Saturday, July 27, 2024
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शालिनी कपूर का संस्मरण – साईकिल का जिन्न

जनवरी की सर्दियों के दिन थे। दिन में भी धूप के दर्शन बमुश्किल होते और सुबह-शाम इतनी ठंड होती कि स्वेटर के साथ शॉल के बाद भी हाथ-पाँव ठंडे हुए जाते। तब ये हवा को रोकने वाले जैकेट चलन में नहीं आये थे। बड़ी बहन ने घर से थोड़ी ही दूरी पर एक कोचिंग सेंटर जॉइन किया था और यह जरूरी भी था क्योंकि वह विज्ञान की छात्रा थी। जी.जी.आई.सी. की पढ़ाई तब ऐसी हरगिज नहीं थी कि ट्यूशन के बिना छात्र अच्छे नम्बरों से पास हो जायें। बारहवीं तक के सरकारी स्कूलों का हाल अभी-भी वही है जो पहले था। गाँव और छोटे कस्बों में कुकुरमुत्ते की तरह उगते चार-छह कमरों के ‘पब्लिक स्कूलों’ में माता-पिता जिस तरह अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा बच्चों की अच्छी शिक्षा के नाम पर होम कर रहे हैं; वह किसी से छुपा नही है। हाल तो ये है कि प्राइवेट स्कूलों के बच्चे भी प्राइमरी ना सही लेकिन छठवीं -सातवीं से ही ट्यूशन/कोचिंग के चक्कर मे हलकान होते रहते हैं।
नब्बे के दशक में ज्यादातर लड़कियाँ या लड़के भी साईकिल से ही स्कूल/कॉलेज आते जाते। कुछेक के पास ही बाइक या स्कूटर होता था। सुबह के नौ बजे दीदी साईकिल से कॉलेज जाती और अगर कभी क्रॉसिंग के जाम में ना फँसी तो कम से कम साढ़े तीन पौने चार बजे तक घर आकर कभी-कभार खाना खाकर कोचिंग के लिए निकलती। कमोबेश सभी का यही हाल था, सुबह का नाश्ता छूटना और दोपहर के टिफिन के बाँट- बूँट वाले हिसाब के बाद शाम का खाना भी मुश्किल से ही नसीब होता। तब कोचिंग स्टेटस सिम्बल नही हुआ करता था, बेहद जरूरत होने पर ही कोचिंग का रुख किया जाता था।
मैं ठहरी औसत छात्रा, जैसे-तैसे पास होने वाली तो विज्ञान के बजाय कला को वरीयता देकर मैंने दूसरे इंटर कॉलेज में एडमिशन लिया। मुझे अपने स्कूल सुबह सात बजे जाना होता था। पूरे साल यही समय रहता था ऐसा नहीं कि गर्मियों में सात बजे और सर्दियों में नौ बजे हो जाये। स्कूल का कैम्पस छोटा होने के कारण नौवीं से लेकर बारहवीं तक की कक्षाएँ सुबह सात से दोपहर 12 बजे तक चलतीं और छठवीं से आठवीं तक की कक्षाएँ दोपहर साढ़े बारह से साढ़े पाँच तक चलती थीं। गर्मियों के लिहाज से तो यह समय अच्छा था लेकिन सर्दियों में बुरा हाल हो जाता था। पौने सात बजे घर से निकलती तो सुनसान सड़क पर इक्का-दुक्का गाड़ियाँ नज़र आतीं। मेरे घर से तो तब भी स्कूल 15-20 मिनट की दूरी पर था लेकिन सगरपाली और और उसके भी आगे से आने वाली लड़कियों की हालत खस्ता हो जाती। सलवार-कमीज के ऊपर दो-दो स्वेटर, मोजे और कपड़े की जूती पहने वह चेहरे को लगभग पूरा ढंककर ही आती थीं स्कार्फ के ऊपर से मफलर लपेटे होने पर भी वह ठंड से काँप रही होतीं। साईकिल चलाना दूभर हो जाता, ग्लव्स शायद ही किसी के हाथ में होता था। धुन्ध की वजह से रास्ता ठीक से दिखता नहीं था इसलिए साईकिल की रफ्तार धीमी रखनी पड़ती और अगर कभी रफ्तार बढ़ाने का दुस्साहस कर भी लिया तो ठण्डी हवा बदन में सुइयां चुभोने लगती। हाथ ठंड से अकड़कर ब्रेक लगाने से इनकार कर देते, पैर के अंगूठे ऐसे अकड़े महसूस होते कि जरा सी ठोकर लगे तो बर्फ के टुकड़े की तरह बिखर जाये; स्कूल पहुँचने तक ओस की बूंदें मफलर और स्कार्फ के कोने पर बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़ों में चमकते दिखते। घुटने बिचारे सीधा होने में इतना वक्त लेते कि गठिया के मरीज का-सा भ्रम होने लगता। स्कूल में भी अलाव की कोई व्यवस्था नहीं होती थी, ऐसे में लड़कियां एक-दूसरे की हथेलियों को रगड़कर थोड़ी गरमाहट पहुंचाने की कोशिश करतीं। स्कूल में निचले कमरों की हालत ऐसी कि दिन में भी लाइट जलाने पर ही कुछ नज़र आता था।
