जिरगी ने अपने गले में तांबे के सिक्के से गुंथे हार को डाला और ताखे पर रखे टूटे शीशे के टुकड़े में अपना गला निहारने लगी।
दो दिन पहले ही कजरा के छेड़छाड़ के चलते शीशा गिरकर टूट गया था। काले धागे में गुंथे सिक्कों के तांबई लालपन को गौर से देखते हुए अपने काले गर्दन को वह भूल ही बैठी। नौलखा हार पहनने की खुशी उसकी आँखों से छलक पड़ी। माथे की ओर शीशे को ले गई, तो टूटे शीशे में आधा ललाट, एक आँख, थोड़ी सी नाक खिलखिला उठी। कान की ओर घुमाया, कान में खुंसी जौ की नई बालियों  के हरापन लिये हुए पीलेपन ने सुप्रभात कहा। तिरछे जूड़े में लाल उड़हुल, चंद पत्ते भी बड़ी उदारता से मुस्कुरा दिये।
शीशे को ललाट के बीच में ला वह चमकीली बिंदी देखने लगी। इस बीच उसके होंठों पर एक प्यारी सी मुस्कान फँसी पड़ी थी। उस मुस्कान के साथ नाक की चाँदी की लौंग भी हँसी। लाल पाड़ की उजली साड़ी में वह बेहद खूबसूरत लग रही है, उसे एहसास है।
कल ही सूरज बाबा और धरती मईया के विवाह के पर्व सरहुल के तीसरे दिन पाहन ने फूलखोंसी किया था। पाहन काली ने घर-घर जाकर सरई फूल खोंसकर आशीर्वाद की बरसा की थी। युवकों के कानों में भी सरई (शाल) पुष्प खोंसा था और जनीमन के अँचरा में भी दिया था।
” सरहुल परब में सफेद सखुआ फूल, गाछ सबका मान बढ़ जाता है रे। ” – माय बचपन से ही बताती थी। अब तो वह खुद भी देखती है।
पहले दिन चैत महीना के उजेरिया के तीसर दिन से सुरू परब में साल गाछ के नीचे सरना में दो घड़े में पाहन ने पानी भरकर ढँक दिया था। दूसरे दिन ढक्कन हटाया था। पानी एकदम कम नहीं हुआ, तो घोषणा कर दी,
” इस बेर चिंता करने का बाइत नय है। इस बेर जमकर बरसा होगा। “
सब आगत की खुशी से मदमस्त।
 “इस बेर खेती अच्छा होगा।”
चारों दिशाओं में जैसे गूँज रहा था।
ऐसे भी धरती की बेटी बिंदी के पाताल लोक से आने की प्रसन्नता और नए फल, फूल, फसल के तैयार हो जाने के उपलक्ष्य में मनाया जानेवाला सरहुल सब प्रकृति पूजकों में उन्माद भरता है…रबी फसल के बाद धरती की  संतान गाछ-बिरिछ, फूइर-पात, फल से ढँकने पर मनाया जानेवाला अद्भुत वसंतोत्सव। गाछ, बिरिछ धरती और सूरज की संतान ही तो है। दोनों के ब्याह से उत्पन्न।
बिंदी साल में एक ही बार पृथ्वी पर आती है…चैत में। लोककथा में छिपी है धरती माय और सूरज बाबा की बहुत सुंदर बेटी बिंदी की कहानी। सात नदी के किनारे कमल फूल तोड़ने गई बिंदी डूब गई थी। उदास धरती माय के कारण बरसात बंद…नदी-नल्ला सूख गया…गाछ, बिरिछ, घास सब मुरझा गया…काफी मिन्नतों के बाद यमराज राजी कि साल में एक बार आधे साल के लिए बिंदी को लौटाएँगे।…तब से वह आती है पृथबी पर।
उसके आने से धरती पर बहार आती है। बस, मनने लगा परब…सरहुल परब कुडुख समुदाय में।
वह बचपन से ई किस्सा सुनती रही है।
कजरा के साथ तो उसकी जिरगी थी। वह अपने कजरा के साथ खूब नाची-गाई थी। अब तक मांदर की थाप पर कजरा के साथ थिरकते पैरों की याद बाकी है। गीत के बोल भी –
