Monday, May 20, 2024
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सरिता मलिक की कविताएँ

1. सौग़ात
कुछ पल खुशी के, मुस्कुराहट के,
किसी सौगात की तरह
यूं ही झोली में आ गिरते हैं
और अपना अस्तित्व, बहुत महत्वपूर्ण
महसूस होने लगता है,
कि क्या वाकई हम इस काबिल थे
जो इन पलों ने टूट कर गिरने को,
हमारा ही दामन चुना!!
इनकी कीमत हीरे मोतियों से भी
नहीं आंकी जाती,
इनका आकार किसी रिश्ते,
किन्हीं शब्दों की नाप में नहीं आता,
ये कभी दिल के कोनों में भी छिप जाते हैं
तो कभी ब्रह्मांड में भी नहीं समाते,
ये सिर्फ महसूस किए जाते हैं,
ये असीम हैं,निराकार हैं,अनंत हैं,
हवा की तरह,खुशबू की तरह,
ईश्वर का कितना भी शुक्रिया करूं ,कम है,
क्योंकि जीने का ये खूबसूरत हुनर,
मेरा अपना सीखा तो
नहीं हो सकता।
2. खुद की थपकी भी जरूरी है
आंसू पीने और ग़म खाने, की भी क्या मजबूरी है!
अपनी पीठ पर कभी कभी खुद की थपकी भी जरूरी है!!
अपनी हदों को चीर के क्यों न राहें नई बनाओ तुम,
अपने लिए उम्मीद के फूलों के नए बाग खिलाओ तुम,
बिन आशा के कुदरत का हर रंग बेनूरी है!
अपनी पीठ पे कभी कभी खुद की थपकी भी जरूरी है!!
माना दावानल सम्मुख, कष्टों का अथाह समंदर है,
बाहर कैसी खोज है जब हर हुनर तुम्हारे अंदर है,
मृग की नाभि में ही तो होती कस्तूरी है!
अपनी पीठ पर कभी कभी खुद की थपकी भी जरूरी है!!!
उचित गटकना तभी हलाहल लक्ष्य अगर जनहित फल हो,
वरन् त्याग क्यों स्वप्न उड़ान का, जब हिय निश्छल निर्मल हो,
सधे हुए कदमों ने ही, तय की अंचल की दूरी है!
अपनी पीठ पे कभी कभी, खुद की थपकी भी जरूरी है!!!
3.
अलहदा तुम अपनी एक पहचान रखती हो,
ठोकर पे ज़िंदगी का हर इम्तिहान रखती हो।
छू नहीं पाते तुम्हें कोई तंज़,शिकवे या गिले,
निगाहों के आगे खुला आसमान रखती हो।।
पी जाती हो ग़म के कितने ही खारे समंदर,
अपने भीतर कितने रेगिस्तान रखती हो!!
जो भी मिलता है तुमसे कुछ पा ही जाता है,
भरा पूरा दुआओं का एक जहान रखती हो।।
सहेजती हो मिट्टी की खुशबू अह्सास में,
कंक्रीट के जहाँ में कच्चा मकान रखती हो।।
4. कोई ख्वाब बुनते हैं
सुवासित सपनों की कोई किताब बुनते हैं
आज फिर से एक नया कोई ख्वाब बुनते हैं।
क्योंकर आबोहवा में तल्ख़ियां ही घोली जाएं,
क्यों गलतियों की रिसती रगें टटोली जाएं,
क्यों नशतरों सी चुभती बातें ही बोली जाएं,
कुछ मीठे शब्द चुनते हैं, सुलझे जवाब बुनते हैं,
आज फिर से एक नया कोई ख्वाब बुनते हैं।
सफलता की राह में, होगी कभी कोई भूल भी,
होगी राह समतल कहीं, कहीं मिलेंगे शूल भी,
खराब भी होंगे मौसम, होंगे कभी अनुकूल भी,
तो कांटों के संग संग ही गुलाब चुनते हैं
आज फिर से एक नया कोई ख्वाब बुनते हैं।
सघन अंधेरों के पीछे, सूरज के दग्ध उजाले हैं,
हार से उठ कर बनती कितनी, जीत की अमिट मिसालें हैं,
घोर निराशा चीर के निकली, आशाओं की मशालें हैं,
आज नए सूरज उगाते हैं, नए आफताब बुनते हैं,
आज फिर से एक नया कोई ख्वाब बुनते हैं।।
5. पहाड़ का दर्द
अपना जीवन तराशने के लिए,
तुम मुझे ही काटते रहे, मैं चुप रहा,
खड़ा रहा अडिग तुम्हारी ,
शान और पहचान बन कर,
मेरी छाती में ठोंक डाली तुमने,
कितनी ही बेतरतीब बेहिसाब इमारतें,
मगर मैं आहें भर कर भी
तुम्हारे जीवन की खुशहाली के लिए,