सड़क किनारे कहीं-कहीं कुछ लोग आग तापने के लिए अलाव जलाकर घेरे में बैठे रहते। कभी कोई बाइक सवार या साईकिल सवार रुककर थोड़ी देर उस गरम अलाव के आगे बैठकर खुद को आगे के सफर के लिए तैयार कर लेता लेकिन लड़कियों के लिए यह सुविधा कभी नहीं रही। आज भी मैंने शायद ही किसी महिला को किसी चाय की गुमटी पर अकेले चाय पीते देखा हो। सोचती हूँ कि आख़िर यह लड़कियां क्यों इतनी दूर तक तमाम तकलीफें झेलकर पढ़ने आती थीं जबकि पढ़ाई के नाम पर बस खानापूर्ति ही होती थी। सुबह के चार बजे जब गाँव के कुकुर- बिलार भी चुपचाप अपने कोने में दुबके पड़े रहते थे, यह लड़कियां उसी वक्त घर का आँगन बुहार, चूल्हा चौका चमकाकर, गाय- भैंस का सानी-भूसा कर कभी कभार मुँह जुठारे बिना ही घर से निकल आती थीं। जबकि अच्छी तरह जानती थीं कि ‘इस तरह की पढ़ाई’ का कोई मतलब नहीं है। नौकरी का शायद ही किसी ने सोचा होगा।
फिर भी बिना नागा वह रोज चली आतीं। इस आने- जाने के क्रम में वह कितनी बातें कितने, डर और दर्द वह अपने सीने में छुपाये रखतीं इसका तो अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। लगभग सात-आठ किलोमीटर का रास्ता सिर्फ भूखे पेट और थके शरीर के साथ ही नही पार होता था, उसके साथ जान को चिमटा वह लांछन भी तो था जो न जाने कितनी लड़कियों को घर नाम के क़ैदख़ाने में कैद कर चुका था। जहाँ से उनकी रिहाई नहीं होती थी, तबादला होता ससुराल नाम के क़ैदख़ाने में। किसी मनचले ने पीछा किया, किसी ने छिछोरे ने कोई जुमला उछाल दिया, कि सीटी मार दी, इन सबकी वजह लड़कियां बनतीं, दोष सिर्फ उन लड़कियों का होता। दूर से आने वाली लड़कियाँ अक्सर झुंड में आती थीं क्योंकि उन्हें पता था ‘ शिकारी दल’ अकेले पर ही झपट्टा मारने में तेज था। फिर भी इतने जतन करने के बाद भी कभी कोई लड़की शिकार हो ही जाती और उसके बाद हम उसे और वह हमें कभी न देखने को अभिशप्त हो जाते।
स्कूल की बन्द चारदीवारी के भीतर भी वह जैसे जी उठतीं। हँसी और खिलखिलाहट से दरोदीवार गूँज जाते। अध्यापिकाएँ छत पर जाने से रोकने के लिए अनुशाश्नात्मक कार्यवाही की धमकी देतीं लेकिन लड़कियां थीं कि गौरैया बन जाने कब मुंडेर से झाँक लेतीं। किशोरावस्था के बदलावों और तमाम बंदिशों के बाद भी ये झरोखे खोज लेतीं जहाँ से दुनिया की रंगीनी देख सकें। आँखों में कुछ वक्त को ही सही, इंद्रधनुष के रंग भर जाते और उस पल वह दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़कियाँ होतीं; क्योंकि उस वक्त वो सिर्फ खुद की होतीं, खुद से प्यार करती हुई।
