Sunday, October 27, 2024
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समाज, परम्परा और स्त्री चेतना का गुम्फ़न है ‘सीता पुनि बोली’

सीता जिसे आप और हम ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया माता सीता के नाम से जानती हैं। जी मैं मर्यादा पुरुषोत्तम की धर्मपत्नी और राजा जनक की मानस पुत्री तथा धरती से जन्म लेने वाली बेटी माता सीता की बात कर रहा हूँ। जिसे अयोनिजा भी कहा जाता है। मिथिला की उसी बेटी, पुत्री पर गोवा राज्य की राज्यपाल रही चुकी राजनेता एवं लेखिका मृदुला सिन्हा ने सीता पर उपन्यास लिखा जिसे माता सीता की आत्मकथा, जीवनी भी कहा जा सकता है। हालांकि मैं इस तरह के किसी भी विवाद में नहीं फंसना चाहता कि इसे किस तरह की कृति माना जाए या किस तरह की नहीं। जिसकी जो इच्छा हो उस तरह की कृति इसे मान सकता है। खैर इस उपन्यास की शुरुआत में लेखनी के बोल शीर्षक से भूमिका में स्वर्गीय मृदुला सिन्हा लिखती हैं “जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की सहधर्मिणी, दशरथ और कौशल्या की अत्यंत प्रिय पुत्रवधु, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की माँ सदृश भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक सम्बन्धों में बंधी सीता की स्मृति त्रेतायुग से प्रवाहित होती हुई आज भी जन-जन के हृदय और भारतीय मानस में रची-बसी है। उसके सत को अपनी पूँजी के रूप में संजोकर रखा है।”1  
यह सच है कि त्रेतायुग की इस पुत्री को आज भी विश्वभर ने अपने हृदय से लगाकर रखा है उसका कारण एकमात्र सीता का व्यक्तित्व है। जिसके सामने एक बार के लिए श्री राम  जो मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाते हैं वो भी उनसे व्यक्तित्व में बौने दिखाई देने लगते हैं। हालांकि कुछ वामपंथी विचारधारा के या कहें मतिभ्रष्ट तथा नास्तिक लोग श्री राम के अस्तित्व को ही नकारने में लगे हुए हैं। नास्तिक लोग अगर श्री राम के व्यक्तित्व या उनकी त्रेतायुग में उपस्थिति को नकार भी दे तो एकबारगी मान लिया जाएगा। क्योंकि उनके भीतर आस्तिकता का वास नहीं है और जो व्यक्ति आस्तिक ही नहीं वह राम या उनकी पत्नी सीता ही नहीं अपितु ईश्वर की सत्ता को ही नकार रहा होता है। जिस तरह पश्चिम के विद्वान ने घोषणा की थी कि “ईश्वर मर चुका है।” वह घोषणा करने वाले विद्वान थे ‘नीत्से।’
इस उपन्यास को लेखिका ने उत्सवों के रूप में बाँटा है। उनके लिए सीता के जीवन का हर एक पहलू या उनका सम्पूर्ण जीवन एक नए आश्रम में प्रवेश  करने जैसा है। इसकी शुरुआत वे सीता के जन्म से करती हैं और नाम देती हैं ‘मिथिलोत्सव’ इन उत्सवों को भी आगे अध्यायवार बाँटा गया है। मिथिलोत्सव से शुरू हुआ सीता का जीवनवृत उनके धरती में समाने तक चलता है। धरती की पुत्री धरती में ही महाप्रयाण कर जाती है सम्भवतः इसीलिए इस खंड का नाम महाप्रयाण रखा गया है। सीता के जन्म लेने, उनके प्रतिपल बड़े होने, राज दरबार में जाने, अपने सुझाव वहाँ प्रस्तुत करने, घुड़सवारी करने, युद्ध कौशल में पारंगत होने आदि जैसे कई चित्रण इस कृति में है जो पढ़ते हुए साकार हो उठते हैं और लगने लगता है जैसे हम भी माता सीता के दौर में विचरण कर रहे हैं। उनके साथ वे सब काम कर रहे हैं या उनके कामों में शरीक हो रहे हैं जो वो कर रही हैं। इस उपन्यास में नायक कल्पना, स्त्री विमर्श, पारिवारिकता एवं उसका समृद्ध समायोजन, राज दरबार, युद्ध का मैदान, विभिन्न मूल्यों की अवधारणा आदि शामिल हैं। 
सीता के ममत्व और करुण हृदय का परिचय भी हमें इस कृति में मिलता है। जब ऋषि वाल्मीकि के श्लोक जो अनुष्टुप छंद में  है, का उच्चारण वे करते हैं। 
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।”2 
इस श्लोक को कहने कारण यह है कि उपन्यास में निहित कथा के अनुसार जब आश्रम में उनके बच्चे लव और कुश बड़े हो रहे होते हैं, तब ऋषि वाल्मीकि राम के जीवन चरित को रामायण का नाम देकर उसे पूर्ण करने में जुटे हुए होते हैं। उस समय सीता और वाल्मीकि में संवाद होता है और वाल्मीकि अपनी कृति को लेकर कहते हैं कि, जब श्री राम आपको ससम्मान अपने दोनों पुत्रों सहित आपको अयोध्या ले जाएंगे तो मेरी कृति पूर्णता को प्राप्त हो जाएगी। उस समय सीता के मन में विचार उठता है और वे चाह कर भी ऋषि वाल्मीकि से नहीं कह पातीं। वे कहना चाहती हैं कि आपकी ये रामायण कभी पूरी नहीं होगी। ऋषि वाल्मीकि को राम की जीवन यात्रा के भीतर धैर्य, साहस, ममता, क्रांति, वीरता, कृतज्ञता आदि सभी के गुणों का प्रस्फुटन दिखाई देता है। इस संवाद के दौरान और उससे पूर्व भी हमें सीता के भीतर ममत्व के दर्शन होते हैं। खास करके तब जब वे वेदों के ज्ञाता, महान भक्त किन्तु आततायी लंकेश्वर रावण के महल में अपहृत करके लाई जाती हैं। उस समय अशोक वाटिका में भी वे राक्षसियों के बीच रहती हुई अपना ममत्व बरकरार रखती हैं। इसका प्रभाव कुछ राक्षसियों पर भी पड़ता है और वे द्रवित हों उठती हैं। 
समाज में, परिवार में किस तरह का आचरण करना चाहिए उसकी झलकी भी इस कृति में दिखाई देती है। जब राजा जनक धनुष प्रत्यंचा जैसा कठिन व्रत, संकल्प लेते हैं तब श्री राम उस शिव धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हैं और राजा जनक की प्रतिज्ञा ही नहीं बल्कि स्वयं की वीरता एवं आचरण, व्यवहार का परिचय भी कराते हैं। विवाह के पश्चात जब सीता राम से ब्याहकर अवध में आती हैं, तो वहाँ भी उत्सव मनाया जाता है। लेकिन कुछ दिनों बाद जब राजा दशरथ अपने बड़े पुत्र राम को राजा बनाने की घोषणा करते हैं। राज्याभिषेक से पहले रात को मंथरा द्वारा कैकयी को दिग्भ्रमित करने पर कैकयी राजा दशरथ के पास जाती है और उनसे उस वचन को पूर्ण करने का कहती है जो कभी दशरथ ने उसे दिया था। फिर अगले दिन, भरे मन से राजा दशरथ राम के बजाए भरत को राजगद्दी सौंप देते हैं और अपने बेटे राम को वनवास पर भेज देते हैं।
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2 टिप्पणी

