Saturday, July 27, 2024
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अनिता रश्मि की कहानी – शर्म कैसी ?

इस घर के बरामदे जितने खुले-खुले थे, दिल भी उतना ही खुला था।
उस घर के बंद दरवाजे की ओर ताकते हुए वह अक्सर सोचता, कभी कोई फेंस के पास, खिड़कियों के पार या बरामदे में दिखलाई क्यों नहीं देता?
बेटा रौनक भी प्रायः पूछता – पापा! उनके घर के दरवाजे हमेशा बंद क्यों रहते हैं ? आगे-पीछे के दोनों दरवाजे कभी-कभार ही खुलते हैं।
शाम को इस घर का मालिक सुकेश बेटे के साथ खेलने के बाद लाॅन चेयर पर सुस्ताते हुए नज़र आ जाता। उसकी निगाहें अनायास उठ जातीं। वह उत्सुकता से उधर देखता रहता । शाम ढले शायद किसी की परछाईं ही सही…। शाम रात में बदल जाती, दरवाजा नहीं खुलता। कभी चाँदनी रात, तो कभी अमावस्या का घनघोर अँधेरा।… लेकिन वहाँ हमेशा अँधेरा ही छाया रहता। वह मच्छर मारना छोड़ अंदर चला आता।
उस मकान के दरवाजे पर लगा बड़ा सा ताला रात गहराने पर लगभग नौ बजे खुलता। सवेरे दस बजे बाहर से बंद होता।      सुकेश की ड्यूटी आठ बजे से ही शुरू होती थी। वह सात पंद्रह तक निकल जाता अपने विद्यालय के लिए। सर्दियाये दिन में आठ बजे से क्लास चलता था। अन्य समय और पहले जाना पड़ता था। तीन बजे तक छुट्टी। बच्चों के बीच रहते हुए वह बच्चों की मासूमियत को बेहद प्यार करने लगा था। सब बच्चे उसे अपने से लगते।
वह समझ भी नहीं पाया, वे आख़िर कैसे, कौन लोग हैं, कितने लोग हैं? रौशनी की लकीरें बंद दरवाजे के पार से झाँक किसी की उपस्थिति की चुगली खाती रहतीं।
शुरू-शुरू में सुकेश सोचता, झिर्रयों से झरती रौशनी की इन लकीरों के लिए उन्हें जाकर टोके – दिन भर क्यों लाइट जलाते हैं? सेव पावर।
एक बार गया था मिलने। बेल बजाई थी, तो अंदर से ही किसी ने कितनी रूखाई से कहा था,
“कौन है? क्या चाहिए?”
“कुछ नहीं चाहिए। मैं आपका पड़ोसी। बस, मिलना है। दरवाजा खोलेंगे ?”
“मुझे नहीं मिलना। जाइए वापस। न जाने कहाँ-कहाँ से…। दूसरे के घरों में ताक-झाँक करने की आदत अच्छी है?”
प्रतिप्रश्न से उदास, अपना सा मुँह लेकर उसका मिलनसार मन लौट गया था। आते ही रिया से कहा था,
“कैसे हैं ये अजनबी लोग! घर आए अतिथि के साथ कोई ऐसे विहेव करता है। इतना रूखा स्वर!”
उसी दिन लाॅन चेयर को दूसरे ढंग से सजा लिया था। तीनों कुर्सियों की बैक उस मकान की ओर।
पर उसके कान जैसे पीछे भी थे। उसे अक्सर आवाजें परेशान कर डालतीं। रौनक के साथ खेलते हुए भी,
“गों ऽऽ! गों ऽऽऽ!!”
“अरे! कोई तो अंदर छूटा रह जाता है।”
“शायद डाॅग , पापा।
सिक्कड़ के खिसकने, मेज-बर्त्तन खड़कने की आवाज़ें! वह नहीं चौंकता… आम घरों से उठनेवाली आवाज़ें ।
उसके चौंकने की वज़ह थी, बंद मकान से भी उठा करतीं थीं वे आवाज़ें!
किसी की बंद ताले के पार से उपस्थिति का आभास! फिर मन को समझा लेता, जरूर घर में कोई पेट होगा।
रिया कहती,
 “किसी के फटे में झाँकने की आदत तो तुम्हें कभी थी नहीं, फिर इस नवीन मकान में ऐसा क्या अजूबा हो गया?”
“कुछ… कुछ तो है। अजूबा ही है रिया।…अस्वाभाविक।”
“चलें अंदर? कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं है। ये फ्लैट कल्चर के लोग हैं। पड़ोस से कटे-फटे रहनेवाले लोग फेंस से घिरे बड़े क्वार्टर में आ फँसे हैं, बस!”
“इतना भी क्या कटना!… इतनी भी क्या प्राइवेसी!”