घटना लगभग 26 साल पुरानी है, साल 1997। दीदी चार बजे कोचिंग जाती और घर आते-आते शाम के साढ़े सात आठ बजे जाते। हमारे घर तक आने के दो रास्ते थे। एक रास्ता छोटी-सी पतली लगभग दो फीट चौड़ी गली से होकर गुजरता था, जहाँ से हम दो-तीन मिनट में ही मुख्य सड़क तक पहुंच जाते। दूसरा रास्ता थोड़ा लम्बा था जिधर से गाडियों के आने का रास्ता था और मुख्य दरवाजे तक पहुँचने का भी। मुख्य सड़क से उतरकर लम्बे चौड़े कच्चे रास्ते पर थोड़ा आगे बढ़ते ही बाईं तरफ एक मस्ज़िद थी जो ईद , शबेबरात के वक्त ही रौशन नज़र आती वरना आसपास रहने वालों की बकरियाँ वहाँ घास चरती दिखतीं। हाँ, शाम के समय एक दीया जरूर कोई रोज जलाकर बाहरी आले पर रख जाता था। मस्जिद के दूसरी तरफ कब्रिस्तान था और इसी मस्जिद कब्रिस्तान के बीच से वह कच्चा चौड़ा रास्ता था जिसकी  मिट्टी ऐसी कि जरा-सी बरसात हुई तो रास्ता  एकदम फिसलनपट्टी में बदल जाता कि चाहे जितना भी सम्हलकर, बचकर चले बन्दा फ़िसलकर गिर ही जाता। जो सही-सलामत घर तक आ गया, वह उसकी अच्छी किस्मत। वहाँ से आगे बढ़ने पर  बाईं तरफ रेलवे लाइन के करीब बना ‘आछी बाबा का मज़ार’ दिखने लगता और दाहिनी तरफ दो-चार घरों के बाद मदरसा और मदरसे के थोड़ा-सा आगे हमारा छोटा-सा घर।  बलिया और उसके आसपास वाले लोग मजार के बारे में जरूर जानते होंगे। शुक्रवार को वहाँ बहुत भीड़ होती, लोग मन्नत का धागा बांधते, मौलवी से झाड़ फूँक कराते और हर धर्म के लोग वहाँ नज़र आते। कभी-कभी तो मज़ार की चारदीवारी के अंदर जंजीरों से बंधी कोई युवा लड़की नज़र आती और कभी कोई लड़का। होश से बेगाना ये अजीब हरकतें कर रहे होते या चुपचाप एक ही स्थिति में घण्टों बैठे रहते। घर वाले इस आस में आते कि कोई ऊपरी साया है, जिससे सिर्फ यहीं छुटकारा मिल सकता है। दीदी कोचिंग के बाद उसी रास्ते से साइकिल लेकर आती थी क्योंकि दो फीट चौड़ी गली से साइकिल लाने का हुनर हममें से किसी को नहीं आता था और रात में साईकिल बाहर छोड़ने का खतरा उठाना मूर्खता होती।
जनवरी का सर्द महीना था और प्रैक्टिकल की वजह से बहन को घर आते- आते रात के साढ़े आठ-नौ बज जाते थे। सर्दियाँ अपने उरूज़ पर थीं, लोग बाग शाम होते ही अपने घरों में कैद हो जाते थे। जानवर भी अपने कोने-कदरे में छिप जाते और रास्ता लगभग सुनसान हो जाता था। एक वजह ये भी थी कि रात के आठ बजे बिजली चली जाती थी और भोर के चार बजे से पहले दर्शन नही देती।  चोरी-चकारी के डर से यह तय किया गया था कि शहर की दुकानें आठ बजे तक बंद कर दी जाएं। बस जी, जब बाज़ार की रौनक ना रहे तो बाहर कोई नज़र ही क्यों आयेगा ऊपर से ऐसी कड़ाके की सर्दी कि इन्सान के दाँत कटकटाने लगे।
उस शाम दीदी को घर आने में ज्यादा देर हो गई थी। बाबूजी भी घर आ चुके थे लेकिन वो अभी तक नहीं आई थी। हम बहनों की आदत थी कि रात का खाना हम सब बाबूजी के साथ ही बैठकर खाते के साथ ही और पूरे दिन की खबरें वहीं शेयर की जातीं। देर होने पर भी साढ़े आठ तक आने वाली लड़की का रात के नौ बजे तक कोई अता-पता नहीं मिल रहा था, हम कभी छत से झाँककर गली में देख रहे थे तो कभी मुख्य दरवाज़े को खोलकर खड़े बाबूजी को। इतनी देर तो कभी नहीं हुई थी, नौ बजकर 10 मिनट हो गये तो बाबूजी का सब्र जवाब दे गया। उन्होंने जल्दी से शॉल लपेटा और बाहर निकल गये। मदरसे तक गये ही थे कि सामने से कोई साईकिल धकेलता हुआ आ रहा था।
