पुस्तक – कविता कभी न रुकना तुम 
रचनाकार – स्वर्ण तलवाड़
काव्य संग्रह “कविता कभी ना रुकना तुम…” की रचयिता “स्वर्ण तलवाड़ जी” मूल रूप से भारतीय हैं और पाँच दशकों से भी अधिक समय से बर्मिंघम, यू.के. में रह रही हैं। प्रस्तुत काव्य संग्रह के आरंभिक पन्नों पर “अपनी बात” में भारतीय होने का गर्व व्यक्त करते हुए कवियत्री उर्दू के इस शेर को भारतीयों की विशेषता बताते हुए कहती हैं कि–
“हम जहां भी रहेंगे घर बसा लेंगे अपना,
हमको आता है हुनर दिल में उतर आने का।”
अपनी मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा रखने के साथ-साथ वे अपनी कर्मभूमि के प्रति भी समान रूप से नतमस्तक हैं। हिंदी व अंग्रेजी दोनों ही भाषाएं इनके लिए समरूप हैं। इनके प्रशंसकों में जितने भारतीय हैं, उतने ही विदेशी भी हैं और दोनों भाषाओं के पाठकों का ध्यान रखते हुए इन्होंने इस पुस्तक में प्रत्येक कविता को हिंदी में लिखकर अंग्रेजी अनुवाद भी किया है। कविताओं के सम्मुख उनके अर्थ को विस्तार देते हुए चित्रों का प्रकाशन कविता को अविस्मरणीय बना देता है।
प्रस्तुत काव्य संग्रह सीमित शब्दों में असीमित अर्थ समझाती हुई 48 कविताओं का संग्रह है। “विश्व हिंदी साहित्य परिषद, दिल्ली” के प्रकाशक “डॉ आशीष कुमार कंधवे” द्वारा प्रकाशित काव्य संग्रह “कविता कभी ना रुकना तुम..” अपने आकर्षक कवर पेज द्वारा अपने शीर्षक को चरितार्थ करता हुआ निरंतर गतिमान रहने का संदेश देता है। कवियत्री वर्षों तक यू. के. के बर्मिंघम शहर में रहकर अंग्रेजी में अध्यापन कार्य करती रही हैं। अंग्रेजी की अध्यापिका होने के बावजूद हिंदी भाषा के प्रति इनका अगाध प्रेम और अपनत्व इन्हें हिंदी लेखन की ओर खींच लाया। इन्होंने “गीतांजलि बहुभाषी साहित्यिक समुदाय,बर्मिंघम, यू. के.” और उसके संस्थापक “डॉ कृष्ण कुमार” के सान्निध्य में अपनी लेखन यात्रा का आरंभ किया। हिंदी लेखन के विराट गगन में स्वर्ण तलवाड़ जी निरंतर सशक्त हस्ताक्षर बनकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। इनकी लेखनी की प्रखरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनका प्रथम काव्य संग्रह ही (“कविता, तुम कौन हो?”) भारतीय दूतावास लंदन में “डॉक्टर लक्ष्मीमल्ल सिंघवी” के अनुदान पुरस्कार से पुरस्कृत हो चुका है।
इस संग्रह की हर कविता कवियत्री की उत्कृष्ट मानसिकता और स्वतंत्र विचारों की परिचायक है। कविताएं विभिन्न विषयों पर लिखी गई हैं और संदेशपरक हैं। जिस प्रकार एक समर्पित कलाकार अपने कार्य का प्रारंभ अपने आराध्य की वंदना से करता है, उसी प्रकार कवियत्री ने प्रथम कविता के रूप में अपनी कर्मभूमि अर्थात “बर्मिंघम” शहर को अपने लिए पूजनीय कहते हुए उसे प्रणाम किया है। भारतीय धर्म में चार धामों की यात्रा को जितना पवित्र समझा जाता है, उतनी ही पवित्रता कवियत्री को अपने बर्मिंघम शहर की भूमि को प्रणाम करने में प्रतीत होती है। अपनी कर्मभूमि के प्रति आभार व्यक्त करना उनके व्यक्तित्व की सौम्यता को दर्शाता है और भारत के साथ-साथ यू. के. के प्रति भी उनकी गहरी आस्था को प्रकट करता है। जीवन के प्रति उनकी सोच कितनी सकारात्मक है, यह उनकी अगली कविता “जीवन” में देखा जा सकता है। वे जीवन को किसी कोरी आदर्शवादिता से नहीं ढांपना चाहतीं, बल्कि लचीला(फ्लेक्सिबल) रखना चाहती हैं। उनका मानना है कि परफेक्ट बनने की चाह में सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता। बेहतर होगा कि परफेक्ट बनने की बजाय सच्चे बनने का प्रयास किया जाए। खूबसूरती से लिखी गई इस कविता के कुछ अंश प्रस्तुत हैं–
