अब मैं देख रही हूँ
अनाथालय के साथ साथ
वृध्दाश्रम की संख्या भी
बढ़ रही है
ग़रीबी में परिवार का महत्त्व था
एक कमरे में दस लोग रहते थे
प्यार भी रहता था
अभी घर बड़ा है
लोग कम है
फिर भी प्यार के लिए
जगह नहीं है
झगड़ों ने कमरे में
बिस्तर डाल दिया है
दिल ने अपनी खिड़की
बन्द कर रखी है
अब दिन अपना नहीं
रातों में सपना नहीं
अस्त-व्यस्त है अपनापन
खो गया है विश्राम का क्षण
रात का मुखौटा पहन
चारों तरफ
घुल रहा है अकेलापन
बंद दरवाजे की ओट से
बिखरने लगा है
एक अनजाना मौन
फिर कुछ चतुर लोगों ने तो
उनके घर में टंगे चित्र को ही
अपना वारिस मान लिया है
और बेबसी में मैं
कुछ पराएपन को
अपने आसपास
आईने की चमक समझकर
खाली कविता ही लिखती
रहती हूँ ।
पारमिता षड़ंगी
मुंबई
9867113113

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