  1. अच्छा लगा पढ़कर। मृदुला जी के माता सीता के प्रति उनके विचारों को समझकर।
    वैसे राम को हमने जितना पढ़ा, सुना, समझा और जाना है। रामचरितमानस की हर एक चौपाई अनेकार्थी है और विशेषज्ञ एक-एक चौपाई पर धारा प्रवाह कई-कई दिनों तक बोल लेते हैं।
    जिन्हें न मानना हो वे राम को न मानें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जो मानते हैं वह उनकी ताकत को पहचानते भी हैं।
    हमारे यहाँ काफी लंबे समय से रामलाल शर्मा व्याख्यान माला होती है जो 5 दिन चलती है। विषय राम ही रहते हैं जो भी विशेषज्ञ संत आते हैं राम पर धारा प्रवाह 3 घंटे बोलते हैं उन्हें रामचरितमानस की कोई एक चौपाई दे दी जाती है जिस पर उन्हें प्रतिदिन2या 3 घंटे के हिसाब से 5 दिन तक प्रवचन देना होता है।
    राजेश्वरानंद जी पहले राजेश मोहम्मद रामायणी के नाम से बोला करते थे। बाद में राजेश्वरानंद हो गये।वे संगीतकार और गायक भी थे। 7 वर्ष की उम्र से उन्होंने राम की आराधना शुरू की थी।
    अभी 2 वर्ष पूर्व ही उन्होंने महाप्रयाण किया। रायपुर में ही प्रवचन के दौरान उनका हार्ट अटैक हो गया था ।
    आप उन्हें यूट्यूब पर सुन सकते हैं हनुमान चालीसा की उन्होंने इतनी बढ़िया व्याख्या की है जो कई भागों में है आप सर्च करके एक भाग से सुनिए तो हनुमान चालीसा का महत्व समझ में आता है। पूरे रामचरितमानस पर उनके वीडियो है
    अच्छा लगा पढ़कर।
    मृदुला सिन्हा जी को बधाई।
    तेजस पूनिया जी का शुक्रिया

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