“मुझे जीने के लिए एक साँचा दो
जिसमें मनचाही मूर्ति ढाल सकूँ
लेकिन इतनी सुंदर नहीं
कि उसके सौंदर्य का वर्णन न कर सकूँ।
मुझे जीने के लिए एक सपना दो
लेकिन इतना अद्भुत नहीं
कि उसे साकार न कर सकूँ।।”
कवयित्री की कल्पनाशक्ति अद्भुत है। वे अपनी कविताओं द्वारा निष्प्राण पत्थरों को भी भावपूर्ण बना देती है। युगों-युगों से जिन अविचल पर्वतों द्वारा भावहीनता की तुलना की जाती रही है, उन्होंने उन बेजान पर्वतों में भी बादलों की भांति स्वच्छंद होकर उमड़ने-घुमड़ने की लालसा जगा दी है। “मृगतृष्णा” कविता द्वारा उन्होंने न केवल अचल पर्वतों, अपितु प्रवाहमान नदियों को भी भाव दिए हैं। अपने अस्तित्व को समुद्र में विलीन कर देने वाली नदी के लिए कहे गए कविता के कुछ अंश नारी मन को भी परिभाषित करते हैं,
 “अस्तित्व को खोना मेरी भक्ति नहीं, मुक्ति नहीं, काश! मैं भी उमड़ते, घुमड़ते, गरजते
बरसते, सिमटते, उभरते बादलों की तरह स्वच्छंद होकर असीम गगन में विचरती रहती।”
(“मृगतृष्णा” कविता का एक अंश)
भले ही हम इंसानों ने संसार को बांट कर अलग-अलग देशों के रूप में अपनी पहचान बना ली है, लेकिन किसी न किसी रूप में हमारी भावनाएं एकदूसरे से जुड़ी रहती हैं। विभिन्न देशों के मानव-मन का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए कवियत्री ने उनमें एक समरूपता का अनुभव किया है और उसी आधार पर अपनी कविता “पूर्व और पश्चिम” में वे कहती हैं–
“स्विट्जरलैंड की घाटियां हो
या अमेरिका का मैनहैटन
या हो बनारस का घाट
हर सड़क पर हर गली में
हर गली के कोने में
मैंने चेहरों की भीड़ में
अक्सर तुम्हारा चेहरा देखा है।”
“सीप और बूँद” में अस्तित्व मिट जाने के बाद भी सीप की मोती की भांति प्रिय के सान्निध्य की कल्पना में पाठक को घोर निराशा का आशावादी पक्ष दिखता है।
“विरह के व्योम सागर में
चंदन की डली बन घुल रही हूँ
पार्थिव शरीर मेरा मिट रहा है
और मैं अपना अस्तित्व खो रही हूँ।
कदाचित यह है मेरे प्रेम की विवशता
अथवा साधना की विषमता।” (“सीप और बूंद” कविता का एक अंश)
मानव मस्तिष्क का सदुपयोग समाज कल्याण की अनंत संभावनाएं जगाता है, किंतु दुर्भाग्यवश आधुनिक मानव, विध्वंसक गतिविधियों में अधिक संलग्न होता जा रहा है और मानव-जाति आधुनिकता के नाम पर नैतिक पतन की ओर अग्रसर हो रही है। सभ्यता का विकास तभी संभव है जब ज्ञान-विज्ञान का उपयोग मानव कल्याण के लिए हो। बहुत ही सधे हुए शब्दों में अहंकार में चूर मानव जाति से सभ्यता की परिभाषा पूछती कविता है, “परिभाषा”।
“धर्म, जाति और भाषा के नाम
हिंसा के प्रकोप से
जिसका भी खून बहा
जहां भी बहा…
रंग तो उसका लाल ही है।” ( कविता “परिभाषा” का एक अंश)
संग्रह की अगली कविता “आधुनिक जीवन” शहरी जीवनशैली पर आधारित है। महानगरों में गगनचुंबी इमारतों और मशीनों के बीच रहते हुए लोगों को भले ही गाँव की हरियाली और मस्त पवन के झोंकों के बीच आनंदित होने का अवसर न मिले, फिर भी हृदय में समस्त मानव जाति के प्रति करुणा और प्रेम का भाव बना रहे, ऐसी प्रार्थना करती हुई कवियत्री मानवता का संदेश देती हैं।
“भले ही जिस्म इन इमारतों में कैद पलता रहे
