसको प्रकट करने का माध्यम हिंदी को बनाया जाए। हमारा एक कमजोर पक्ष यह भी है कि हमारे दूतावासों और सांस्कृतिक केंद्रों की भाषा हिंदी नहीं है। आमतौर पर हमारे दूतावास अंग्रेजी में काम करते हैं जरूरत होगी की हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में विदेशी भाषाओं से जोड़ा जाए और सांस्कृतिक दूतावासों और सांस्कृतिक केंद्रों को समृद्ध किया जाए वहां ऐसे लोगों को पहुंचाया जाए जो शिक्षण, लेखन हिंदी माध्यम में भी लेखन कर सकते हैं और सांस्कृतिक समझ रखते हैं।
वैश्विक स्तर पर हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न प्रकार की पुरस्कार योजनाएं, निशुल्क शिक्षक अध्ययन केंद्र भी बनाए जा सकते हैं। हिंदी में लिखी गईं महत्वपूर्ण रचनाओं को भारत के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए अनुवाद योजना को आगे बढ़ाना चाहिए इसमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति में घोषित अनुवाद विश्वविद्यालय को शीघ्र बनाया जाए और उसे बजट और मानव शक्ति दी जाए ताकि वह काम कर सके।
हिंदी में शोध के लिए बजट बढ़ाकर शोध के लिए आर्थिक संसाधनों की कमी से मुक्त करना होगा, अगर ऐसा नहीं होगा तो हिंदी में शोध की दिशाएं समृद्ध नहीं हो सकेंगी। भारत का प्रवासी समुदाय बहुत समृद्ध है परंतु प्रवासी भारतीयों के बीच में हिंदी के प्रचार और उपयोग को बढ़ावा देना होगा, क्योंकि अभी जो भी शैक्षिक अवसर हैं वह केवल विदेश में कुछ विश्वविद्यालय और संस्थानों तक सीमित हैं । आम प्रवासी भारतीयों के बीच या तो क्षेत्रीय भाषा है या वह उस देश की भाषा सीख और बोल रहे हैं जहां वह काम करते हैं और भारतीयों के बीच संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी के बजाय हिंदी को महत्व दिया जाए। भारत सरकार की विदेश में कार्यक्रमों में आयोजन की भाषा हिंदी बने। विदेशों में हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग करना होगा और उनको विभिन्न पुरस्कार और अनुदान योजनाओं से जोड़कर भारतीयों के साथ सांस्कृतिक और भाषाई आदान-प्रदान के लिए सुविधा और बजट मुहैया कराना होगा।
यह भी एक तथ्य है कि जो हमारा प्रवासी भारतीयों का वर्ग है, उनमें हिंदी के प्रति अभी भी उदासीनता है इसके लिए हमें कुछ जरूरी काम करने होंगे , एक तो हमें भाषाई मिश्रण की ओर जाना होगा अर्थात नए देश की मुख्य धाराओं की जो भाषाएं हैं जैसे- फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी, चीनी आदि, इन भाषाओं के कारण हिंदी को प्राथमिकता कम मिलती है तो उन भाषाओं के समानांतर हम प्रवासी भारतीयों के बीच अपनी भाषा को पहुंचाएं। प्रवासी भारतीयों के लिए यह आवश्यक भी है कि वह जिस देश में रहते हैं वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान के भी हिस्से बनें ,पर भारत की राजभाषा और संपर्क भाषा के रूप में होने के कारण हिंदी को युवा पीढ़ी तक अवश्य पहुंचाया जाए। इस बीच खास तौर से पिछले 30 – 40 वर्षों में विदेश में गए लोगों के बीच हिंदी का प्रचार प्रसार का एक पुल बनना चाहिए। प्रवासियों के रोजगार एक बड़ी जरूरत है इसलिए हिंदी के बजाय वे विदेशी भाषाओं या अंग्रेजी में ध्यान केंद्रित करते हैं और हिंदी का प्रयोग उनके यहां सीमित हो जाता है इसलिए जरूरी है कि शिक्षा और रोजगार की दिशा में भी हिंदी को जोड़ा जाए।
भारतीयों में अपनी भाषाओं के प्रति प्रेम है किंतु पीढ़ीगत अंतर के कारण नए प्रवासी या उनकी संतानें हिंदी को कम प्राथमिकता देती हैं, अतः पीढ़ीगत अंतर को कम करते हुए और नए युवाओं के बीच हिंदी के प्रति जो उदासीनता है उसे कम करने के प्रयास होने चाहिए।