“भूल गए अपने फ्रेंड संतोष को? फ्लैट में केवल बीवी, बच्चे और मेड को जानता-पहचानता था। एक फ्लोर पर पाँच फ्लैट लेकिन किसी ने किसी का चेहरा नहीं देखा था।”
वह नहीं भूला। एकदम नहीं भूला।
संतोष के पत्नी बच्चे नाना के घर गए थे। अकेला संतोष बाथरूम में गिरकर ठीक दरवाजे तक आया और दरवाजे के पास बेहोश पड़ा रह गया। रात को फोन करने पर भी भनक नहीं लगी उसकी ऊषा को। वह दो-दिन तक आॅफिस, घर में फोन घुमाती रह गई। जब तक ट्रेन घर पहुँचाती गुमनाम सी लाश पड़ी रही दरवाजे के पास।
अब तक उसे सालती है ऐसी मौत दोस्त की।
सुकेश का मन नहीं माना। दोपहर को लौटते ही एक दिन अपने घर के बदले उस घर के फेंस की ओर बढ़ गया, अप्रत्याशित। चारों ओर की खिड़कियाँ , दरवाजे बंद। पिछवाड़े की तरफ़ बढ़ा।
“गों ऽऽ! गोंऽऽऽ!!” – फिर से वही आवाज। यह कौन सा पेट है भई। पीछे के द्वार की झिर्री से उसने आँखें जोड़ लीं।
पिछला दरवाजा एक आँगन में खुल रहा था, उसके क्वार्टर की तरह। इधर के हर क्वार्टर की तरह। आँगन का बड़ा भाग सामने था। उसके पार से बड़ा बरामदा भी झाँक रहा था। एकदम अपने घर जैसा।
पर आँगन में वहीं पड़े मेज से बँधा सिक्कड़, बड़ा सा कटोरा… लुढ़का हुआ। कटोरा भोजन से लिथड़ा पड़ा था। बरामदे पर एक बेड भी किनारे पड़ा था।
बहुत देर खड़ा रहा सुकेश सुगबुगाहट को पकड़ने की कोशिश करते हुए। कोई भी नज़र नहीं आया। अंततः वह लौट आया।
रिया सुनकर चौंकी जरूर पर इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगा उसे।
“पेट के घर में रहने पर ये सब स्वाभाविक है।”
वह शाम की तैयारियों में व्यस्त रहते हुए बस इतना ही बोली।
शाम को लाॅन में रौनक के साथ क्रिकेट खेलते हुए भी सुकेश का ध्यान वहीं था।
दूसरे दिन स्कूल से लौटने के बाद सुकेश फिर बगलगीर के पिछले दरवाजे पर। आज भी दरवाजा अंदर से बोल्ट। कुछ तो नया नहीं। थोड़ी देर बाद आज भी लौटा।
लेकिन तीसरे दिन उसने अज़ूबा देख ही लिया।
वही सिक्कड़ !… सिक्कड़ खड़का और एक चौपाया एक तरफ से सरकता दूसरी तरफ चला गया। कटोरे को उलटता हुआ। वह चौंका। उसकी आँखें झिर्री से चिपक गईं। इंट्यूशन निरंतर तंग करता रहा है उसे। चौपाया पुनः उस ओर आया। सुकेश ठीक से देख नहीं पा रहा था। थोड़ी देर ठहरकर वह वापस लौटना ही चाहता था कि चौपाया एकदम सामने आ, दरवाजे की ओर एकटक देखने लगा।
सुकेश की ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे।
एक किशोर था वह। कृशकाय। विकलांग और अर्द्धविक्षिप्त लग रहा था।
“गों ऽ ! गोंऽऽ !!” – उसके मुँह से अस्फुष्ट आवाज़ निकलने लगी फिर। सुकेश थोड़ी देर में लौट गया।
:नहीं। अब और नहीं।… मेरा इंट्यूशन एकदम सही था।”
उसी क्षण उसने ठान लिया। इस घर को अपने घर की तरह खुला, खिला बनाएगा वह। उस दिन उसने गोल-मटोल, घुँघराले बालोंवाले बेहद खूबसूरत रौनक को और प्यार किया। पप्पी से उसका मुँह भर दिया। उसके साथ देर तक खेलता रहा…खूब देर तक।
  कल पार्क के अस्सीम विस्तार में घूमने ले जाने और आइसक्रीम खिलाने का वादा भी कर लिया।
  लाॅन चेयर की दिशा फिर पूर्ववत। शाम क्षितिज के ललहुन सूर्य को विदा कह चुकी थी, वह वहीं बैठा रहा। विदा होते सूर्य ने अपना पीला, गुलाबी दुप्पटा समेट लिया, वह वहीं बैठा रहा। रात का ख़ामोश अँधेरा गहराने लगा, वह बैठा रहा। रिया तीन-चार बार अंदर आने का निमंत्रण दे चुकी थी। उसने उतनी ही बार हाथ के इशारे से मना कर दिया। वह टकटकी लगाए उधर ही ताकता रहा, जिधर फेंस के पार ठीक उसके अपने क्वार्टर की तरह एक और क्वार्टर है। हर कुछ एक जैसा लेकिन कुछ अनजाना… अनचीन्हा !
