बड़े अच्छे वो दिन हुआ करते थे
जब हम बच्चे हुआ करते थे
और पापा पर आश्रित हुआ करते थे
न कोई फ़िक्र होता था
न ही कभी फ़ाका होता था
सारा सारा दिन हंसी ख़ुशी से गुज़र जाता था
हर पल हर लम्हा, मस्तियों में निकल जाता था
मस्ती ही मस्ती कदम चूमा करती थी
पड़ोसन भी हमारी हम पे मरा करती थी
पापा के राज में कभी नहीं काम किया
मौज ही मौज की, ढेरों आराम किया
एक अर्सा गुज़र गया है पापा की आवाज़ सुने
जो पुकारती थी हमें काका के नाम से
बड़ा रौब था उस आवाज़ में
बड़ा ठहराव था उस आवाज़ में
बड़ा ही प्यार था उस आवाज़ में
पापा ने हमें खाना, पीना और पहनावा दिया
उत्तम राह दिखाई हमको, ग़लत राह से लिया बचा
जब कभी हम अपनी असफलताओं से हतास हो जाते थे
हमारा हौसला बढ़ाने, हमारे दोस्त बनकर, पापा ही आते थे
इतना ही नहीं, गर हम कभी रूठ जाते थे
हमको मनाने, हमारे पास, पापा ही आते थे
अब जब सर पे पड़ीं घर की ज़िम्मेदारियां
चल गया पता, सब के भाव का, आटे का दाल का
पापा के राज में सचमुच हम आज़ाद थे
छिन गयी  वो आज़ादी, छिन गये सब ऐशो-आराम
जब से मैं पापा बन गया हूं
पापा नहीं, मशीन बन गया हूं
दिन निकलते ही काम को निकलता हूं
शाम ढलती है, घर को लौट आता हूं
सुना है कुछ बच्चे आज बेसहारा हैं, अकेले हैं
उनके पिता इस बेबस काल में अपनी यात्रा पर निकले हैं।

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