परमसत्ता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यत्र–तत्र उसको कालातीत भी कहा जाता है। सृष्टि निर्माण में समय के योगदान को स्वीकार करते हुए प्राचीन आचार्यों ने लिखा—जल की अवस्था से उन्नत होकर इस जगत का विकास समय, संवत्सर अथवा वर्ष, इच्छा या काम,एवं बुद्धिरूपी पुरुष तथा तप की शक्तियों से हुआ था।’ (भा।द। पृष्ठ 83)। इसमें समय तथा ‘संवत्सर अथवा वर्ष’को अलग–अलग लिखा हुआ है। जबकि व्यवहार में संवत्सर और वर्ष समय के ही मात्रक हैं।
समय को लेकर वैदिक आचार्यों की दो स्पष्ट प्रतीतियां थीं। पहली उसे अनंत, ब्रह्मांडनुमा सत्ता मानती थी। उसके अनुसार समय को स्थिर, विचलनहीन और अनंत विस्तारयुक्त सत्ता माना गया, जिसमें सबकुछ घटता रहता है। जो घटनाओं का क्रमानुक्रम मात्र न होकर अंतहीन त्रिविमीय फैलाव है। चराचर जगत का सहयात्री न होकर सर्वस्व द्रष्टा है। जिसका न आदि है न अंत। जो इतना विस्तृत है कि कोटिक कोटि ग्रह–नक्षत्र–नीहारिकाएं उसमें सतत गतिमान रहती हैं—या जो कोटिक घटनाओं, गतियों का एकमात्र द्रष्टा एवं साक्षी है।
दूसरी प्रतीति के अनुसार समय भूत, वर्तमान तथा भविष्य के रूप में परिलक्षित होने वाली,नदी–सम निरंतर प्रवाहशील एकविमीय संरचना है। घटनाओं के साथ घटते जाना उसका स्वभाव है। वह न केवल घटनाओं के क्रमानुक्रम का साक्षी है, बल्कि उनका हिसाब भी रखता है।मगर है आदि–अंत से परे। उनकी न शुरुआत है न ही अंत।समय को लेकर ये दोनों ही धारणाएं कमोबेश आज भी उसी रूप में विद्यमान हैं। इस तरह यह संभवतः अकेली अवधारणा है जिसके बारे में मनुष्य के विचारों में शुरू से आज तक बहुत कम परिवर्तन हुआ है।
इतना अवश्य है कि समय जब तक दर्शन का विषय था, तब तक उसे लेकर वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार होता रहा। विशेषकर जैन और बौद्ध दर्शन में समय की सत्ता पर गंभीर चिंतन हुआ। कालांतर में समय के दार्शनिक–वैज्ञानिक पक्ष पर विचार करने के बजाय केवल उसके व्यावहारिक पक्ष पर विमर्श होता रहा। आगे चलकर जीवन में स्पर्धा और सामाजिक विभाजनकारी स्थितियां बढ़ीं तो पोंगा पंडितों ने समय को प्रारब्ध से जोड़ दिया।

एक निरपेक्ष सत्ता को नियामक सत्ता मान लिया गया। इससे मानवमन में समय के प्रति अतिरिक्त श्रद्धाभाव उमड़ने लगा। उसके पीछे समय को जानने की वांछा कम, डर और समर्पण का अंश कहीं अधिक था। समय के प्रति डर,अविश्वास एवं स्थूल चिंतन का दुष्प्रभाव यह हुआ कि उसे लेकर दार्शनिक चिंतन लगभग ठहर–सा गया। इससे उन पोंगापंथियों को सहारा मिला जो समय को लेकर लोगों को डराते थे।
समय का बोध मानवीय बोध के साथ जन्मा और उतना ही पुराना है। सवाल है कि समय की उत्पत्ति कब हुई? क्या समयबोध के साथ? अथवा उससे पहले? इस मामले में वैदिक ऋषि और वैज्ञानिक दोनों एकमत थे कि समय का जन्म सृष्टि के जन्म के साथ हुआ। उससे पहले समय की कोई सत्ता नहीं थी। हालांकि दोनों की मान्यताओं का आधार अलग–अलग है। स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक इसकी व्याख्या तार्किक आधार पर करना चाहते हैं, जबकि वैदिक आचार्यों का द्रष्टिकोण अध्यात्म–प्रेरित था।