यह भी एक बड़ी बात है कि जिस देश में प्रवासी रहते हैं वहां की भाषाई विशेषताओं के अनुसार उन्हें काम करना होता है लेकिन भाषाई संघर्ष में पढ़ने के बजाय वह अपनी भाषा को अपने निजी जीवन, परिवार और अपने समुदाय में भी अगर जीवित रखें तो उसे हिंदी का विकास होगा और उनके बीच हिंदी उपस्थिति रहेगी। प्रवासी भारतीयों में यह भी एक प्रवृत्ति देखी गई कि वह अपनी स्थिति और मान्यता बनाए रखने के लिए स्थानीय भाषाओं या अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हैं, जबकि हिंदी को अपने समुदाय विशिष्ट के संदर्भ में अवश्य ध्यान देना चाहिए।
हिंदी की मुख्य चुनौतियां तो यही है कि जितने भी प्रयास किए जाते हैं वह एक समय विशेष के बाद निरंतरता में नहीं रहते। ब्रिटेन जैसे देश में प्रवासियों की संख्या है और हिंदी बोलने वालों की संख्या अच्छी संख्या में है इसके बाद भी हिंदी स्कूल, विश्वविद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में और हिंदी मीडिया के माध्यम से जिस रूप में प्रसारित हो सकती थी उस रूप में नहीं हो रही है। ब्रिटेन के अलावा भी जो नए प्रवासी भारतीयों के देश हैं उनमें हिंदी का भविष्य आशाजनक हो सकता है इसके लिए आवश्यक है कि स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार शैक्षिक सुधार की जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति की योजनाएं हैं उनको प्रोत्साहित किया जाए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी प्रयोग को राष्ट्रीय भाषा के तौर पर जोड़ा जाए। हिंदी उपाधियां को मान्यता प्रदान की जाए डिजिटल मीडिया और तकनीक के हिस्से में हिंदी को बढ़ाया जाए।
यह भी एक तथ्य है कि हिंदी का वैश्विक विस्तार तो हो रहा है किंतु अभी उसकी संख्या उस रूप में नहीं है। अंतरराष्ट्रीय रूप में हिंदी शिक्षण, अनुवाद, फिल्मों और टेलीविजन कार्यक्रमों की लोकप्रियता का लाभ उठाकर प्रसारित की जा सकती है।
यह भी एक तथ्य है कि भारतीय अब पर्यटन में काफी ध्यान दे रहे हैं तो वैश्विक स्तर पर भारतीयों के पर्यटन क्षेत्र में जाने के कारण दुभाषियों की आवश्यकता हो रही है।
चुनौतियां तो हैं पर वह हिंदी के लिए सकारात्मक दृष्टि प्रदान कर सकती हैं क्योंकि इंटरनेट के आने के बाद भाषा संरक्षण का काम सीमाओं के बाहर जा रहा है और इसमें जितना भी प्रोत्साहन संरक्षण दिया जाएगा हिंदी का विकास उतना ही सकारात्मक रूप में हो सकेगा। यूरोप तथा चीन जैसे देशों में अपनी भाषा के सम्मान को बढ़ाने के लिए उसकी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विरासत को जोड़ा जा रहा है उसके प्रचार-प्रसार पर ध्यान दिया जा रहा है।
साहित्य और संस्कृति के हिस्से में केवल हिंदी दिवस या विश्व हिंदी दिवस जैसे आयोजनों से काम नहीं चलेगा हमें वर्ष भर हिंदी के विकास और प्रोत्साहन योजनाओं को जोड़ना होगा सबसे बड़ी जरूरत है की नई पीढ़ी के बीच शिक्षा हिंदी में और जागरूकता लाई जाए ताकि हिंदी का लेखन और उसके प्रयोग का अवसर बढ़ सके। ‘स्पीच टू टेक्स्ट’ और ‘टेक्स्ट टू स्पीच’ यह दोनों इस क्षेत्र में विशेष काम कर सकते हैं। भारत सरकार की ‘अनुवादिनी’ और ‘भषिणी’ जैसी नई ऐप को महत्व दिया जाए और उसे अधिक उपयोगी तथा विश्वसनीय बनाया जाए।