     नौ बजे दो सायों को जैसे ही उसने फेंस पार करते देखा, वह उठ गया। साए बरामदे की ओर बढ़े, वह लपकता वहाँ जा पहुँचा। वे दरवाजा खोलकर अंदर दाखिल हो रहे थे, अंदर से किलकारी की आवाज़ आने लगी थी। सिक्कड़, मेज के खिसकने की भी।
स्त्री आगे बढ़ गई थी। मर्द भी किवाड़ भिड़का आगे बढ़ा।
“संजू, डोर बंद करो।”
एक स्त्री स्वर सुना सुकेश ने, जब वह दरवाजे से अंदर प्रवेश कर रहा था। स्त्री ने आहट से चौंककर पीछे देखा। देखती रह गई अपलक… विस्फारित नेत्रों से। पुरुष अपने बैग को टेबल पर रख, उस पतले-दुबले विक्षिप्त से किशोर के सर पर हाथ फेर रहा था। गोरे लेकिन झँवलाए किशोर की नज़र सुकेश पर पड़ी। वह किलकने लगा।
“संजू, इसने तंग तो नहीं किया। खाना खाया था?”
पास ही खड़ी एक अधेड़ महिला से वह पूछ रहा था। उसका ध्यान अंदर घुस आए अजनबी आगंतुक की ओर एकदम नहीं था। फिर अचानक वह पलटा।
सब हतप्रभ थे… सब, सुकेश पर ध्यान जाने के बाद से। दोनों पति-पत्नी कुछ देर गुस्से, शर्मिंदगी, अफ़सोस से सुकेश को देखते रहे। फिर पहले पति की नज़रें नीची हुईं, तब पत्नी की। वे निगाहें झुकाए सुकेश की नज़रों से जैसे बच जाना चाह रहे थे।
   सुकेश ज्यादा देर वहाँ नहीं रुका। एक निगाह उस बेतरतीब कमरे पर डाली। सबके उदास, लज्जा से झुके चेहरे को देखा। आगे टी. वी. स्टैंड के पास गया, ठिठका और फिर बाहर।
इस बीच उसने ना एक शब्द उनसे कुछ कहा, ना पूछा। लौटते हुए एक निगाह उन लोगो पर पुनः डाली थी, बस!
“अरे! यह कागज कैसा? रितेश, उसने रखा है।”
 पत्नी ने साश्चर्य कागज उठाया। पढ़ा। उसकी आँखें नम हुई। हाथों में थरथराहट सी भर गई।  उसने काँपते हाथों से खत पति की तरफ बढ़ा दिया। पति ने भी पढ़ा। विचलित हुआ। फिर दोनों ने साथ में पढ़ा। वह बेजान कागज नहीं, एक पत्र था… जीवंत, कुछ बोलने को आतुर।
खत में लिखा था –
कुछ गुम जाने से ये जीवन खत्म नहीं हो जाता दोस्त। जीवन तो चलता ही रहता है। आप चलो, ना चलो…. वह रूकेगा नहीं। फिर हम क्यों रूक जाएँ!
   तुम्हें क्या हक है, किसी मासूम को उसके अनकिए अपराधों की सजा दो ?
इसे इसके हिस्से की धूप, हवा, पानी लेने दो। फिर देखना, यह कैसे फलता-फूलता है । कुदरत के इस खेल में तुम्हारा, इसका या किसी भी मनुष्य का क्या दोष?
क्यों बाँधकर रख दी इस कोंपल की बढ़त ?
फिर… फिर पूछता हूँ, हक है तुम्हें? किस सदी में जी रहे हो? बाहर निकलो तो सही।
तुम्हारे एक हमदर्द पड़ोसी ने तुम्हारे दर्द को जानने की ज़ुर्रत की है। अंदर से आनेवाली किलकारी या आह की आवाज़ की अनदेखी नहीं कर सका वह। क्षमाप्रार्थी !
पड़ोसी के घर का गेट तुम लोगों के लिए सदा खुला है। मेरा बेटा रौनक भी अभी छोटा है। खेलने-कूदने की उम्र है उसकी। तुम्हारे बेटे की भी। रौनक तुम्हारे बेटे का इंतज़ार करेगा। आओगे ना?
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