फूल गेला वन में
सरई फूल
चरका दिसयं
चरका-चरका  (श्वेत)
सरई फूल से भर जाता है वन…और सरना स्थल! सरहुल की पूजा खत्म होने के बाद नई सब्जियाँ बनीं थीं। सबने पहली बार इकट्ठे सरना स्थल पर ही चखा था नई फसल का उपहार। पूजा से पहले खाना वर्जित। सब गाँववाले कड़ाई से पालन भी करते। आजकल बढ़हर फल कम मिलता है यहाँ। पर उसको भी सब पूजा के बाद ही खाते थे। इस बेर उसकी भी सब्जी बनी थी। हर परब में गुलगुला, पीठा, गुड़ पुआ, धुसका, बर्रा जैसे पकवान उसके घर पर भी बनते थे। खासकर जब आजा थे।
अभी सरना झंडे अपनी उजर-लाल पट्टियों की आभा के साथ पूरे परिसर को घेरे हुए लहरा रहे थे।
और जिरगी को घेरे हुए था, कजरा का समर्पित प्यार। पिछले चार-पाँच दिनों से उसके हाथ-पैरों, कमर में लोच भर गई थी। कल उसने हड़िया जी भर कर पिया था, अब तक खुमार बाकी। हड़िया को दोने के कोर से पीते हुए गुपचुप कजरा को देखे जा रही थी, खूब-खूब बतिया भी रही थी। अचानक जिरगी की हँसी खनकती चूड़ियों में बदल गई। कजरा ने पूछा था,
” हमारे साथ बिहा करोगी? “
कुहनी से टहोका दे शर्माकर पूछा था जिरगी ने – ” हमारे संग बिहा? काहे? “
” तोंय हमको बड़ी बेस लगती है। “
चूड़ियों सी उन्मुक्त हँसी उस समय भी गूँजी थी…हर द्वंद्, लिहाज से परे खिलखिलाती हँसी। धरती और सूरज बाबा के ब्याह के परब के बखत कजरा का यह पूछना कि हमारे साथ बिहा करोगी, जिरगी को उत्साह से नहला गया था।
” अगे जिरगी, कहाँ मर गई? जलदी आव। “
” का है? काहे बुलाई? “
” आइज काम पर नय जाएगी का? “
” आज सरहुल बीतले एके दिन हुआ ना, फूलखोंसी हो गया कल। अब कल से जाएँगे। “
माय को आश्वस्त कर वह घर के कामों में उलझ गई। शाम को फिर अखरा में मांदर की थाप गूँजी। नसों में थिरकन बन उतरा नृत्य सबको अखरा की ओर खींच ले गया। वह भी कजरा की पाँचों उँगलियाँ में अपनी उँगलियाँ फँसा झूमर में व्यस्त। रात ढले तक सब लोग रास-रंग में सराबोर!
फिर थक-हार कर सब इधर-उधर लुढ़क गए। कुत्ते एक लय में भूँक कर पूरे गाँव को कँपकँपा गए। रात भर कुत्तों का गीत चलता रहा। कहीं से चिरई फड़फड़ाई तो कहीं तोते उड़कर एक डाल से दूसरी पर जा बैठे। सियार की हुआँ-हुआँ से भी कोई नहीं जगा। भिनसरे किरण फूटते ही अलसाए लोग कसमसाए। जिरगी धीरे से उठी, कजरा के गालों को हौले से छुआ।
” उइठ। आइज तो जाय पड़ेगा। “
वह कुनमुना कर करवट बदलने लगा। वह रात को पहनी गई जरीदार पीली धोती, गुलाबी कमीज और डोरिया गमछे में ही सोया पड़ा था। गेंदे के फूल का पीला हार उसके गले के एक तरफ लटक आया था।
” उइठ कजरा। एते मत अलसा रे! “
उसने मुर्झाया हार खींचा। फिर बाहर निकल गई।
अहरा के पास पाकड़ गाछ के पीछे फारिग हो, सामने ही उदंड से खड़े अमरूद गाछ से डंठल तोड़ दातुन करने लगी। तभी कजरा आ पहुँचा। अधिकांश लोग जग चुके थे।