अंतरिक्षीय महाविस्फोट द्वारा सृष्टि–रचना के सिद्धांत में विश्वास रखने वाले वैज्ञानिक मानते हैं कि उससे पहले ब्रह्मांड अति उच्च संपीडन की अवस्था में था। इस तरह विज्ञान की दृष्टि में ब्रह्मांड और समय दोनों एक ही घटना का उत्स हैं, जिसे वैज्ञानिक महाविस्फोट का नाम देते हैं। इसलिए ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ लिखने के बहाने स्टीफन हाकिंग जैसे वैज्ञानिक प्रकारांतर में इस ब्रह्मांड का ही इतिहास लिख रहे होते हैं।ब्रह्मांड के जन्म की घटना से पहले समय की उपस्थिति को नकारना वैज्ञानिकों की मजबूरी थी। क्योंकि उससे पहले समय की उपस्थिति स्वीकार करने के लिए उनके पास कोई तार्किक आधार नहीं था।
समय ही प्रतीति घटित होने से जुड़ी हुई है और उच्च संपीडन की अवस्था में घटना का आधार ही गायब था। ऐसा कोई कारण नहीं था जिससे समय की उपस्थिति प्रमाणित हो सके। समय के बारे में एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक द्रष्टिकोण आइंस्टाइन के शोध में मिलता है। सापेक्षिकता के सिद्धांत की खोज के बाद घटना विशेष के संदर्भ में दिक् और काल को अपरिवर्तनशील एवं निरपेक्ष मानना संभव नहीं रह गया था। वे प्रभावशाली मात्राएं बन गई थीं, जिनका स्वरूप पदार्थ और ऊर्जा पर निर्भर था।
सापेक्षिकता का सिद्धांत महाविस्फोट से पहले समय की संभावना को नकारता है। उसके अनुसार समय और दिक् की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड के भीतर रहकर संभव है। उससे पहले चूंकि घटनाओं के बारे में कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा सकता,अतएव यह माना गया कि समय की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड की संभावनाओं में संभव है। इसके बावजूद समय की निरपेक्ष तस्वीर कुछ वैज्ञानिकों को आज भी लुभाती है।हालांकि 1915 में आइंस्टीन द्वारा जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी का क्रांतिकारी सिद्धांत पेश होने के बाद उसपर दृढ़ रहना आसान नहीं रह गया था।
सापेक्षिकता के सिद्धांत को स्वीकृति मिलने के बाद स्पेस और टाइम किसी घटना के स्थिर आधार जैसे अपरिवर्तनशील और निरपेक्ष नहीं रह गए।बल्कि वे बेहद प्रभावशाली मात्राएं बन गईं, जिनकी रूपरेखा पदार्थ और ऊर्जा से तय होती है। यह मान लिया गया कि दिक्, काल की व्याख्या केवल ब्रह्मांडीय सीमाओं में संभव है।तदनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले दिक्, काल की परिकल्पना करना बिल्कुल बेमानी हो गया|
डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार—ऋग्वेद की प्रवृत्ति एक सीधा–सादा–सरल यथार्थवाद है…।(वह) केवल एक जल की ही परिकल्पना करता है। वही आदिमहाभूत है, जिससे धीरे–धीरे दूसरे तत्वों का विकास हुआ।’ (भा. द. पृष्ठ 83)। लेकिन सृष्टि की रचना अकेले जल द्वारा संभव न थी। जल की अवस्था से आकाश, अग्नि, जल, वायु के विकास के बीच सुदीर्घ अंतराल है।
नासदीय सूक्त के अनुसार आरंभ में न दिन था न रात। इसलिए समय का बोध कराने वाले भूत–भविष्य आदि का भी लोप था। इस तरह महाशून्य अवस्था से दिन–रात से भरपूर ब्रह्मांड में आने के बीच जो लाखों, करोड़ों वर्ष बीते, उनसे समय की उपस्थिति स्वतः सिद्ध है। कह सकते हैं कि सृष्टि के निर्माण में पंच–तत्वों के सहयोग के अलावा समय का भी योगदान रहा। वैदिक ऋषियों को लगा होगा कि सतत परिवर्तनशील जगत की व्याख्या के लिए अंतरिक्ष अपर्याप्त है। उससे सृष्टि के विस्तार और व्याप्ति की परिकल्पना तो संभव है, मगर चराचर जगत की परिवर्तनशीलता एवं क्रमानुक्रम की व्याख्या के लिए, कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो अंतरिक्ष जैसा अनादि–अनंत होकर भी वस्तुजगत की गतिशीलता की परख करने में सक्षम हो।
अंतरिक्षनुमा होकर भी उससे भिन्न हो। जिसमें वह अपने होने को सार्थक कर सके। अपनी चेतना को दर्शा सके। जिसके माध्यम से घटनाओं के क्रम तथा उनके वेग आदि की व्याख्या भी संभव हो। जो सकल ब्रह्मांड के चैतन्य का साक्षी,उसकी गतिशीलता का परिचायक एवं संवाहक हो।यह धारणा भी बनी रही कि चराचर जगत में जो कुछ बनता–मिटता है, समय उसका साक्षी है। काल नहीं मिटता, हम ही बनते–मिटते हैं—कहकर समय की परमसत्ता को स्वीकृति दी गई। उसे अजेय माना गया।

काल गणना के माप:
श्रीमद भागवत के तीसरे स्कंध के ग्यारहवे अध्याय में काल की गणना के सूत्र दिए हुए हैं, समय की सुक्ष्तम  गणना परमाणु से की गयी है, परमाणु वह अविभाज्य है जिसका विघटन संभव नही, दो परमाणु मिलकर एक अणु बनाते हैं और तीन अणुओं के मिलाने से एक तत्रसरेणु बनाता है, त्रसरेणु को नग्न आँखों से नही देखा जा सकता एक छिद्र किये हुए पट से प्रवेश कराती प्रकाश की किरणों में तृसरेणु को देखा जा सकता है।
एक त्रसरेणु के आवश्यक संयोग के समय को त्रुटि कहते है, आधुनिक जगत की गणना के अनुसार एक त्रुटि ८/१३५००० सेकंड के बराबर है, अतः भागवत की गणना के अनुसार काल की विभिन्न इकाइयां निम्न अनुसार है,
एक त्रुटि    – ८/१३५०००  से।               एक वेध              -८/१३५  से।
एक लव              -८/४५ से।
एक मेष              -८/१५  से।
एक क्षण              -८/५  से।
एक काष्ठा            -८ से।
एक लघु              – २ मी।
एक दंड              – ३० मी।
एक प्रहार            – ३ घ।
एक दिन             – १२ घ।
एक रात             –  १२ घ।
एक पक्ष             – १५ रात/दिन
फिर वर्षों की गणना देवताओं के दिन के अनुसार की गयी है,
ग्रागेरियन केलिन्डर एवं उनका नव वर्ष कितना सटीक?