14 सितंबर भारत का राजभाषा हिंदी दिवस है इस दिन संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता देने के कारण भारत की सरकारी कार्यालय में हिंदी प्रयोग की स्थिति किस रूप में होनी चाहिए किस रूप में है और कैसे आगे बढ़े इस पर विचार होने का दिन है। भारत में हिंदी राजभाषा है, लेकिन जब अंग्रेजी को भी राजभाषा के रूप में पहले 10 साल और फिर अनंत काल तक के लिए लागू कर दिया गया तब से हिंदी के इस राजभाषा दिवस को औपचारिकता के तौर पर मनाया जाने लगा। त्रिभाषा सूत्र के रूप में जो हिंदी की पूर्व स्थिति थी 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उसको भी किंचित अलग तरह से प्रस्तुत किया गया।
हिंदी को हिंदी भाषी राज्यों में अध्ययन की भाषा बनने पर जोर नहीं है । राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जहां मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा, स्थानीय भाषा, घर की भाषा को प्राथमिक अध्ययन की भाषा बनने पर विचार हुआ, आज क्षेत्रीय भाषाओं वाले कुछ राज्यों ने प्राथमिक स्तर पर शिक्षा देने के लिए अपनी भाषा को तो लागू कर दिया परंतु हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी शिक्षण माध्यम के रूप में प्राथमिक स्तर पर हिंदी की पुरानी स्थिति तो नहीं रही, लेकिन नए रूप में राजभाषा हिंदी को प्राथमिक शिक्षण भाषा, क्षेत्रीय भाषा, मातृभाषा, घर की भाषा के रूप में भी नहीं लागू किया जा सका है। इसके संबंध में राज्य सरकारों की नीतियों के साथ-साथ भारत सरकार के स्तर पर भी जो अपेक्षित कार्य हैं, वह नहीं हो रहे हैं।
हिंदी भारत की राजभाषा है इसलिए इसके पठन-पाठन को विशेष रूप से ध्यान दिया जाए ताकि राष्ट्रीय स्तर पर अध्ययन-अध्यापन की भाषा बने, जिससे विद्यार्थी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजभाषा के जो प्रयोग क्षेत्र हैं उनसे वह परिचित हो सके। चर्चा और नारेबाजी तो बहुत है फिर भी यह कहा जा सकता है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की बात तो दूर की कौड़ी है। अभी उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों के अनेक विश्वविद्यालय में हिंदी अध्ययन की भाषा नहीं है, अनेक सरकारी विश्वविद्यालयों हिंदी विभाग की स्थापना तक नहीं हुई है।
अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में जहां पर भारतीय लोग ही उपस्थित हैं वहां हिंदी गीत संगीत के कार्यक्रमों में हिंदी में संवाद करने के स्थान पर कार्यक्रम को अंग्रेजी में तर्क के साथ लाया जाता है कि यहां कई लोग हिंदी नहीं जानते।
इसी प्रकार पब्लिक स्कूलों की भाषा न केवल अंग्रेजी रह गई है अभी तो वहां हिंदी कक्षा के अलावा हिंदी बोलने पर दंडित करने की भी चर्चाएं आम हैं। पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी बोलकर काम चलाने के प्रबंधन के निर्देशों पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कोई बढ़त नहीं बनाई है अधिकांश प्रबंधनों में अंग्रेजी पैसा कमाने वाली भाषा के रूप में प्रचारित होती है इसलिए प्रबंधन मुनाफे के लिए अंग्रेजी को अपनी भाषा बताते हैं।
यह स्पष्ट है की भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और संप्रेषण जिस भाषा में ठीक रूप में हो सकता है उस माध्यम को व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुनता है सरकार द्वारा भारत की भाषाओं में सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली भाषा के रूप में संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के रूप में अंगीकार किया। यह संविधान लागू होने का 75 वां वर्ष है। भारत सरकार की पहल पर पूरे देश ने आजादी का अमृत काल मनाया। जब हमें आजादी के 75 वर्ष हो गए 1949 में संविधान लागू होने के क्रम में हिंदी को राजभाषा बनाने की स्वीकृति हो गई एक तरह से राजभाषा के लिए यह अमृत काल होना चाहिए था। संभवत इस ओर औपचारिकता की प्रतिपूर्ति के स्थान पर औपचारिक कार्य जारी रहते तो हिंदी देश की राजभाषा के रूप में स्थापित हो गई होती। इसका लाभ देश की भाषा में तकनीक के विकास में भी प्रयोग में लाया जाता।