” आइज का बात? तुम एकदम रानी लखे दिख रही है। “
मन में भी मांदर बज उठा। ढोलक की थाप भी।
” और तुम राजा लखे। “
दोनों की चुहुलबाजी से किसी को कोई एतराज नहीं था।
ठेकेदार की आज्ञा थी कि पत्थर की लकीर – ” सब नौ बजे से पहले हाजिर रहा करो। “
सब तैयारी में व्यस्त थे। कोलतार की आधी बनी तपती सड़क उनका इंतज़ार कर रही थी। पहले आधा गाँव खेतिहर मजदूर था। आधे गाँव के पास अपने खेत थे। तीन साल के अकाल ने उनसे उनके खेत झपट लिये। उनलोगों की जमीन खरीदने-बेचने पर रोक लगने के बाद भी खेत औने-पौने में बिके। कुछ लोगों के बुजुर्ग तो पहले ही दारू की चंद बोतलों के बदले जमीन बेच चुके थे। मालिक मजदूर बन अपने ही खेत में खटने लगे। कितने मजदूर पलायन कर गए। पंजाब, गुजरात, मुंबई, दिल्ली ने कईयों को पनाह दी।
अधिकांश शहर में ही विभिन्न प्रतिष्ठान…होटल, कपड़े की दुकान, राशन, चाय-पानी की दुकान तथा अन्य जगहों की शोभा बन गए।
विभिन्न कठोर कामों ने पूरी उदारता से उन्हें अपना लिया। पत्थर तोड़ने से लेकर भवन बनाने, बालू ढोने, छड़ ढोने तक में उनका ‘ सार्थक उपयोग ‘ होने लगा। ठेलेवाला से लेकर रिक्शा चालक तक बन सब जीवन गाड़ी खींचे लिये जा रहे थे। ये और इन जैसे लोग हैं, तो हम हैं, बड़ी शिद्दत से महसूस किया गया। पहले से भी जियादा। बहुत सारे ‘ फालतू ‘ लोग सड़क निर्माण में जुट गए। कजरा और जिरगी भी। कोलतार की सड़क पर जीवन तपते कोलतार सा बह रहा था।
साढ़े आठ बजते ही पगडंडी पारकर सब मजदूर शहर की छाती रौंदने चल पड़े। भर रास्ते सरई, पलाश, सेमल, कुसुम की बहार! गुलमोहर नहीं खिला था अब तक। लेकिन बस, अब  खिलखिलाने को बेचैन! महुआ पेड़ के नीचे महुआ की मदमाती, नशीली गंध फैली थी। सब बिछने में लगे थे। एकाएक कजरा ने पूछा,
” खैनी है? दे ना। “
ब्लाॅउज में खोंसे डब्बे से खैनी निकाला जिरगी ने और कजरा की ओर बढ़ाया। वे दोनों एक ही साइकिल पर शहर की तरफ बढ़ रहे थे। साथ में डोरिया थैली में भात, दाल जैसा पानी या पानी जैसी दाल, बारी में उगाया भतुआ का साग, रामतोरई की सब्जी , पियाज का आधा टुकड़ा और दो हरी मिर्च टिफिन कैरियर में कैद थी। साइकिल से उतरकर, कजरा साइकिल को एक महुआ गाछ के तने से टिकाकर, खैनी बनाने लगा। डाढ़ के नीचे दोनों ने खैनी दबाया और अपनी सवारी पर सवार। साइकिल हवा से बातें करने लगी। हवा की गुदगुदी से फिर चूड़ियों की खनक हवा में घुलने लगी। जिरगी ने कजरा की कमर को घेरकर पकड़ लिया। अब फिजाओं में दोनों की हँसी थी…हम थे, तुम थे और शमां रंगीन, समझ गए ना।