वो असहनीय दर्द और भार सहता रहा,
मिटा दिए तुमने मेरी हरियाली के साए,
मैं खामोशी से सहता रहा,
मेरे जिस्म को चीर तुमने,
अंतहीन चौड़ी सड़कें बना डालीं,
मैं चुपचाप रोता रहा,
पल पल जर्जर होता रहा,
अपनी कदाचित कराहटों से,
तुम्हें कई बार चेताया मैंने,
मगर अपनी मशीनों के शोर से संवेदनहीन बन,
तुम मुझे निरंतर अनसुना करते रहे,
कई बार मेरे आँसू तुम्हारे दामन में गिरे,
मगर तुमने मेरा दर्द बेदर्दी से पोंछ डाला,
विकास के नाम पर काट दिए तुमने,
मेरे ही पैर, मैं गिर पड़ा,
मेरा दर्द अब सैलाब बन उमड़ पड़ा है,
जो अब लील रहा है तुम्हारे घरों को,
तुम्हारे जीवन और जीवन व्यवस्था को,
अपनी असीमित सुविधाओं की ललक में तुम,
मेरी पीड़ा भूल गए और अंततः,
अपना ही जीवन असुरक्षित कर डाला,
मुझे पाने के लिए तुमने मुझे ही मिटा डाला,
हे मानव! अभी भी समय है,
अपनी सुप्त चेतना को जगा दो,
रुक जाओ, थम जाओ,
अपनी बेहिसाब आकांक्षाओं को,
सब्र की लगाम दो,
ये अंतहीन दौड़ तुम्हें कहीं नहीं पहुंचाएगी
सिवाय तुम्हारे अस्तित्व के
संपूर्ण विनाश के।
6. मौन मुखरित हो गया है
मौन मुखरित हो गया है
वक्त चिंतित हो गया है ।
उठ चुके सब स्पन्दनों से,
झूठ के अभिनंदनों से,
कर्ण हैं मेरे व्यथित अब,
सिसकियों से, क्रंदनों से
रोम रोम पीड़ा में है
और भाल क्रोधित हो गया है,
मौन मुखरित हो गया है ।
मिट गई माथे की लाली,
बच्चा बच्चा है सवाली,
पसरी क्यों मेरे ही आँगन,
घोर पीड़ा की रात्रि काली,
काल भी शायद कहीं अब
खुद अचंभित हो गया है,
मौन मुखरित हो गया है।
लाठी कहीं टूटी पड़ी है,
गोद में रुलाई जड़ी है,
सूनी और पथराई आँखें
द्वार पर कब से खड़ी हैं,
घर के कोने कोने में अब
शोक बिंबित हो गया है,
मौन मुखरित हो गया है।
गलियों में पसरे सन्नाटे,
उठते ग़म के ज्वार भाटे,
गहन उदासी है फिज़ा में,
दर्द दिल का कौन बांटे,
टूटे हारे मूक मन में,
ग़म ही संचित हो गया है,
मौन मुखरित हो गया है,
वक्त चिंतित हो गया है।
सरिता मलिक  
हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले में जन्मी सरिता मलिक लोक प्रशासन में स्नातकोत्तर हैं। इन्होंने बी. एड. सृजनात्मक लेखन में डिप्लोमा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में डिप्लोमा एवं उच्चतर शिक्षा में डिप्लोमा किया है। आर्मी स्कूल नाहन एवं पाइनग्रोव स्कूल सुबायू हिमाचल प्रदेश में अपने शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दी हैं। आप आकाशवाणी हमीरपुर, शिमला एवं चंडीगढ़ से नैमित्तिक उदघोषक एवं कार्यक्रम प्रस्तोता के रूप में जुड़ी रही हैं। श्रद्धा सबूरी प्रोडक्शन हाउस के साथ आपने बहुत से रेडियो कार्यक्रम लिखे एवं प्रस्तुत किए हैं। गेयटी थियेटर शिमला में भी आपने बहुत से नाटकों में अभिनय किया है। मंच संचालन का भी शौक रखती हैं और आपने बहुत सी विख्यात हस्तियों के साक्षात्कार भी किए हैं। आपकी लघुकथाएं, लेख एवं कविताएं बहुत से समाचान पत्रों एवं पत्रिकाओं में छपती रही हैं। आपकी कविताएं 15 राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय संकलनों में शामिल हैं। जेएम.