आज के दिन हम प्रौद्योगिकी और तकनीकी क्षेत्र में अंग्रेजी पर ही आश्रित है और हमारी सारी तकनीकी व्यवस्था गूगल पर निर्भर है । इस कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हम केवल अंग्रेजी माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त कर रहे हैं । विश्वविद्यालयों तथा दूतावासों में रहने वाले अधिकारियों के स्तर पर भी अगर हिंदी प्रयोग बढ़ावा दिया जाए तो हिंदी का प्रचार-प्रचार विदेशों में अधिक बढ़ सकता था परंतु कुछ निजी प्रयासों को छोड़कर इस पर कोई गंभीर प्रयास नहीं हुए। 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने पर कई तरह के पक्ष विपक्ष आते हैं।
कई लोग आपत्ति करते हैं कि राजभाषा दिवस क्यों मनाया जाए। क्या दुनिया में बड़ी भाषाओं में कोई भाषा दिवस मनाने की परंपरा है? भारत और दुनिया में हिंदी का प्रचार प्रसार बढ़े और हिंदी वास्तव में भारतीय भाषाओं में प्रमुख भाषा के तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न केवल भाषा संवाद शिक्षण, अध्ययन, शोध की भाषा बने। वह भारतीयों की भी एक प्रमुख भाषा के रूप में स्वीकृत हो, इसके लिए भारत सरकार को अनेक प्रयास करने होंगे और आम लोगों को भी उसे जोड़ना होगा।
भारत सरकार को शिक्षा प्रणाली में सुधार करना होगा। जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्कूलों में हिंदी शिक्षण माध्यम को एक अनिवार्य किया जाए और उच्च शिक्षा में भी हिंदी की जो अध्ययन सामग्री है उसे न केवल बढ़ाया जाए अभी तो उसमें जो पूर्व से सामग्री है वह आम लोगों तक पहुंचाई जाए, क्योंकि हिंदी में जो भी सामग्री तैयार है वह अभी इंटरनेट पर भी मौजूद होनी आवश्यक है, जो अभी नहीं है. मीडिया और डिजिटल माध्यमों में जो सामग्री है उनको और अधिक प्रसारित कर हिंदी की वेबसाइट्स, एप और सोशल प्लेटफॉर्म्स को प्रोत्साहित करना होगा, इससे हिंदी उन युवा लोगों तक पहुंचेगी जो हिंदी के विद्यार्थी भी केवल औपचारिक हिंदी पाठ्यक्रमों के ही रहे।
यह भी विशेष बात है कि हिंदी माध्यम से कंप्यूटर में लेखन भी काफी हद तक बाधित रहा। अब सभी भारतीय भाषाओं में और हिंदी में लेखन कंप्यूटर पर और इंटरनेट माध्यम में हो रहा है तो उसका उपयोग किया जाए। प्रौद्योगिकी की संसाधनों के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर भारतीयों की प्रौद्योगिकी में धमक को हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रसार में सहयोग लेकर आगे बढ़ने का समय आ गया है। हम वर्षों वर्ष इंतजार करते रहे और इस आशा में बातें आगे बढ़ती रही थी भारत को अपनी भाषा में लिखने, पढ़ने और बोलने लायक संसाधन मिलेंगे पर आज भी यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि भारत अभी भी अंग्रेजी के दासत्व की ओर बढ़ रहा है!
प्रो.नवीन चन्द्र लोहनी अध्यक्ष हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ पिन 250004 (उत्तर प्रदेश – भारत) फोन- 0121 -2772455 मो न . 09412207200 Email: [email protected] / [email protected]