उन्होंने जानबूझकर पलाश वन वाला रास्ता पकड़ा। उधर से आते हुए राह लंबी हो जाती है तो साथ का मजा चौगुना। वे अक्सर परास के दहकते वन के बीच से गुजरते। हाँ, सुबरनरेखा ( स्वर्णरेखा ) नदी भी तो बीच राह में पड़ती है। वहाँ उतरकर जिरगी बालू में सावधानी से पैर धरते हुए पैदल ही कजरा के साइकिल के साथ चलती है। अब तो सुबरनरेखा नदी में भी कहाँ जादा पानी भेंटाता है। लेकिन कजरा के साथ उसका मन भीग-भीग जाता है…एकदमे सराबोर! उसे पता है, कभी इस नदी में सोना मिलता था। पर अब बालू धूप में सोना जैसा चमककर धोखा देता है। वह आज भी उस बालू में धँसकर चलते हुए खूब खुश।
” ठेकेदार के गाली खा लेंगे। ऐसे भी ऊ ‘ हारो तो हुरो, जीतो तो थुरो ‘…( हर हाल में दोष ) “
हँसे दोनों और नदी के दूसरे पाट पर पहुँच साइकिल पर सवार हो हवा से बातें करने लगे।
घाम (धूप) था कि बढ़ता ही जा रहा था। वे साइट पर पहुँचे, उससे पहले ही पत्थरों के चूल्हे पर कोलतार गरम करने की तैयारी हो चुकी थी। नीम, बरगद, गुलमोहर, अमड़ा गाछ के नीचे साइकिलों, लाल-पियर कपड़ों के मेले लगने लगे थे। थोड़ी देर में जिरगी, कमलिया, बसंती, सोनवा तसले में भर-भर कर गिट्टी लाने लगी। कजरा आग के ललहुन पीले रंग में गिट्टी का काला रंग घोल रहा था। उसके साथ मथुरा भी था।  उनके खुले बदन से गले में बँधी ताबीज को भिगोती पसीने की धार खुशबू की तरह बिखर रही थी। गिट्टी उड़ेलने के बाद काम के बीच भी जिरगी, सोनवा बतियाये जा रही थी।
” आइज बेटा को नय लाई सोनवा? “
” कैसे लानते छउआ को, उसको बुखार है। अफीम चटाकर सुता रखे। बूढ़ी देखेगी। “
उसकी बूढ़ी सास अस्सी बरस खटती रही थी। अब नहीं खटने पारती है। घर पर थी वह। इसीलिए सोनवा निश्चिंत हो मजदूरी करने आ पहुँची, जिरगी को समझते देर नहीं लगी।
गुना अपने छउआ को बड़ गाछ के नीचे चादर बिछाकर सुला आई थी। अचानक वह चीख कर रोया। रोते देख गुना दौड़ी।
दुदमुँहा चींटियों के काटने से चीख पड़ा था। कभी चींटी काट लेती, तो कभी कीड़ा, जब ऐसे ही सब अपने बच्चों को पेड़ के नीचे सुलाकर काम में भिड़ जातीं। कभी-कभार अफीम चटाकर भी। जगे रहने पर पीठ पर शाॅल से बेतरा में बाँध काम करतीं रहतीं सब। थोड़ी सी देर में गुना अपने बच्चे की भूख, तकलीफ और स्नेह की प्यास शांत कर वापस लौट आई। सब जुटीं थीं, सब लौटीं। जिरगी भी। पर पहले जिरगी ने अपनी चादर से दो पेड़ के बीच झूला बनाकर बच्चे को उसमें लिटा दिया। वैसे भी जिरगी सबकी मदद के लिए सबसे आगे रहती थी।
गुना और सोनवा भी जिरगी के गाँव की ही थी। सोनवा को चार, गुना को पाँच बच्चे थे। सब भगवान की कृपा से। गुना अपनी तीन बेटियों ओर एक बेटा को सरकारी स्कूल में पढ़ा रही थी। सोनवा के भी तीनों छउआ वहीं पढ़ रहे थे। मिड डे मील भी बड़ा लालच। वैसे पढ़ा-लिखाकर अपने छउआ-पुता को आदमी जइसन बनाने की लालसा भी पूरे गाँव में पसर चुकी थी। सब इसके लिए और भी खटने को तत्पर। किसी भी तरह वे सब अपने बच्चों को आदमी जइसन बना कर अच्छी नौकरी में लगे देखना चाहती थीं। पाँच महीने के छोटका छउआ को सोनवा अपने बेतरा में बाँध यहाँ ले आती। पीठ के बेतरा में वह हुलसते रहता, वह काम में व्यस्त रहती। सो जाने पर वहीं किसी गाछ के नीचे चादर बिछाकर सुता देती। गुना भी अपने बच्चे को वहीं बगल में सुता गिट्टी, बालू में उलझी रहती।