डी. ‘पब्लिकेशन दिल्ली की ओर से आपको हिंदी सेवी सम्मान, नारी गौरव सम्मान, हिंदी सागर सम्मान, प्रेम सागर सम्मान एवं नई सदी के श्रेष्ठ रचनाकारों में रचनात्मक सहयोग हेतु सम्मान से नवाजा गया है। N.A. Cultural Society की ओर से भी आपको उत्कृष्ट लेखन के लिए सम्मानित किया गया है। परिवर्तन परिवार दिल्ली द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित लघु कथा एवं कविता पाठ प्रतियोगिता में आपकी रचनाओं को सर्वश्रेष्ठ चुना गया। वर्तमान में आप शांति मीडिया जोन की निदेशक है, स्वतंत्र लेखन करती है एवं प्राणिक हीलर के रूप में अपनी सेवाए दे रही हैं।
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3 टिप्पणी

  1. सरिता जी!आपकी पहली कविता बहुत ही अच्छी लगी।जीवन के झंझावातों की विषमताओं से जूझते हुए जीवन में अगर आनंद और खुशी के दो पल अनायास ही झोली में आ पढ़ें तो निश्चित ही वह सौगात से कम नहीं लगते।
    आपने शीर्षक बिल्कुल माकूल रखा है। हवा और खुशबू की तरह यह सुनहरे पल वाकई में सिर्फ महसूस ही किये जा सकते हैं और इन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह कविता हमें बहुत कुछ अपनी सी महसूस हुई।
    दूसरी कविता भी प्रेरणास्पद है। कई बार ऐसी स्थितियांँ बनती हैं कि बहुत प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिलती और न ही हमारी पीठ थपथपाकर,सर पर हाथ रखकर आगे बढ़ाने की प्रेरणा देने वाला कोई अपना मिलता तो ऐसे क्षणों के लिए यह कविता हमें प्रेरित करती है कि हम स्वयं को हौसला दें,अपनी पीठ स्वयं हाथ से थपथपाने से आशय प्रतीकात्मकता में स्वयं को प्रेरित कर आगे बढ़ने से है।एक गाने की दो पंक्तियांँ आ रही हैं इस कविता के लिए जो हमारी भी प्रेरणा रहीं-
    ” गिरना नहीं है गिर के संभालना है जिंदगी
    रुकने का नाम मौत है चलना है जिंदगी”
    तीसरी शायद गजल है। कविताओं के बीच हमें इतनी पहचान नहीं है गजल की,लेकिन हर शेर अपनी पहचान सा लगा।एक नंबर है यह।हर शेर लाजवाब।
    चौथी कविता “कोई ख्वाब बुनते हैं” भी बहुत अच्छी लगी।
    जब ख्वाबों को बुना जाएगा तभी ख्वाब पूरे करने के उपक्रम होंगे और तभी पूरे भी होंगे -मनसा,वाचा, कर्मणा के तर्ज पर। हर पद की अंतिम दो पंक्तियाँ बहुत ही अर्थपूर्ण हैं।
    “पहाड़ का दर्द” कविता एक चिंतनीय विषय है! अपनी सुविधाओं के लिए मनुष्य जिस तरह से प्रकृति का दोहन करने में लगा है वह अंततः उसके लिए नुकसानदायक ही है और यह सत्य भी है! यह कविता मानव को सचेत करती है कि अब भी समय है अगर अब भी नहीं चेता तो विनाश निश्चित है। केदारनाथ का उदाहरण आज भी रौंगटे खड़ा करता है।
    “मौन मुखरित हो गया है” कविता दर्द की कविता है। जहांँ दर्द इतना बढ़ जाता है,पीड़ा इतनी अधिक तकलीफ देह हो जाती है, फिर चाहे वह अपने किसी भी रूप में क्यों ना हो, कि वाणी स्तंभित होकर खामोश हो जाती है तो निश्चित ही मौन मुखरित हो उठता है।
    इतने सुन्दर सृजन के लिये आपको बधाइयाँ।
    पुरवाई का शुक्रिया पढ़वाने के लिये।

    • नीलिमा जी आपने हर कविता का मर्म इतनी खूबसूरती से पकड़ा है कि मैं क्या ही कहूं। अपनी पत्रिका में मेरी कविताओं को स्थान देने के लिए आपका बहुत आभार। मैं अनुगृहीत हूं जो आपने मेरी कविताएं प्रकाशन हेतु चयनित कीं।
      आभार।

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