भले ही रूह इनमें भटकती, तड़पती रहे
लेकिन इनायत है मेरे रब तुझसे इतनी
कि मेरे दिल में इंसानियत की खुशबू बसती रहे।” (कविता “आधुनिक जीवन” का एक अंश)
“विपति भए धन ना रहे, होय जो लाख करोड़।
नभ तारे छिपी जात है, ज्यों रहीम भए भोर।।”
रहीम जी की उपरोक्त पंक्तियों में भले ही विपत्ति काल में धन को निरर्थक बताया गया है, लेकिन आधुनिक समय में पैसा जीवन की मूलभूत आवश्यकता बन चुका है और अभावग्रस्त मनुष्य धन के महत्व से इंकार नहीं कर सकता। संग्रह की कुछ कविताएं “माया और काया”, “सिक्का” आदि इसी यथार्थ के तारों से बुनी गई है।
“सुनकर तेरी झंकार
फीकी पड़ जाती है
मंदिरों में शंखों की
मस्जिदों में अज़ान की
गिरजाघरों में घंटों की टंकार।”(सिक्का)
         जीवन कितना भी शानदार रहा हो, कुछ अधूरे सपने हर किसी के जीवन में रह ही जाते हैं। भले ही व्यक्ति हर किसी से उन्हें छुपाता फिरे, किंतु वह जानता है कि समय के साथ उसके भीतर काफी कुछ टूटता-बिखरता रहता है। धीरे-धीरे बढ़ते इस आंतरिक बिखराव से अंततः वह शून्य की ओर अग्रसर होता है। जीवन की इस सच्चाई को कवियत्री अपनी कविता दर्पण के माध्यम से व्यक्त करते हुए कहती हैं कि–
“कहते हैं दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता
तो क्या मैं भी दो हिस्सों में बंट गई हूं?
चौथाई, आधा, तिहाई या तीन चौथाई
और फिर धीरे-धीरे सब घटता रहता है
और बढ़ता रहता है एक शून्य की ओर।”
मन को मर्यादित रखने की सीख देती कविता है, “मर्यादा”। जिस प्रकार समुद्र में सुनामी आने पर धरती काँप उठती है, उसी प्रकार मानव मन अमर्यादित आचरण के आवेग में सब कुछ बिखराने पर आमादा हो जाता है। कवियत्री ने इस कविता के माध्यम से व्यक्ति को मर्यादित जीवन जीने के लिए आत्मा की आवाज सुनने का आह्वान किया है।
“आत्मा आवाज देती है
उठाओ बिखरे मोती
गूँथ लो इसकी माला
मचलता है चंचल मन
काँपता है थिरकता है तन
तोड़कर सब सलाखें
बिखर जाना चाहता है
सीमाओं के पार
पहुंच जाना चाहता है
प्रियतम के द्वार।”
“हार और जीत” दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं, बस उन्हें समझने का हमारा दृष्टिकोण भिन्न है।
“बस निगाह का ही फर्क है
और छूने के अहसास का अंदाज़ है
वरना काँटो और फूलों का नाता
जीवन वृक्ष की टहनी की सौगात है।”
(कविता “हार और जीत” का एक अंश)
जो प्रकृति प्रेममयी होकर जीवन का वरदान देती है, वही कुपित होने पर विकराल रूप भी धारण कर सकती है। भयानक समुद्री तूफान सुनामी की त्रासदी की याद दिलाती कविता है “सुनामी”।
“सागर, तुम चाहते जीवनदान का देते वरदान
कदाचित तुम थे अति क्रूर क्रोधित
सीमा को लाँघ कर तुमने कर दिया
सबको मृत्यु से अभिशापित।”(कविता “सुनामी” का एक अंश)
कवयित्री ने अपनी कविता “मेहमान” के माध्यम से अनाथ,उपेक्षित, तिरस्कृत बच्चों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए कहा है–
“तुम आए इस जग में
बिन बुलाए मेहमान बनकर
कुछ वर्ष जिए और फिर
विदा हो गए…
तुम्हारे जाने के बाद
एक करिश्मा अवश्य हुआ…
अपंग बच्चों के अनाथालय
के रजिस्टर में
एक नाम कट गया,
एक जगह खाली हुई…
किसी दूसरे बिन बुलाए मेहमान के आने के लिए।”
“गे” और “हिजड़ा” कविता में कवयित्री ने समलैंगिक जोड़ों की पीड़ा का एहसास दिलाते हुए कहा है।
“यही कर रहा हूँ- यही कर रही हूँ
सही सुन रहा हूँ- यही सुन रही हूँ।
मैं कौन हूँ? क्या हूँ?