बहन ने साईकिल घर के आंगन में खड़ी की और कमरे में आई तो चेहरा डर के मारे अजीब हो गया था और वह अभी तक काँप रही थी। हम सब परेशान हो गये कि क्या हो गया! बाबू जी न जाने कैसे ऐसे किसी मौके पर शान्त हो जाते; कोई सवाल नहीं, डाँट नहीं, बस चुपचाप आकर खड़े हो गये। दीदी एकदम से चुप बैठी थी और बड़ी बहन कंधे पर हाथ रख उसे तसल्ली दे रही थी। सब चुप थे, मुझे लगा शायद रास्ते में किसी लड़के से झगड़ा हो गया है इसलिए बहन घबराई हुई है। इस बात पर ज्यादा परेशान होना मेरी समझ मे नही आया क्योंकि हमारा मुहल्ला तो वैसे ही मारपीट के लिए बदनाम था। ऐसे में कोई बाहरी लड़का तो ऐसी हिमाकत करेगा नहीं और अगर अपने ही मुहल्ले के हुआ तो सुबह-सुबह ही उसकी ख़ैर- खबर ली जाती।
थोड़ी देर बाद जब दीदी थोड़ी सामान्य हुई तो सब खाने बैठे लेकिन आज कहकहों के दौर नहीं चले जो हमारे खाने के बाद कि गप्पबाज़ी से होते थे। ख़ैर खाना-पीना खत्म कर बाबूजी और हम सब घेर कर बैठ गये कि बात क्या है। बहन कोचिंग से साढ़े आठ बजे निकली और कच्ची सड़क वाले चौड़े रास्ते से आ रही थी कि अचानक मस्ज़िद के आले पर रखा दीया बुझ गया और न जाने कहाँ से कुत्तों के रोने की आवाज़ आने लगी। बहन को लगा कि कुत्ते आसपास ही हैं इसलिए उसने साईकिल के पैडल को जोर से मारना शुरू किया लेकिन पीछे से कोई खींचने लगा, जिस वजह से रफ़्तार और धीमी हो गई। बहन ने हनुमान चालीसा का पाठ करना शुरू कर दिया लेकिन दहशत के मारे पलटकर देखने की हिम्मत नही कर पा रही रही कि आख़िर साईकिल पीछे से पकड़ा किसने हैं। कड़कड़ाती सर्दी में भी उसके माथे पर पसीने की बूंदे छलक आई थीं। क्या पता कोई जिन्न-जिन्नात  इस वक्त घूमने निकला हो और अपने एकान्त में किसी आदमजाद के दखलंदाजी से नाराज़ हो गया हो?
बहन ने और जोर लगाकर पैडल पर पैर मारा तो साईकिल की चेन उतर गई। अब उसके पास कोई रास्ता नहीं था कि वह चेन उतरी साईकिल के साथ घर की तरफ दौड़ लगा दे। उतने लम्बे रास्ते में एक इंसान तो क्या जानवर तक नज़र नही आया। ऊपर से लोबान की आती खुशबू ने यह तय कर दिया कि कुछ ही वक्त पहले यहाँ कोई मनों मिट्टी तले हमेशा के लिए सो गया है और उसे मिट्टी देने वाले वापस जा चुके हैं। दीदी वहाँ से भागी तो बाबूजी के टॉर्च की रोशनी देखकर ही उसके पैरों ने थोड़ा धीरज थामा। इस घटना को सुनकर एक बार तो हम सभी के चेहरे पर डर का साया आकर गुजर गया क्योंकि जब हम शाम की चाय पीने सीढ़ियों पर बैठे तो लोबान की खुशबू ने हमें आकर्षित किया। नीचे झाँक कर देखा तो मदरसे के बाहर लगे हैंड पम्प पर कुछ लोग अपने हाथ-पाँव धुल रहे थे। फिर भी हिम्मत करके हम आँगन में साईकिल के पास आये। बाबूजी ने टॉर्च जलाकर मुआयना किया तो किताबों से भरा बैग एक ओर लुढ़ककर पिछले पहिये की तीलियों से रगड़ खा गया था। कच्चे रस्ते पर साईकिल की उछलकूद में बैग बिचारा एक ओर को लुढ़क गया था जिसकी वजह से साइकिल की स्पीड कम हो गई थी।
यह देख हम सब ही ठहाका लगाकर हँस पड़े। देर रात के इस ठहाके की आवाज़ यकीनन दूर तक गई होगी। बाबूजी मुस्कुराते हुए बोले,-  “अईसन हँसी सुन के जिन्न-जिन्नात का, उनकर बापो-दादा भाग जाइ लोग। इस घटना के बाद एक नई बात यह हुई कि बाबूजी दुकान से आते हुए कोचिंग सेंटर से होकर ही घर आते।
शालिनी कपूर
जन्म: जुलाई 1982
जन्म स्थान: करीमुद्दीनपुर, गाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: स्नातकोत्तर (हिन्दी) बी.एड.
सम्प्रति: स्क्रिप्ट राइटर अरुन्धती फिल्म्स एंड मीडिया
साहित्य: वागर्थ,हिंदुस्तान,भोजपुरी साहित्य सरिता व अन्य पत्र पत्रिकाओं में कविता, संस्मरण और कहानियां प्रकाशित।
संपर्क – [email protected]
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