काफी लम्बा लेख है पुनीता जी! यह लेख ऐसा नहीं है जिसे सहजता से और सरलता से पढ़ा जा सके फिर भी हमने इसे आधा तो पूरा ही पूरा पढ़ा है ।आधे पर अभी सरसरी
दृष्टि डाली है ।लेकिन इसको बहुत ध्यान से, समय लेकर एकाग्रता से पूरा पढ़ना बहुत जरूरी है। हरिराम मीणा द्वारा गोविन्द गुरु को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यास “धूणी तपे तीर” में आदिवासियों के बारे में लिखा गया सच स्तब्ध करता है। हमने दलितों पर लिखी बजरंग बिहारी तिवारी की पुस्तक “केरल का सामाजिक आन्दोलन और दलित साहित्य” को जब पढ़ा था तो हम स्तब्ध हो गए थे ।हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि सामंतवादी लोग और उनकी सोच और अपने आप को भगवान के ठेकेदार मानने वाले पुजारी और पंडित लोग दलितों को इंसान ही नहीं समझते थे उनके प्रति होने वाले अत्याचारों ने दिल दहला दिया था। हमको काफी वक्त लगा उस किताब को पढ़ने में। क्योंकि कई पेज तो ऐसे थे जिनको पढ़ने के बाद मन इतना विचलित हुआ कि कई दिन उस किताब को उठाया ही नहीं।
आज इस लेख को पढ़ने के बाद भी वही स्थिति है। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में रहते हुए हमने वहाँ के आदिवासियों की स्थिति को बचपन में देखा था पर आज भी मानस पटल पर जीवित हैं वो दृश्य।
हर बार यह बात लगती है कि इंसान बस इंसान भर नहीं हो पता और नृशंसता के मामले में जानवर बनने में वह कोई कसर नहीं छोड़ता।
इस तरह की लेख हमें बहुत तकलीफ देते हैं। अपने आप से एक युद्ध करते हुए महसूस करते हैं। ऐसा लगता है कि क्या करें कि परिवर्तन हो जाए।
बचपन से किशोरावस्था तक हम राजस्थान में ही रहे आसपास के गांँवों में घूम कर हमने वहाँ की सामाजिक स्थिति को समझने का प्रयास किया है। जहाँ तक याद है जब हम आठवीं क्लास में थे तब हम लोगों को सप्ताह में एक बार के हिसाब से कब से कम से कम चार- पांच बार वहाँ के गाँवों में जागृति लाने के उद्देश्य से जाना होता था। शिक्षा का महत्व समझाना। साफ-सफाई का महत्व समझाना।उनकी समस्याओं को सुनना व समझना। समाधान का रास्ता सुझाना। यह काम था। वनस्थली की पंचमुखी शिक्षा पर गाँधी जी का प्रभाव सील ठप्पे की तरह था। किसी तरह के किसी काम को करने में हम लोगों ने कभी शर्म महसूस नहीं की । किसी काम के लिए ना कहना नहीं सीखा। राजस्थान की कोई भी बात हमें अपने घर की बात सी लगती है।
मोबाइल में बहुत लंबा एक साथ पढ़ना आजकल तकलीफदेह लगता है।फिर भी हम इसे फिर पढ़ेंगे। हम उपन्यास भी पढ़ना चाहेंगे।
एक महत्वपूर्ण लेख पढ़वाकर आपने हमें उपकृत किया।
इस लेख के लिए पुरवाई का तहेदिल से शुक्रिया।
Dhnyawad Neelima ji, isi lekh me aapko Hariram Meena ji ke anya do upnyaso ke Katha sansar ka vishleshan bhi milega.aap jese jigyasu Pathak hame prerna dete hai.punh dhnyawad.
काफी लम्बा लेख है पुनीता जी! यह लेख ऐसा नहीं है जिसे सहजता से और सरलता से पढ़ा जा सके फिर भी हमने इसे आधा तो पूरा ही पूरा पढ़ा है ।आधे पर अभी सरसरी
दृष्टि डाली है ।लेकिन इसको बहुत ध्यान से, समय लेकर एकाग्रता से पूरा पढ़ना बहुत जरूरी है। हरिराम मीणा द्वारा गोविन्द गुरु को केन्द्र में रखकर लिखे गए उपन्यास “धूणी तपे तीर” में आदिवासियों के बारे में लिखा गया सच स्तब्ध करता है। हमने दलितों पर लिखी बजरंग बिहारी तिवारी की पुस्तक “केरल का सामाजिक आन्दोलन और दलित साहित्य” को जब पढ़ा था तो हम स्तब्ध हो गए थे ।हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि सामंतवादी लोग और उनकी सोच और अपने आप को भगवान के ठेकेदार मानने वाले पुजारी और पंडित लोग दलितों को इंसान ही नहीं समझते थे उनके प्रति होने वाले अत्याचारों ने दिल दहला दिया था। हमको काफी वक्त लगा उस किताब को पढ़ने में। क्योंकि कई पेज तो ऐसे थे जिनको पढ़ने के बाद मन इतना विचलित हुआ कि कई दिन उस किताब को उठाया ही नहीं।
आज इस लेख को पढ़ने के बाद भी वही स्थिति है। उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में रहते हुए हमने वहाँ के आदिवासियों की स्थिति को बचपन में देखा था पर आज भी मानस पटल पर जीवित हैं वो दृश्य।
हर बार यह बात लगती है कि इंसान बस इंसान भर नहीं हो पता और नृशंसता के मामले में जानवर बनने में वह कोई कसर नहीं छोड़ता।
इस तरह की लेख हमें बहुत तकलीफ देते हैं। अपने आप से एक युद्ध करते हुए महसूस करते हैं। ऐसा लगता है कि क्या करें कि परिवर्तन हो जाए।
बचपन से किशोरावस्था तक हम राजस्थान में ही रहे आसपास के गांँवों में घूम कर हमने वहाँ की सामाजिक स्थिति को समझने का प्रयास किया है। जहाँ तक याद है जब हम आठवीं क्लास में थे तब हम लोगों को सप्ताह में एक बार के हिसाब से कब से कम से कम चार- पांच बार वहाँ के गाँवों में जागृति लाने के उद्देश्य से जाना होता था। शिक्षा का महत्व समझाना। साफ-सफाई का महत्व समझाना।उनकी समस्याओं को सुनना व समझना। समाधान का रास्ता सुझाना। यह काम था। वनस्थली की पंचमुखी शिक्षा पर गाँधी जी का प्रभाव सील ठप्पे की तरह था। किसी तरह के किसी काम को करने में हम लोगों ने कभी शर्म महसूस नहीं की । किसी काम के लिए ना कहना नहीं सीखा। राजस्थान की कोई भी बात हमें अपने घर की बात सी लगती है।
मोबाइल में बहुत लंबा एक साथ पढ़ना आजकल तकलीफदेह लगता है।फिर भी हम इसे फिर पढ़ेंगे। हम उपन्यास भी पढ़ना चाहेंगे।
एक महत्वपूर्ण लेख पढ़वाकर आपने हमें उपकृत किया।
इस लेख के लिए पुरवाई का तहेदिल से शुक्रिया।
Dhnyawad Neelima ji, isi lekh me aapko Hariram Meena ji ke anya do upnyaso ke Katha sansar ka vishleshan bhi milega.aap jese jigyasu Pathak hame prerna dete hai.punh dhnyawad.