युवा होते बच्चे
चिड़चिड़ाने लगते हैं
अकस्मात,
इर्दगिर्द अपने बुन लेते हैं
असहमतियों का
उलझा सा जाल
जो गाहे बगाहे बदल जाता है
बख्तरबंद छावनी में…
नर्म सर्दी की गुनगुनी धूप में
कभी खींचकर पर्दे सभी
मस्त होना चाहते हैं
एक अलग दुनिया में
जहाँ दखल न हो,
वर्जनाएँ न हों
न हों कोई सवाल।
तो कभी
चिलचिलाती धूप में
निकल पड़ते हैं
खुद को खोजने
खाली हाथ,
चप्पल चटकाते
आईने से बेपरवाह।
दुनिया अचानक
बदलने लगती है उनके लिए
मानो न उन्हें कोई समझता है
न वे किसी को समझते हैं।
जिन उंगलियों को थाम
सीखे डग भरना,
छलनी करता है
उनका अपनी ओर उठना,
युवाओं के माता-पिता
अक्सर भूल जाते हैं अपने दिन
जब अल्हड़ बेपरवाह
घूमते थे गलियों और चौबारों पर,
बांधना चाहते हैं हवा को
जो अमूमन सरक जाती है
बारीक झिर्रियों से…
बाँधकर रखने
और खुलकर उड़ान भरने की
जद्दोजहद का एक चक्र
घूमता रहता है
अनथक
अनवरत।

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