क्या लक्ष्य है जीवन का?
अन्तर्मन में संघर्ष कर रहा -रही हूँ।” (कविता “हिजड़ा” का एक अंश)
कवयित्री ने इन कविताओं के माध्यम से लीक से हटकर जीवन जीने वालों का दर्द प्रदर्शित करने का प्रयास किया है।
 इस अर्थवादी संसार में न जाने कितने कलाकार ऐसे हैं, जो अपनी कला में पारंगत होते हुए भी आर्थिक रूप से अभावग्रस्त जीवन जीने को अभिशप्त होते हैं। खड्डी पर बारह घंटे रेशम के तारों का काम करने वाली मजदूरनी की व्यथा का वर्णन करती हुई कविता है “रेशम के तार”। विडंबना है कि एक गरीब मजदूरिन पूरा जीवन रेशम के धागे बुनने को समर्पित रहती है पर स्वयं अपनी बेटी के लिए रेशम की साड़ी बुनने के सपने देखती रह जाती है। इस कविता में रेशम की साड़ी बुनने का तात्पर्य बेटी के लिए सुखद भविष्य की कल्पना से है।
”खड्डी पर बैठी बूढ़ी मजदूरिन
सपने संजो रही है…
काश!
एक सुंदर रेशमी साड़ी जुटा पाती
सजा संवार बेटी को दुल्हन बना पाती।”(कविता “रेशम के तार” का एक अंश)
कविता “लेना देना” मानव की स्वार्थी और लालची प्रवृत्ति पर कटाक्ष करती हुई लिखी गई है। इस कविता के माध्यम से कवियत्री ने इस गंभीर स्थिति के दुष्परिणामों के प्रति सचेत करते हुए कहा है कि
 “यदि चलता रहा ऐसा ही क्रम
तो आएगा एक दिन ऐसा भी,
जब पाने वाले होंगे अति आतुर
और फिर
भीड़ बढ़ेगी, होड़ लगेगी।
फैलेंगी झोलियां
बढ़ेंगे असंख्य हाथ
देनेवाला हो जाएगा अदृश्य।”(कविता “लेना देना” का एक अंश)
कवयित्री ने कविता “हँसी” द्वारा अपने चेहरों पर नकली मुस्कान लपेटे लोगों के बदले हुए व्यक्तित्व को ही उनकी नई पहचान बन जाने की चेतावनी दी है।
“अभिनय से भरपूर हँसी से
किस सच को झुठला रहे हो?
कदाचित झूठी हँसी का पहन मुखौटा
अपनी नई पहचान बना रहे हो।” (कविता “हँसी” का एक अंश)
विश्व शांति और सद्भावना की कामना करती कविता “गोल रोटी” समस्त संसार को मिलजुल कर रहने का संदेश देती है।
“माँगें ईश्वर से..
धरती बन जाए एक गोल रोटी,
सभी मानव इसे बाँट कर खाएं।
मानवता सजे संवरे..
