• हरदीप सबरवाल

वो औरत 
रोज ही 
वह औरत 
किसी वहम में हो जैसे कोई, 
धोने लग जाती है 
घर की दीवारों को, 
छत से नीचे की ओर लटकती 
चिको और हरी जालीदार तिरपालों को, 
ढक कर रखती है सभी 
खिड़कियों और दरवाजों को 
बाहर की हवा को रोकती, 
रोशनी से नफ़रत हो जैसे, 
सर्दी गर्मी या बरसात में भी 
बच्चो को बाहर गेट पर ही 
आधा नहला , उनके जूते चप्पल धोकर, 
अंदर जाते ही किवाड़ बंद करती, 
आस पड़ोस की आंखो में प्रश्नचिन्ह 
छोड़ती, 
और किसी ने थक हार कर पूछ लिया जब, 
इतना वहम क्यों करती हो?, 
वो बोली, 
वहम नहीं करती, बस डरती हूं, 
हवा में जो वितृष्णा फैल गई है, 
जिस वहशत से भरे पड़े है तमाम 
समाचारपत्र और खबरिया चैनल, 
उन सबके कीटाणु कहीं 
मेरे घर में ना घुस जाए कहीं…….
इस सब के बाद
लिखो मत
पन्ने उकता चुके है और
शब्द ऊब
किसी खिलौने की दुकान में
बाहर धूप में टंगे टंगे थके से,
सबको नापसंद खिलौनों के रंग उड़ गए हैं,
ऊंघ रहे है कही संदूकों में आराम से,
वो नारे जो कल तक आसमान सिर पर उठाए थे,
गहरे पानी में उतर गई है मछलियां सभी,
जो फेंके गए चारे को निगलने के लिए
उत्पात मचा रही थी सतह पर,
स्वर्णिम कटी हुई फसल के दाने बोरियो में सिल कर
गोदामों में शीतलता का आनंद ले रही हैं,
सभी कमानो के चले हुए तीर
तरकश में जा फूले नहीं समा रहे हैं,
इस बार लिखना भी हो अगर आदतन
तो उकेर देना शब्दों से कुछ बिस्तर
शब्दों के लिए
ठंडे बस्ते में जाने का वक़्त है भई……

(हरदीप सबरवाल पंजाबी यूनीवर्सिटी से सनातकोत्तर है, उनकी रचनाऐं विभिन्न ऑनलाइन और प्रिंट पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. अब तक ६ सांझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित हुई हैं. आप प्रतिलिपि कविता सम्मान 2019 से सम्मानित हैं.)

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