अभी बच्चे को दुबारा सुलाने के बाद अब फिर तसला था, गिट्टी थी, आग थी, गर्म होता काला कोलतार था, लहकते सूरज बाबा थे। पसीनों की सौंधी गंध भी थी। जिरगी के साथ कईयों की हँसी थी। और थी, बनी-अधबनी सर्पिल सड़क। दूसरी तरफ फर्राटा भरते, नई बनी सड़क के कोलतार से अपनापा जोड़ते वाहन। अचानक सामने से एक स्विफ्ट को आते देख जिरगी की चूड़ी खनकी।
 ” देइख ना, देइख, दारू पीकर झूमते हुए गाड़ी आ रहा है। “
स्विफ्ट रुकी । एक परेशान पुरुष चेहरा झाँका।
” यहाँ कहीं गाड़ी बनानेवाला मिलेगा? “
” हिंया तो नय, आगे एक ठो दुकान है। “
सुकरा आगे बढ़ा। और सब भी देख रहे थे।
” कोई एक साथ चलो न। किसी मैकेनिक को लाना होगा। “
” अभी? साब, अभी तो काम है। ” पसीना पोंछते हुए कजरा बोला  ” सुकरा, तोंय जा। “
जिरगी ने गाड़ी के अंदर झाँका। तीन लोग। एक महिला आगे की सीट पर रूमाल से हवा करती हुई। पीछे की सीट पर दो बच्चे।
” तुम तीनों यहीं रुको, मैं आता हूँ। “
” ठीक है। जल्दी आना। इतनी गर्मी में हम कोलतार के बीच तो भून जाएंँगे। “
” गाड़ी में घूमे से एतना गरमी छटक रहा है, सड़क पर चलतय तो…। “
जिरगी बोलते ही चुप भी हो गई। बेलचा से कोलतार-गिट्टी को एकसार करने, एक ड्रम में कोलतार उबालने का काम जारी था।
 जिरगी से नहीं रहा गया।
” मेमसाब, बाहर आइए, एकदम ठंडा हवा लगेगा। उस चट्टान पर बैठिए ना। “
उन्हें बात जँची। थोड़ी सी देर में तीनों पलाश गाछ की छाँव तले चट्टान पर जम गए। पास ही थी पुटुश की घनी झाड़ी, गुलाबी फूलों से लदी। बीच में झाँकते, काले, पके फलों के गुच्छे…मोती के काले दानों जैसे। वे तीनों गौर से देखने लगे।
” ई फर बड़ी बेस है। हमीन सब खाते हैं। खाइएगा? “
वह दो-चार गुच्छों को छुड़ा, मोती से काले, छोटे  फलों को हथेली में भरकर लेती आई।
” नहीं-नहीं! फेंक दो। जहर-वहर…। “
मेमसाब की लगभग झिड़की से वह खिलखिला उठी।
” खूब अच्छा लगता है। खाने के बाद ना जानिएगा। “
फलों को मुँह में चुभलाती वह फिर चैत्र की तपती दुपहरी का हिस्सा बन गई। थोड़ी देर बैठने के बाद मेमसाब उठ खड़ी हुईं। साथ ही दोनों बच्चों को भी इशारा किया। एसी कमरों में रहने, एसी  गाड़ियों में घूमने, एसी माॅल में खरीदारी करने, एसी हाॅल में मूवी देखने की आदी मेमसाॅब तथा बच्चों को याने पूरी फैमिली को वहाँ की धूप-हवा रास नहीं आ रही थी।
” बहुत गर्मी है, बहुत गर्मी है। और नहीं झेल सकती मैं। ”  कहती हुई वे आगे बढ़ गईं। बच्चे भी गाड़ी की ओर बढ़े। एकाएक उनकी निगाहें जिरगी पर पड़ी। आग के पास खड़ी वह माथे पर भारी तसला थामे चूड़ियाँ खनखनाए जा रही थी। उस खनखनाहट से उसके दाँत मोती से चमक रहे थे। आग की पीली-लाल लपलपाहट से बेपरवाह।