ई। पू। 46 में जूलियस सीज़र ने एक संशोधित पंचांग निर्मित किया था जिसमें प्रति चौथे वर्ष ‘लीप वर्ष की व्यवस्था थी। परन्तु उस पंचांग की गणनाएँ सही नहीं रहीं, क्योंकि सन् 1582 में ‘वासन्तिक विषुव’ 21 मार्च को न होकर 10 मार्च को हुआ था। पोप ग्रेगोरी 13वें ने घोषणा की थी कि 4 अक्टूबर के बाद 15 अक्टूबर होना चाहिए और दस दिनों को समाप्त कर दिया गया। उसने बताया कि जब तक 400 से भाग न लग जाए तब तक शती वर्षों में ‘लीप’ वर्ष नहीं होना चाहिए। अत: 1700, 1800, 1900 ईस्वी में अतिरिक्त दिन नहीं होगा, केवल 2000 ई। में होगा।
पुराने रोमन वर्ष में ३०४ दिन होते थे और वे १० महीनों में विभाजित थे, मार्च से आरंभ होकर। द्वितीय रोमन सम्राट नुमा पोम्पिल्लिऔस ने इसे १२ महीनों में परिवर्तित कराया लौन्रिऔस और फ़ेब्रौरिऔस नमक दो माह जोड़े गए| नव वर्ष ७०९ वी auc में जनवरी १ से प्रारंभ किया गया, और वर्ष ३६५ दिनों का, ३१ दिसम्बर को समाप्त किया गया।
किंतु उसमें भी त्रुटि रह ही गयी, 33 शतियों से अधिक वर्षों के उपरान्त ही एक दिन घटाया जाएगा। आधुनिक ज्योतिषशास्त्र की गिनती से ग्रेगोरी वर्ष ’26 सेकेण्ड’ अधिक है। सुधारवादी प्रोटेस्टेण्ट इंग्लैंड ने सन् 1740 ई। तक पोप ग्रेगोरी के सुधार को मान्यता नहीं दी, जबकि क़ानून भी बना कि 2 सितंबर को 3 सितंबर न मान कर 14 सितंबर माना जाए और 11 दिन छोड़ दिए जाएँ। फिर भी यूरोपीय पंचांग में दोष रह गया। यूरोपीय पंचांग में मास में 28 से 31 दिन होते हैं, एक वर्ष के बाद में 90 से 92 दिन होते हैं; वर्ष के दोनों अर्धांशों, जनवरी से जून और जुलाई से दिसम्बर में क्रम से 181 (या 182) एवं 184 दिन होते हैं; मास में कर्म दिन 24 से 27 होते हैं तथा वर्ष एवं मास विभिन्न सप्ताह-दिनों से आरम्भ होते हैं। व्रतों का राजा ईस्टर सन् 1751 के उपरान्त 35 विभिन्न सप्ताह दिनों में अर्थात् 22 मार्च से 25 अप्रैल तक पड़ा, क्योंकि ईस्टर 21 मार्च पर या उसके उपरान्त पड़ने वाली पूर्णिमा का प्रथम रविवार है।
पुराने रोमन वर्ष में ३०४ दिन होते थे और वे १० महीनों में विभाजित थे, मार्च से आरंभ होकर। द्वितीय रोमन सम्राट नुमा पोम्पिल्लिऔस ने इसे १२ महीनों में परिवर्तित कराया लौन्रिऔस और फ़ेब्रौरिऔस नमक दो माह जोड़े गए| नव वर्ष ७०९ वी auc में जनवरी १ से प्रारंभ किया गया, और वर्ष ३६५ दिनों का, ३१ दिसम्बर को समाप्त किया गया। पुनः औगुस्तास के महीने में फेरबदल किया गया, लीप वर्ष का समावेश किया गया ७३७AD में, जो की १५८२ तक चला,७०७ AUC अलोगसाइड द कोउन्सिलर इयर जो की बाद में सुधार कर ४७ BC हुआ, क्रिस के जन्म के पूर्व की ६ सदियाँ अनेकोनेक प्रकार से काल गणना करती रही क्यूंकि उनके गणित में सघी काल का निर्णय नही हो पा रहा था, ८ वी सदी में एंग्लो सैक्सन इतिहासकार दूसरा लैटिन शब्द ADका प्रयोग किया जिसका अर्थ था इश्वर के सच्चे अवतार के पहले का समय।
कैथोलिक ज्ञानकोष के अनुसार पॉप के काल रेग्नल वर्ष कहलाते रहे। १४२२ में पुर्तगाल अंतिम पश्चिमी देश था जिसने AD की मान्यता मानी। १२६७ में रॉजर बकन ने चन्द्र पंचांग पर आधारित घंटे, मिनुत, सेकंड इत्यादि का अविष्कार किया।
 संवत्सर का महत्त्व
भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहाँ अनादिकाल से दो फसलें कटती आई हैं, एक चैत्र के आसपास दूसरी कार्तिक के आस पास, कृषि के इस देश में इनके दो प्रमुख त्यौहार भी कृषि की कटाई के बाद मनाये जाते हैं , वेदों में नवशस्येष्टि पर्व का उल्लेख मिलता है, नव = नया, शस्य = फसल, खेती, इष्टि = यज्ञ (वासन्ती नवशस्येष्टि = होलीएवं शरद नव्श्स्येष्टि अर्थार्थ दीपावली) इन दोनों त्यौहार के बाद ही नव वर्ष की भी मान्यता है, गुजरात में विक्रम संवत को मानते हुए नव वर्ष दीपावली से मनाते हैं उत्तर भारत ,राजस्थान, बिहार इत्यादि में होली के बाद।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी एवं वैदिक मान्यताओं के अनुसार भी, उपरोक्त सन्दर्भ में संवत्सर का उल्लेख आया, मैं संवत्सर के बारे में कुछ मत्वपूर्ण जानकारी देना चाहूँगा।
सुर्याचंद्र्म्सौधाता यथा पूर्वं कल्प्यत
दिवंव  प्रुथ्वीन्चान्त्रिक्ष्म थोश्वः।|१०/१९/३
ऋग्वेद के दसवें मंडल के उनिसवे सूत्र में सृष्टि रचना के सम्बन्ध में बतलाया गया है की सृष्टि की रचना के तुरंत उपरांत नारायण ने संवत्सर की उत्पत्ति की एवं संवत्सर के पहले दिन प्रथम सूर्योदय हुआ, शास्त्रों में यह विवरण भी है की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि की रचना का प्रथम दिन था, चैत्र को मधु नाम से उल्लेखित किया गया है, पृथ्वी का प्रथम दिवस उस से सुन्दर एवं पावन दिन क्या हो सकता है|  परमेश्वर ने ऋत अथार्थ संसार के नित्य शाश्वत नियमों के व्यवहारिक ज्ञान को उत्पन्न कर के सत-रज-तम के संघात रूप में अत्यंत गतिमान, उद्वेलित, प्रकृति के समुद्र का निर्माण किया, फिर बनाया संवत्सर।
ज्योतिष शास्त्र में लिखा है “ ।।।।चैत्र मासी जगद ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे हानि।।। शुक्ल पक्षे समग्रन्तु तदा सूर्योदय सती ।। अथार्थ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन ब्रह्मा ने जगत की रचना की।
१९४७ तक हम अंग्रेजों की गुलामी झेलते रहे, हमारे संस्कारों पर उन्होंने आक्रमण कर हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाया, सीमा एवं भौगोलिक स्वाधीनता तो हमने पाली,  परन्तु मानसिक गुलामी में हम अभी भी जकड़े हैं एवं यह गुलामी कम होने के बजाय बढ़ रही है, चीन वाले अपना नव वर्ष धूम धाम से मनाते हैं, जापान वाले एवं अन्य देश अपना अपना, फिर हम क्यूँ अंग्रेजी नव वर्ष को सारी रात जाग कर मदिरा पान कर नाच कर मनाते हैं, पहले तो पहली जनवरी राष्ट्रिय अवकाश हुआ करता था वह तो भला हो मोरारजी भाई का जिन्होंने पहली जनवरी को अवकाश से हटा दिया।
सृष्टि की उत्पत्ति हुई इस दिन, इस दिन ही कहते हैं श्री रामचंद्र  का राज्याभिषेक हुआ, आज के दिन ही  युधिष्ठर महाराज का भी राजतिलक हुआ, आर्यसमाज की स्थापना भी आज ही हुई, ईशा के ५७ वर्ष पूर्व जब पाश्चात्य जगत संस्कृति एवं जीवनयापन के शैशवास्था में था तब भारत पूर्ण रूपेण समृद्ध एवं परिपक्व था, चक्रवर्ती महाराज विक्रमादित्य ने विश्व विजय प्राप्त की एवं उस दिन से यह नूतन वर्ष प्रारंभ हुआ| संवत्सर का शाब्दिक अर्थ होता है ऋतुओं के एक चक्र का पूरा होना, अथार्थ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ होकर वर्ष का अंत वर्षा, शरद, हेमत, शिशिर होते हुए बसंत ऋतु पर होता है, कालिदास के प्रमुख काव्य ग्रन्थ ऋतुसंहार में भी यही क्रम रखा गया है।
