Sunday, October 27, 2024
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दीपक शर्मा की कहानी – आधी रोटी

अतिथियों में सबसे पहले सलोनी आंटी आई हैं।
साढ़े बारह पर।
हालाँकि अपने विवाह की इस पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर पापा ने इस क्लब में लंच का आयोजन एक से तीन बजे तक का रखा है।
’’पहली बधाई हमारे मेजबान की बनती है या उसके ममा-पपा की ?’’ निस्संकोच उन्मुक्त भाव से वह अपना गाल मेरे गाल पर ला टिकाती हैं।
अतिथियों को निमन्त्रण-पत्र मेरी ओर से गए थे, जिस कारण अपनी नौकरी से दो दिन की छुट्टी लेकर मैं इधर आज सुबह पहुँच लिया था।
’’बधाई तो हम सभी की बनती है,’’ आंटी की बाँहों के फूल माँ अपनी बाँहों में सँभाल लेती हैं। उनके संग मर्यादा बनाए रखने में माँ निपुण है।
’’मी फर्स्ट, फिर शुरू हो गई,’’ पापा बुदबुदाते हैं। माँ की बोली कोई भी बात उन्हें बर्दाश्त नहीं।
’’आपने कुछ कहा क्या ?’’ माँ पापा को घूरती हैं।
’’तुमसे कुछ नहीं कहा। सलोनी से कहा। आधी रोटी से मैं पच्चीस साल निकाल ले गया,’’ पापा कटाक्ष छोड़ते हैं।
’’रोटी आधी मिले तो अपनी भूख कम कर देनी चाहिए,’’ अपनी कड़वाहट को बाहर लाने का कोई भी अवसर गँवाना माँ को गँवारा नहीं।
’’ताकि भूख हमें निगल जाए,’’ माँ का तर्क विध्वंस करना पापा का पुराना शौक है।
’’आप क्या लेंगी, आंटी?’’ माँ और पापा के जवाबी हमलों से व्याकुल होकर मैं आंटी की ओर मुड़ लेता हूँ।
’’सलोनी मेरे साथ बार पर जाएगी,’’ पापा उनका हाथ पकड़कर कदम भरते हैं।
आई.आर.एस. के अंतर्गत आंटी पापा की बैच-मेट हैं। और दीर्घकालीन प्रियोपेक्षिता भी। बल्कि दोनों की घनिष्ठता को लेकर गप्पी कुछ लोग आंटी के तलाक के लिए पापा ही को उत्तरदायी मानते हैं। किन्तु सच जानने वाले जानते हैं अपने व्यवसायी पति से आंटी का तलाक उन्हीं के कार्यकलाप का परिणाम था। पापा का उससे कोई लेना-देना नहीं था। आंटी ने वह तलाक अपनी इकलौती लावण्या के जन्म से भी एक माह पूर्व लिया था जबकि पापा के संग उनकी घनिष्ठता लावण्या की आयु के पाँचवें वर्ष शुरू हुई थी जब वे पहली बार हमारी पड़ोसिन बनी थीं।
’’और हमारा जवान मेजबान ?’’ आंटी मेरी ओर देखती हैं, “आज भी हमारा साथ नहीं देगा ? अपनी माँ से चिपका रहेगा?’’
’’उसे बार से ज्यादा अपनी माँ पसन्द है,’’ पापा हँसते हैं, ’’हमीं चलते हैं…..’’
’’बार से ज्यादा माँ को पसन्द करे तो कोई बात नहीं, मगर बीवी से ज्यादा माँ को पसन्द करेगा तो मुश्किल होगी,’’ आंटी भी हँस दी हैं।
’’वह कल वापस जा रहा है,’’ माँ झेंप जाती हैं, ’’इसलिए मेरे पास बैठेगा….’’