शांति और प्रेम के
रंग से निखर जाए।” (कविता “गोल रोटी” का एक अंश)
विश्व में जनसंख्या विस्फोट के परिणामस्वरूप मानवता के लुप्त हो जाने का भय कविता “संख्या” के माध्यम से कवियत्री ने व्यक्त किया है-
“वह दिन दूर नहीं जब यह संख्या
केवल साँस लेने वाले जीवों की
संख्या बन कर रह जाएगी।
अहिंसा, प्रेम, संवेदना, सद्भावना
और मानवता जैसी भावनाएं लुप्त हो जायेंगी।
केवल शब्दकोशों में अंकित
शब्दों के रूप में अपनी पहचान बनाएगी।”
(कविता “संख्या” का एक अंश)
       कविता “माँ” द्वारा कवियत्री अपनी माँ की याद में संतप्त तो हैं लेकिन उनके संस्कारों को एक धरोहर की भांति अपने साथ रखती हैं।
“मां, तुम भारत हो और मैं भारत की बेटी
तुम संस्कृति हो और मैं उस श्रंखला की कड़ी जोड़ूँगी उसे अपनी बेटी से
रहूँ विश्व में कहीं भी मैं
जीवित रखूँगी तुम्हारे पवित्र संस्कार
संस्कृति सभ्यता की धरोहर अनुपम उपहार।”
(कविता “माँ” का एक अंश)
कविता “द्रौपदी” में स्त्री को अपमानित करने की धृष्टता करने वाले पुरुषों में संवेदनशीलता जाग्रत करते हुए कवियत्री लिखती हैं–
“सत्ता के मद में चूर ऐ पुरुष
काश! तुमने सोचा विचारा होता एक बार
कि वे सब नारियां भी उसी विधाता की देन थीं
जिसमें तुम्हें माँ, बहन, पत्नी और बेटी दी थी।”
(कविता “द्रौपदी” का एक अंश)
अक्सर लोगों को बिना पूरी तरह जाने हम उनके बारे में अपनी राय बना लेते हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व हमारे अनुमान से सर्वथा भिन्न या कभी-कभी पूर्णतः विपरीत निकलता है। “मूर्ति” कविता द्वारा कवियत्री आम धारणा से हटकर लोगों को जानने समझने की सीख देती हैं।
“मुझे ठीक से जानने पहचानने से पहले
मुझे अपनी कल्पना के साँचे में ढालने से पहले क्या सोच लिया है तुमने?
क्या समझ लिया है तुमने?
कौन सा रूप प्रदान करोगे मुझको?”(“मूर्ति” कविता का एक अंश)
कविता “वृक्षराज” प्रेम में चंदन सी शीतलता का अनुभव कराती है। प्रेमिका मधुर रागिनी सी बनकर अपने प्रेमी को मुग्ध कर देना चाहती है, किंतु वह यह भी जानती है कि उसका मधुर संगीत सुनकर उसमें ढेरों विकार रूपी नाग जागृत हो उठेंगे। वह चाहती है कि समस्त विकारों से परे हटकर सच्चे हृदय से उसके प्रेमी को प्रेम का अनुभव हो।
“छोड़ो हठ वृक्षराज!
खोलो चक्षु, खोलो कर्ण
देखो, सुनो क्या कह रही है रागिनी?”
(“वृक्षराज” कविता का एक अंश)
“अस्तित्व” कविता जाति के आधार पर मानवों के वर्गीकरण का विरोध करती है। हिन्दू धर्म के आधार पर मानवों का मुख्यतः चार श्रेणियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में वर्गीकरण किया गया है, किंतु कवियत्री ने इस कविता के अनूठे विश्लेषण द्वारा एक ही व्यक्ति का सभी जातियों के कार्य सम्पन्न कर लेने की बात कहते हुए लिखा है-
“तुम्हारी टाँगें भागतीं रहतीं
दौड़ती रहतीं एक बंधक गुलाम की तरह
तुम्हारा मस्तिष्क सोचता रहता
एक बुद्धिजीवी ब्राह्मण की तरह
तुम्हारी भुजाएं लड़ती रहतीं
क्षत्रिय योद्धा की तरह
राशन की दुकान में बैठे
वैश्य बनिये की तरह
फिर एक दिन दुनिया ने
तुमसे पूछा
कौन हो तुम
कौन सी जात
शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य?”