भारतीय वैदिक युग में प्रत्येक कार्य आध्यात्म जनक होता था, वर्ष के प्रारंभ को ग्रीष्म से करने का भी तात्पर्य था, ग्रीष्म द्योतक है तप का, कोई भी कार्य का आरंभ करें तो तप की आवश्यकता है, वैसे ही बसंत द्योतक है धर्ममूलक काम का, अथार्थ समापन काम पर विजय पाकर धर्म की स्थापना करना। वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर द्योतक हैं, सत्य, दया, दान, त्याग के।
पंचांग दिन को नामंकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्षऔर 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। गणना के आधार पर हिन्दू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति।
भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीनकाल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्यतिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत राष्ट्र इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है। दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। पंचांग दिन को नामंकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्षऔर 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। गणना के आधार पर हिन्दू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते क्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। यह संवत ५७ ईपू आरम्भ होती है। बारह महीने का एक वर्ष और सात दिन का एक सप्ताह रखने का
हैं।वि प्रचलन विक्रम संवत से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। यह बारह राशियाँ बारह सौर मास हैं। जिस दिन सूर्य जिस राशि मे प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। पूर्णिमा के दिन ,चंद्रमा जिस नक्षत्र मे होता है। उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। चंद्र वर्ष सौर वर्ष से 11 दिन 3 घडी 48 पल छोटा है। इसीलिए हर 3 वर्ष मे इसमे 1 महीना जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार देखें तो समय की गणना का सर्व श्रेष्ठ एवं प्रमाणिक आधार विक्रम संवत पंचांग है।
हमारा राष्ट्रिय कर्तव्य है की हम अपने नव वर्ष को उत्साह पूर्वक मनाएं।
राष्ट्रिय पंचांग
हर देश को आवश्यकता है अपने राष्ट्र के एक विशेष कैलंडर (पंचांग) की ताकि उसे अपनी दैनिक तिथि एवं वार की पहचान बन सके, भारत में आज़ादी तक ३० प्रकार के विभिन्न कैलंडर प्रचलित थे इन सबको ध्यान में रखते हुए १९५२ नवम्बर में वैज्ञानिक और औद्योगिक संसाधन ने ७ सदस्यों की एक समिति बनाई जिन्होंने १९५५ में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। यह समिति श्री के।डी।मालवीय जी (तत्कालीन मंत्रि) की अध्यक्षता में बनी थी।
इस कैलेंडर को कैलेंडर सुधार समिति द्वारा 1957 में, भारतीय पंचांग और समुद्री पंचांग के भाग के रूप मे प्रस्तुत किया गया। इसमें अन्य खगोलीय आँकड़ों के साथ काल और सूत्र भी थे जिनके आधार पर हिंदू धार्मिक पंचांग तैयार किया जा सकता था, यह सारी कवायद इसको एक समरसता प्रदान करने की थी। इस प्रयास के बावजूद, पुराने स्रोतों पर आधारित स्थानीय रूपान्तर जैसे सूर्य सिद्धांत अभी भी मौजूद हैं।