’’चलो, हम चलते हैं,’’ पापा अपनी नज़र में मुझे लेकर माँ की ओर संकेत करते हैं। उन्हें मालूम है कि मैं तलवार की धार पर चल रहा हूँ। माँ को लावण्या के लिए तैयार करना सिर पर तवा बाँधने से कम नहीं।
’’चलो,’’ आंटी पापा को आगे बढ़ा ले जाती हैं।
’’सलोनी सोचती है तुम उसकी लेज़ी-बोन्ज़ से शादी कर लोगे,”मां भुनभुनाती हैं। लावण्या को मां शुरू ही से लेज़ी- बोन्ज़ पुकारती रही हैं। सत्ताईस वर्ष की अपनी नौकरी के दौरान आंटी दो बार हमारे पड़ोस में रह चुकी हैं। पहली बार लावण्या के पाँचवें वर्ष में और दूसरी बार उसके पंद्रहवें वर्ष में ।
’’केवल सोचती ही नहीं मुझसे इस विषय में बात भी कर चुकी हैं,’’ माँ के साथ मुझे अब तह खोलनी ही है। उधर जब से लावण्या मेरे शहर में अपनी मैनेजमेंट की पढ़ाई करने आई है, उसने मुझसे दोबारा संपर्क स्थापित कर लिया है। पहले से कहीं ज्यादा अंतरंग। और उसकी खुली बाँहों में मुझे अब अपना स्वप्नलोक साकार होता दिखाई देता है।
’’नहीं जानती होगी, तलाकशुदा किसी भी माँ की बेटी मेरी बहू नहीं बन सकती,’’ माँ मेरी बाँह झुला देती हैं। उनके लाड़ का यह तुरंत वितरण है।
’’आप तलाक को इतना बुरा कब से मानने लगीं ? एक जमाने में आप भी तो तलाक लेने की सोचती रही हैं।’’
माँ को मैं अपने बचपन में ले जाता हूँ। जब अपना नया ग्रेड पाने पर उन्होंने मुझे कुछ ऐसा संकेत दिया था।
’’लेकिन तलाक लिया तो नहीं न! जब तुम्हीं ने कहा, कुछ भी हो, माँ, यह घर छोड़कर तुम कभी मत जाना। तो फिर मैंने घर छोड़ा क्या ?’’
उन दिनों पापा लगभग रोज ही माँ को घर छोड़ने के लिए बोला करते और मैं हरदम डरा रहता। स्कूल से लौट रहा होता तो डरता, माँ मुझे घर पर न मिलीं तो? किशोरावस्था में भी अपने होस्टल जाते समय माँ से विदा लेता तो डरता कहीं यह अंतिम विदाई तो नहीं? उधर होस्टल में अखबार या टी.वी. पर किसी भी स्त्री की आत्महत्या का समाचार देखता तो डरता, कहीं यह स्त्री माँ ही तो नहीं?
’’और अगर मैं ही आज बोलूँ आप तलाक ले लो? आजाद हो जाओ? दिन-रात के इस कलह-क्लेश से छुट्टी पा लो? ऐसे बँधे रहने से किसे लाभ हो रहा है? आपको? पापा को? या मुझे?’’
’’लाभ तो सभी को हो रहा है,’’ माँ गम्भीर हो जाती हैं, ’’मेरे पास अनाक्रान्त सुरक्षा है, तुम्हारे पापा के पास एक सुव्यवस्थित घर-द्वार और तुम्हारे पास स्वीकार्य एक अक्षत परिवार..’’
’’लेकिन आजादी तो नहीं?’’ मैं फट पड़ता हूँ ।
’’तुम्हारे पास आजादी नहीं?’’ भौंचक्क होकर माँ मेरा मुँह ताकती हैं।
“मैं कहां आज़ाद हूं? पापा आप के नियंत्रण में नहीं,सो मुझे आप के नियन्त्रण में रहना चाहिए। पापा को आप अपने अधिकार में नहीं रख पातीं सो मुझे आपके अधिकार में रहना होगा। पापा आपको भावात्मक सम्बल नहीं देते सो मुझे अपनी टेक आपको देती रहनी चाहिए ….’’
’’उधर तुम उसकी बेटी से घुल-मिल रहे हो ?’’ माँ चौंक जाती हैं। वे बूझ ली हैं उनकी इस नकारात्मक भूमिका की ओर मेरा ध्यान लावण्या ही ने दिलाया है।
’’हाँ,’’ माँ के सामने झूठ बोलना मेरे लिए असम्भव है।
’’उससे शादी करोगे ?’’
’’हाँ, ’’ झेंप में मैं उन्हें अपनी बाँहों से घेर लेता हूँ।
’’तुम्हारे पापा को मालूम है ?’’
’’हाँ,’’ मेरी झेंप बढ़ गई है।
’’और वे राज़ी हैं ?’’ माँ मेरी बाँहें मुझे लौटा देती हैं।
’’क्यों नहीं राजी होंगे ? लावण्या के विरूद्ध कौन आपत्ति करेगा ?’’ आत्मरक्षा के लिए समाक्रमण अब अनिवार्य हो गया है।
’’मुझे पर्सोना नोन ग्रेटा (अस्वीकार्य व्यक्ति) बनाए रखने की इससे अच्छी योजना और क्या हो सकती थी ? चाहते रहे होंगे कि इस बार भी मुझे दावत मिले तो तलवार ही की छाहों में मिले। डेमोक्लीज़ की तरह….’’