(कविता “अस्तित्व” की पंक्तियाँ)
संग्रह की कविता “नीड़” के माध्यम से कवियत्री दोनों ही परिस्थितियों को जीवन के लिए आवश्यक मानते हुए इस दुविधा में हैं कि कोयल की कूक से हर्षित मन हो या पपीहे की हूक से संतप्त हृदय, पुष्प की खुशबू से महकती साँसें हों अथवा विरह वेदना से व्याकुल आहें, पृथ्वी पर जलती हुई अग्नि की तपन हो अथवा आसमान में छाए बादलों की शीतलता। सभी प्रकृति के अद्भुत रंग हैं, तो आखिर किस स्थान को निवास के लिए सर्वश्रेष्ठ समझा जाए!
“धरती के अद्भुत अनोखे रंगों में
स्वयं को रंग डालूँ
या गगन के श्वेत और नीले रंगों से
जीवन के दिन-रात सजाऊँ।” (कविता “नीड़” का एक अंश)
“द्वार” कविता मृगतृष्णा में उलझे हुए मन को चित्रित करती है। इस कविता द्वारा कवियत्री ने इस भावना को व्यक्त किया है कि किसी के ह्रदय में स्थान पाना कितना कठिन है।
“आंखमिचौली-सा था सब कुछ
भूल-भुलैया या परियों का देश
कुछ सुंदर मकान भी थे
पर रहने को घर नहीं था।
मेरा यहाँ कोई आधार न था
किसी को मुझसे सरोकार न था
लौट आया वापस पाँव मैं
शायद यह द्वार तुम्हारे
ह्रदय का द्वार था।” (कविता “द्वार” का एक अंश)
विश्व शांति की कामना करती संग्रह की अंतिम कविता “आवाज” उस एक शब्द की प्रतिध्वनि को वर्णित करती है जो समाज में गम होता गुम होती जा रही है। कवियत्री का मानना है कि कदाचित “वह एक शब्द” अब अर्थहीन होकर पत्थरों में समा गया है। उस शब्द को पुनर्जीवित करने के लिए या तो ईश्वर को धरती पर अवतरित होना पड़ेगा, या फिर हम मनुष्यों को अपने हृदय में व्याप्त ईश्वर को साकार रूप में लाना होगा, तभी हम समझ सकेंगे कि वह मात्र एक नहीं, बल्कि दो शब्दों का समावेश था, जिसकी प्रतिश्रुति है, “शांति!शांति!”
“अब या तो स्वयं राम आएं
या तुम स्वयं राम बनो।
तुम्हारी गूँज को
फिर से प्राण मिलेंगे
वह गूँज
जिसने कदाचित एक नहीं
दो शब्द कहे थे
शान्ति! शान्ति!”
(कविता “आवाज” का एक अंश)
मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूते हुए सभी भौगोलिक सीमाओं को पार करती हुई विषयवस्तु में स्वर्ण तलवाड़ जी की कविताओं का कैनवास अति विशाल है। पौराणिक संदर्भों,  द्रौपदी के चीर हरण से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक युग के मशीनी जीवन तक यह हमें बर्मिंघम के बहुजातीय, बहुभाषीय समाज के रहन-सहन, न्यूयार्क के मैनहैटन की चहल-पहल और स्विट्जरलैंड की अद्भुत सौंदर्य से भरपूर घाटियों की सैर कराते-कराते भारत के एक छोटे से गांव में खड्डी पर बैठी रेशम की साड़ी बुनने वाली मजदूरिन के पास पहुंचा देती हैं।
स्वर्ण जी की अधिकतर कविताएं मुक्त छंद में लिखी गई हैं, किंतु लयबद्ध हैं और उनमें गीतनुमा अंदाज है। बिम्ब और प्रतीकों के माध्यम से छोटी-छोटी कविताएं सहज और सरल भाषा में गूँधे हुए कम शब्दों में अति गूढ़ भावों की अभिव्यक्ति इनकी विशेषता है। कल्पना और यथार्थ के मिले-जुले रंगों की छटा बिखेरती कविताएं पाठक को सशक्त संदेश देती हैं। सभी कविताएं अंग्रेजी में अनूदित होने के कारण अहिंदी पाठकों को भी आकर्षित करती हैं, यह इस संग्रह की उपलब्धि है। यह संग्रह “कविता कभी ना रुकना तुम…” अपने आप में अनूठा एवं संग्रहणीय है। इतने सार्थक सृजन के लिए कवयित्री बधाई की पात्र हैं। –

भावना गौड़
bhavana.gaur.888@gmail.com

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