1 – सिमटता वजूद
वह टूटती है टुकड़ों में
बिखर जाती है
खुद को समेट फिर
खड़ी भी होती है
वह सिमटती ही रही अक्सर
कभी किचन
तो कभी ऑफिस में
औ’ कभी आलीशान कहे जाने वाले मकान में !
वजूद भी उसका
सिमटकर ही रह गया
क्यों सीख लेती है वह
खुद को समेटना
जहां जगह कम हो ?
2 – विडम्बना कैसी ये!
गली, मोहल्लों, सड़कों पर
डोलता वह बचपन
न मां का ममत्व
न पिता का साया
हाय रे चितेरे
कैसी निष्ठुर तेरी माया!
होनी थी सुशोभित जिन करों में
पोथियां ज्ञानार्जन की
बीनते कूड़े का ढेर वे
हाय रे चितेरे
विडम्बना कैसी ये!
गेट पर पाठशाला के
टकटकी लगाए निहारते वे
ककहरा पढ़ते
खेलते बचपन को
देख उनमें अपना ही साया
सामने सपनों की दुनिया!
भूख के कीड़े
कुलबुलाते जब
तब बिखरता सपना
भूखे ही रह जाते वे
हाय रे चितेरे
विडम्बना कैसी ये!
फटे चीथड़े देह पर
मलिन-मुख, निस्तेज-नयन
बहती अश्रुधार
न कोई पालनहार!
कोमल काया
दुपहरी में जेठ की
झुलसती निरंतर
औ’ विकल भूख पेट की
सताती आभ्यंतर
हे चितेरे!
तुम कहलाते
दया के सागर
पालनहार
दिखती नहीं तुम्हें
बेबस सी रचना
उनकी पीड़ा………
सुना है
तुम हो माहिर
रचने में लीला
पर कैसी ?
जब कृति तुम्हारी
दर-दर भटकने को है मजबूर!
हाय रे चितेरे
विडम्बना कैसी ये!
ममता! हमेशा की तरह तुम्हारी कविता संवेदना में सांसें ले रही हैं। बधाई!
धन्यवाद आरती