यूनानी एक किंवदन्ती के अनुसार ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के सिराकूज़ राज्य के राजा डाएनौएसियस प्रथम को डेमोक्लीज़ नाम के एक खुशामदी ने जब संसार का सर्वाधिक सौभाग्यशाली व्यक्ति घोषित किया तो राजा ने अपने सौभाग्य को अस्थिर एवं अनिश्चित सिद्ध करने के लिए उसे अपनी दावत में बुलवा भेजा। और जब डेमाक्लीज़ खाने बैठा तो उसके सिर के ऐन ऊपर एक तलवार लटका दी। एकल बाल के सहारे । जो उस पर कभी भी गिर सकती थी।
’’आपके साथ यही मुश्किल है, माँ। सीधी रस्सी को चक्कर खिलाकर ऐसे उमेठने लगती हैं कि फिर उसकी गाँठ खुलते न बने,’’ मेरा धैर्य टूट रहा है।
’’तुम उनकी बोली मुझसे बोलोगे तो भी मैं जाने रहूँगी वे लोग तुम्हारा ’पर्सोना’ रूपान्तरित कर सकते हैं मगर तुम्हारा ’एनिमा’ नहीं…’’
माँ इस समय कार्ल युन्ग के उस प्रारंभिक सिद्धान्त की शब्दावली प्रयोग कर रही हैं जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति का ’पर्सोना’ उसका वह सार्वजनिक चेहरा होता है जो वह अपने समाज के दबाव में दूसरों के सामने लाता है और ’एनिमा’ उसके मानस का वह आन्तरिक रूप है जिसे उसके अवचेतन के सत्व रचते हैं।
’’फिर वही कोडिफिकेशन ! वही संहिताकरण ! आप जानती नहीं आपके ये क्लासरूम संदर्भ और प्रसंग दूसरों में कितनी खीझ पैदा करते हैं, कितनी चिढ़….’’
’’तुम भी उन दूसरों में शामिल हो क्या ?’’माँ मुझे चुनौती देती हैं, ’’जो चरखी से मेरे सूत तार-तार उतारने में लगे रहते हैं ?’’
सरपट दौड़ रहे अपने घोड़ों पर मैं चाबुक फटकारता हूँ। उन्हें पोइयाँ में डालने हेतु।
’’आप जिन्हें ’दूसरे’ कहती-समझती हैं वे ’दूसरे’ नहीं हैं, माँ। और न ही वे सूत उतारने में लगे हैं। बल्कि वे तो सूत समेटना चाहते हैं। रिश्तों के बखिए उधेड़ने की बजाय उनमें चुन्नट डालना चाहते हैं…’’
’’तुम्हारी समझ का अन्तर मैं स्वीकार कर सकती हूँ किन्तु तुम्हारी समझ नहीं,’’ माँ अपने मंच पर ऊपर जा खड़ी हुई हैं। अशक्य एवं अविजित।
’’आप गलत लीक पकड़ रही हैं, माँ,’’ मैं उनके गाल चूमता हूँ-यह मेरे खेद-प्रकाश का अभिव्यंजन भी है और उन्हें फुसलाने का भी-’’लावण्या और सलोनी आंटी एक नहीं हैं। लावण्या तो आपको आंटी से भी ज्यादा मान्यता देती है, ज्यादा आदर-सम्मान । ज्यादा मान्यता देगी भी, ज्यादा आदर-सम्मान….’’
’’तुम उसे बहुत चाहते हो ?’’ माँ के चेहरे का रंग बलाबल चढ़-उतर रहा है।
’’हाँ , माँ….’’
’’फिर तुम जरूर उससे शादी करो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।’’
’’थैंक यू,’’ माँ का गाल मैं दोबारा चूम लेता हूँ।
अतिथियों के पधारने से पहले लावण्या को अपनी विजय-सूचना से अवगत कराने हेतु मैं अपने मोबाइल के साथ क्लब के हाल से बाहर निकल आता हूँ।
’’ज़िन्दा है ?’’ बार की शीशे की दीवार से पापा मुझे चिन्हित करते ही मेरे पास आ पहुँचते हैं।
’’कौन पापा ?’’ मेरा स्वर तीता हो लेता है।
माँ के लिए पापा का परोक्ष संकेत मुझे ठेस पहुँचाता है।
’’वही, तुम्हारी जल्लाद माँ!’’ पापा ठठाते हैं।
’’माँ जल्लाद नहीं है ,’’ मेरी आँखें गीली हो रही हैं।
’’मतलब ? वह राज़ी हो गई है ?’’
’’हाँ पापा….’’
’’मतलब? आज के लंच को डबल सेलिब्रेशन बना दें? लगे हाथ तुम्हारी सगाई की घोषणा भी कर डालें?’’
’’हाँ पापा…..’’
दीवार-घड़ी एक बजाने जा रही है।
दीपक शर्मा
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क – [email protected]
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