इसका आधिकारिक उपयोग 1 चैत्र, 1879 शक् युग, या 22 मार्च 1957 में शुरू किया था। हालांकि, सरकारी अधिकारियों इस कैलेंडर के नये साल के बजाय धार्मिक कैलेंडरों के नये साल को तरजीह देते प्रतीत होते हैं।
भारतीय राष्ट्रीय पंचांग या ‘भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर’ भारत में उपयोग में आने वाला सरकारी सिविल कैलेंडर है। यह शक संवत पर आधारित है और ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ-साथ 22 मार्च 1957 से अपनाया गया। भारत मे यह भारत का राजपत्र, आकाशवाणी द्वारा प्रसारित समाचार और भारत सरकार द्वारा जारी संचार विज्ञप्तियों मे ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ प्रयोग किया जाता है।चैत्र भारतीय राष्ट्रीय पंचांग का प्रथम माह होता है। राष्‍ट्रीय कैलेंडर की तिथियाँ ग्रेगोरियम कैलेंडर की तिथियों से स्‍थायी रूप से मिलती-जुलती हैं। सामान्‍यत: 1 चैत्र 22 मार्च को होता है और लीप वर्ष में 21 मार्च को।
यह तथ्य भारतीय जनता का ९९।९% नही जनता की भारत सरकार द्वारा अधिकृत पंचांग के अनुसार भारत का नव वर्ष २२ मार्च को और लीप वर्ष में २१ मार्च को होता है। कम से कम सरकार को इस नववर्ष को तो विधिवत मनाना चाहिए।
अधिवर्ष में, चैत्र मे 31 दिन होते हैं और इसकी शुरुआत 21 मार्च को होती है। वर्ष की पहली छमाही के सभी महीने 31 दिन के होते है,जिसका कारण इस समय कांतिवृत्त में सूरज की धीमी गति है। यह तथ्य भारतीय जनता का ९९।९% नही जनता की भारत सरकार द्वारा अधिकृत पंचांग के अनुसार भारत का नव वर्ष २२ मार्च को और लीप वर्ष में २१ मार्च को होता है। कम से कम सरकार को इस नववर्ष को तो विधिवत मनाना चाहिए।
महीनों के नाम पुराने, हिंदू चन्द्र-सौर पंचांग से लिए गये हैं इसलिए वर्तनी भिन्न रूपों में मौजूद है और कौन सी तिथि किस कैलेंडर से संबंधित है इसके बारे मे भ्रम बना रहता है।
शक् युग, का पहला वर्ष सामान्य युग के 78 वें वर्ष से शुरु होता है, अधिवर्ष निर्धारित करने के शक् वर्ष मे 78 जोड़ दें- यदि ग्रेगोरियन कैलेंडर मे परिणाम एक अधिवर्ष है, तो शक् वर्ष भी एक अधिवर्ष ही होगा।
इस तरह इस पंचांग को सौर कैलेंडर एवं चन्द्र कैलेंडर को मिला कर बनाया गया,
कोई भी राष्ट्र इसकी काल गणना में संभ्रम की स्थिति मान्य नहीं कर सकता, भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र है यह भी  भ्रम में न रह कर अपने अस्तित्व की दौड़ में आगे है, और यह हर नागरिक का कर्तव्य है की इस भारतीय पंचांग को ही अपनाये एवं अगर कभी ग्राग्रियन केलिन्डर की तारीख लिखे भी तो भारतीय शक संवत की तारीख भी साथ साथ लिखे, भारत सरकार ने हर कार्य क्षेत्र में ये दिनांक को मान्य किया है, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने एक आदेश पत्र द्वारा निर्देश दिया है कि राष्ट्रिय तिथि लिखा हुआ चेक या अन्य कोई भी दस्तावेज़ मान्य होगा। राष्ट्रीय गौरव उसकी संस्कृति में समाहित है, अतः हमें भारतीय संस्कृति को उत्कृष्ट रखना होगा भारतीय संस्कृति का प्रतिक शक संवतपंचांग यूँ भी काल गणना का सर्वश्रेष्ठ पंचांग है।

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