उसको इस तरह इत्मीनान से हँसते देख मेमसाब पहले तो एकटक देखती रह गईं। फिर चूड़ियों सी खनकती हँसी ने उनके तन-बदन में आग लगा दी। सामने सवेरे से महुआ बिछती कुछ लड़कियाँ, बच्चे, औरतें अपनी मौनी, दौरी में महुआ के ढेर से महुआ उठाकर रख रही थीं। मेम साहब ने उधर मुँह फेर लिया। थोड़ी देर में मैकनिक को लेकर साहब हाजिर! देखा, अभी भी मजदूर अपने काम में व्यस्त हैं। आग की लपलपाती जीभों पर कोलतार का ड्रम चढ़ा है। पिघला कोलतार सड़क पर उड़ेला जा रहा है। जिधर रोड तैयार था और भी तपन थी। खूब चमक रहा था नया-नया कोलतार…नया रोड…तीखी धूप से धुला हुआ। एकदम सहज-सरल मजदूरों में से मीठे गलेवाले बंदी की आवाज फिजां में लहराई-
महुआ रे…महुआ पत्तई
महुआ पत्तई सोये झाईर गेल रे
डारी में खोंस लगे खोंचा में फूल
रे
फूल कीरे धरती सोभय रे।
महुआ की टोकरी सर पर थामे एक पंक्ति में लौटती लड़कियों की टोली आगे बढ़ती गई तो जिरगी को वे दिन याद आए।
कभी जिरगी भी अपने गाँव-वन में ऐसे ही महुआ चुनती थी। पर कितनी कम कमाई होती थी।
क्या नहीं किया उसने! बाबा गया तो उतनी कम उम्र में भी श्मशान से जला हुआ कोयला उठाकर लाती और बाजार में बेचकर घर का खर्ची चलाती थी। माय दूसर के खेत में खटती थी। कुछ सालों तक दलाल के चक्कर में पड़ जिरगी अधिक कमाने के लालच में महानगर में खो भी गई थी।
वह तो आँगनबाड़ी और सहिया की सखियों से भेद खुला था और किसी तरह उसे वापस गाँव लाया गया था। दलाल आज भले जेहल की हवा खा रहा है पर जिरगी वो दिन कभी नहीं भूली। समय से कजरा मिल गया, नय तो उसका भगबाने मालिक था।
उसका आजा ( दादा ) भी तो आपन जवानी में ही आपन जमीन चार बोतल दारू की भेंट चढ़ा आया था। तब से घर में जैसे दलिदर घुस गया था।
अब जिरगी और कजरा भरपूर मेहनत कर अपनी जिंदगी को नया रूप देना चाहते हैं। बिहा से पहले थोड़ी जमीन खरीदने का ख्वाब जवां हो चुका है… उन्हें विश्वास है –
” खवाब पूरा होगा। “
” और तभी बिहा करेंगे। “
” एक बाइत आउर, हामर छउआ  को अफीम का गंध भी नय लगने देंगे। “
साइकिल की घंटी की टुन-टुन के बीच रास्ते में की गई बतकही उसे याद आ गई।
कुछ देर की मशक्कत के बाद गाड़ी ठीक हो गई। चारों पसीना पोंछते हुए गाड़ी पर सवार हो  गए। इतनी देर में ही उनके हैंकी भीग गए थे। गाड़ी आगे बढ़ी।
फिर तेज गति से छू-मंतर।
” हुँह!…बहुत गरमी हय…बहुत गरमी हय। “
गाड़ी के अंदर की ठंडी हवा को चिढ़ाता हुआ हँसमुख मथुरा का स्वर था यह।
जोशीले कजरा और जिरगी के होठों पर फिर से हँसी के फूल खिल उठे।
कजरा को हँसती हुई अपनी जिरगी एकदम धरती की तरह लगी… सब कुछ सहकर भी…।
” धरती के साथ आकाश का बिहा…! ” – उसके होंठों पर बुदबुदाहट।
फिर वह टिन के चदरा पर गिट्टी में गर्म कोलतार मिलाकर, उसे एकसार करने में व्यस्त हो गया। युवा सूर्य को इनसे रश्क…वह और तपने लगा।

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